शनिवार, 22 मई 2021

सघन अनुभूतियों और गहन स्मृतियों के बीच शब्दों के पुल बनाती कविताएं

सघन अनुभूतियों और गहन स्मृतियों के बीच शब्दों के पुल बनाती कविताएं

-प्रेम नंदन 

 

अनुभूतियाँ और स्मृतियाँ जब किसी दुबकी हुई साँझ या अंखुआई भोर में किसी नदी में पाँव डालकर आसपास बैठे हुए संवाद करती हैं तब ऐसे ही अविकल समय में जन्म लेती हैं साँस लेती, चहकती-फुदकती, गुनगुनाती कविताएं। ऐसी ही कविताओं के सर्जक हैं चर्चित कवि गणेश गनी। उनकी कविताएं अनुभूतियों और स्मृतियों की जीवंत दस्तावेज हैं। उनकी कविताओं के बिम्बों, रूपकों और शिल्प में झाँकता, निहारता और गमकता है पहाड़ी जीवन, नदियाँ, पर्वत, झरने, चीड़ , देवदार के घने जंगल और हरी-भरी घाटियाँ। इन्ही स्मृतियों में तैरते हुए वे कहते हैं-

'उधर सूरज भोर का उजाला 

लाने को था बेताब 

तूफान ने कई पेड़ उजाड़ दिए 

पर एक कागज पर रख कर या मेरे सामने 

और बादल स्याही की दवात

एक शाख कलम और 

भोर का तारा दे गया पता 

उस स्त्री का 

जिससे जुड़ी थी मेरी नाल।'

(पीछे चलने वाली पगडंडियाँ)

 

गणेश गनी की कविताओं में स्मृतियों का रंग इतना चटख है कि वो समय की सदियों लम्बी दूरी कुछ ही शब्दों से नाप लेती हैं और और किसी जीवित चरित्र सी , समय-बेसमय अक्सर दहलीज पर आकर खड़ी हो जाती हैं-

'कितने बरस बीत गए 

तुम्हारे पैर छुए और फिर 

गले लगा अपने दुख आंखों से बहा आया 

आंख खुली तो देखा अभी भोर का तारा 

पहरेदारी में जाग रहा है 

जबकि तुम्हारा इंतजार अभी बैठा है ठीक उसी जगह दहलीज के बाहर पत्थरों की पहली सीढ़ी पर।'

(मैं कहानी सुना रहा हूँ!)

 

लोक की संवेदनशीलता और अपनी जड़ों से जुड़ाव उनकी कविताओं में सर्दियों की गर्म धूप सा चमकता है वे बार-बार अपने गाँव-जवार लौटते हैं और यादों की सीलन भरी जगहों को रोशनी और ऊष्मा से भर देते हैं। स्मृतियों में भटकते हुए ऐसे ही कोमल क्षणों में दूर कहीं खोह में बहुत गहरे दबे चेहरे आँखों के परदों पर किसी चलचित्र की तरह आ खड़े होते हैं-

'जब वो कुछ शब्दों को 

बोल देता है सहज ही 

तो मेरी स्मृतियों खुल जाती हैं 

ऐसे शब्द 

जो पिता कहते थे 

जो मां बोलती थी 

उसके मुंह से सुनता हूं तो 

उफ़्फ़ कहता हूं धीरे से। 

 

ओह!

सोचता हूं वो शब्द कैसे चल कर 

और कब उसकी जुबान पर पहुंचे होंगे!'

(जबकि इंद्रधनुष तो  उसकी  पलकों पे  रहता है!)

 

अपनी जमीन से गहरे जुड़ा कवि साँप-सीढ़ी नहीं खेलता बल्कि पहाड़ी झरनों सी, बारिश की गुनगुनाती बूँदों सी, मिट्टी की सोंधी खुशबू-सी गमकती, फूलों पर मंडराती तितलियों जैसी कविताएं लिखता है और उन्हें आकाश की अलगनी पर टाँगकर पहाड़ों की सरसराती ठंडी हवा में झूलने के लिए छोड़ देता है-

'उसे नहीं मालूम 

कि हवा ने कान खड़े कर रखे हैं 

पंछी अपने पर तो बोल रहे हैं

ऊंची उड़ान भरने से पहले 

सारे बादल जा छिपे पहाड़ के पीछे।

 

आज वह आई है ठानकर

कि अपनी सीटी की आवाज से 

बुलाने पर पल में 

दौड़ी चली आने वाली हवा को 

जाने ही नहीं देगी।'

(हवा को जाने नहीं देगी)

 

गणेश गनी अनुभूतियों की रस्सी पकड़कर स्मृतियों में उतरते हैं और शब्दों के पुल पार करके वर्तमान में लौटते हैं यही उनकी रचना प्रक्रिया है और इसी से उनकी कविताएं जन्म लेती हैं -

'इन सब के बीच बड़ी खबर यह है कि

जोबनू के पास है सुच्चा मणि

वह आज हैरान है 

भरी दोपहर में 

एकदम चापलूस से दिखने वाले लोगों का जमघट 

अपने आंगन में देखकर 

वो दोनों कंधों पर खेश को 

चांदी की सुइयों से टांगे और 

बाएं कंधे की सुई से 

झूलती चाबियों की खनक 

और विरासत संभाले चौकन्नी है।'

(जोबनू)

 

कोई भी सजग रचनाकार अपने समय और समाज से निरपेक्ष नहीं रह सकता। गणेश गनी भी समय की नब्ज पर गहरी नजर रखने वाले रचनाकार हैं। वे वर्तमान राजनीति की लफ्फाज तिकड़मों पर पैनी नजर रखते हैं और उसकी विसंगतियों पर गहरी चोट करते हुए लिखते हैं-

'आप समझते हैं 

कि लाल किले के परकोटे से 

अपने संबोधन में 

मात्र मित्रों कहने भर से 

सद्भावना का हो जाता है संचार 

संपूर्ण पृथ्वी पर 

 

आपके तेज-तेज चलने से ही 

देश का विकास रफ्तार पकड़ लेता है!

 

आप समझते हैं 

कि जहाज के दरवाजे पर खड़े होकर दाहिना हाथ ऊपर उठाकर 

जोर-जोर से हिलाने भर से 

दरिद्रता के बादल छंट जाते हैं।

 

 सरकारी रेडियो स्टेशन से 

आपके मन की बात कर देती है 

सबके मन का बोझ हल्का।'

(आप समझते हैं)

 

आधुनिकता और परम्परा के द्वंद्व में सबसे ज्यादा नुकसान पारिवारिक ढाँचे का हुआ है। इनके  आपसी प्रतिद्वंद्व में संयुक्त परिवार बिखर गए हैं,और एकल परिवारों का चलन बढ़ गया है। अब इन एकल परिवारों में सास-ससुर,दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची जैसे अनेक पारिवारिक रिश्ते हाशिए पर चले गए हैं । इसीलिए बच्चों और बहुओं को जो संस्कार मिलते थे, अब उनका क्षरण हो गया है-

'पुल पर चलने का हुनर 

सास बता रही है नई बहू को 

साथ ही बता रही है 

पुल के रग-रग की कथा 

पुल कहीं झूलने न लगे लग जाए

 इसलिए दबे पाँव चलना है पुल पर और यह भी कि कैसे 

दबे पाँव चलते हैं घर के भीतर।'

(पार की धूप)

 

कविताओं के देय के बारे में अब तक बहुत कुछ लिखा जा चुका है। कविता हमें भौतिक रुप में भले ही कुछ नहीं देती लेकिन हमें मानसिक सुकून और कुछ अच्छा और सच्चा करने की प्रेरणा जरूर देती हैं। वे अपनी एक कविता में कुछ ऐसा ही कहते हैं-

'कविता आकाश से खुलापन देती है उड़ने को पंख देती है 

पंखों में हल्का पन देती है 

अनंत उड़ान देती है कविता।

 

संगीत को शब्द 

आवाज को गीत देती है कविता कल्पना को छलाँग

और आदमी को संवेदना देती है कविता।

 

कविता रोटी नहीं सुकून देती है कविता की चट्टान को जितना तोड़ोगे 

वह उतनी सुंदर दिखेगी 

और फैल जाएगी तुम्हारे पोर-पोर में।'

 (कविता क्या नहीं देती?)

 

पूंजीवाद की नाजायज औलाद बाजारवाद आज पूरे समाज को अपने लुभावने जाल की गिरफ्त में ले चुका है। पूरा समाज उसकी चमक-दमक में उलझ कर रह गया है। बाजार हमारे घरों तक घुस आया है और हमें अपने जाल में बुरी तरह से जकड़ चुका है। बूढ़े, जवान, बच्चे ,सभी पर उसकी नजरें लगी हुई हैं और उससे बचना नामुमकिन सा हो गया है। वह हमें लूटने के लिए रोज नए -नए तरीके खोज रहा है और हमें लूट रहा है और हम लुट रहे हैं, कुछ उसकी मर्जी से कुछ अपनी मर्जी से-

'लूट के तौर-तरीके बदल चुके 

बाजार सेंध लगाकर 

हो चुका है दाखिल घर में 

उसकी नजर पहुंच चुकी है 

बच्चे की गुल्लक तक भी 

अलाव तापता एक बूढ़ा 

बच्चों को सुना रहा है कथा 

राक्षस और देवता की।'

 ( बच्चे की गुल्लक तक)

 

कवि को पता है कि हमारे आसपास जो कुछ भी होता है या हो रहा है, वह अकस्मात नहीं है। उसके पीछे एक सुनियोजित साजिश है जिसे हम अपनी खुली आँखों से नहीं देख पा रहे हैं। ऐसी चीजें देखने में प्रायः नजरअंदाज हो जाया करती हैं। इनका अंदाजा सूँघकर ही लगाया जा सकता है-

'अचानक नहीं हुआ यह सब 

कि कुछ अक्षर फल बांट रहे हैं 

तो कुछ औजार युद्ध के दिनों में

अ बाँट रहा है अनार 

और क सफेद कबूतर 

द बांट रहा है दराटियाँ 

और हां हल और हथौड़े

बस केवल ब के पास नहीं है

बांटने को गेहूं की बालियां 

पर स नया सूरज उगाने की फिराक में है।' 

(यह उत्सव मनाने का समय है)

 

इन दिनों देश मे आतंकवाद, नक्सलवाद से भी बड़ा खतरा बनकर उभरा है अंधराष्ट्रवाद। यह ऐसा समय है कि जो उसकी हाँ में हाँ नहीं मिलाता वह तुरंत ही देशद्रोही हो जाता है। ऐसे लोग किसी भी समय सरेआम किसी अराजक भीड़ का शिकार बन सकते हैं-

'जिन लोगों को अब तक नहीं हुआ था यकीन 

कि अराजकता गणतंत्र की दहलीज तक पहुंची है 

उनकी आंखें फटी और मुंह खुले रह गए 

जब संविधान के पहले पन्ने से न्याय जैसा शब्द 

राजधानी में अदालत के बाहर सड़क पर आ गया।'

(किस्से चलते हैं बिल्ली के पाँव पर)

 

ऐसे अराजकता के पोषक लोग अब बहुत सारे शब्दों में मनचाहे अर्थ भरना चाहते हैं। वे शब्दों के बाजीगर हैं और अपनी बाजीगरी से समाज को अपने पैरों तले रौंदते हुए सत्ता की सीढ़ियाँ चढ़ते चले जा रहे हैं-

'जागृति, संघर्ष आंदोलन 

ऐसे शब्दों को 

किया गया है नजरबंद 

फिर भी डरे नहीं है शब्द

डटे हैं व्यवस्था के खिलाफ 

और भी मुखर हुए हैं ।

 

शब्द कहीं हथियार ना बन जाए इसलिए चाहते हैं 

शब्दों को मार डालना 

या उनकी जुबान काट डालना 

या कम से कम 

शब्दों के अर्थ ही बदल डालना 

चाहते हैं वे।'

 (पहरे)

 

यह साज़िशों का दौर है और इसके पोषकों द्वारा आम आदमी के पक्ष में उठती जिंदा आवाजों को लगातार निशाना बनाया जा रहा है। उनके बनाये गए खाँचे में फिट न होने वाले लोगों पर निगरानी जारी है और हवा में चारों तरफ एक डर सा पसरा है-

'एक साजिश रची जा रही है निरंतर 

डर के मारे लोग भाग रहे हैं 

घर छोड़ कर 

बच्चे डरे हुए घर लौट रहे हैं भविष्यवाणी करने वाले 

स्टूडियो में बैठे इंटरव्यू दे रहे हैं 

जो रोकना चाहता है वह मारा जाता है।'  

(पृथ्वी का लोकनृत्य)

 

पूंजीवाद और बाजारवाद की सीढ़ियों से चढ़कर सत्ता के शिखर तक पहुंचा एक आदमी उसी की पैरवी में दिन रात लगा हुआ है। सैकड़ों किसान रोज आत्महत्या कर रहें हैं, अपना गाँव-घर छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं लेकिन उसे आम आदमी के सुख-दुख, जीवन-मरण से कोई मतलब नहीं है। वह सपने बेचने में व्यस्त और मस्त है-

'संविधान की कुर्सी पर बैठा 

एक आदमी ईमान बेच रहा है 

एक आदमी धर्म बेच रहा है 

एक आदमी पृथ्वी के टुकड़ों में बेच रहा है 

 

अपने खेत की मेड पर बैठा 

एक आदमी अपने खेत बेचने की सोच रहा है 

एक आदमी कर्ज चुकाने के वास्ते 

अपने प्राणों की सौदेबाजी कर रहा है।

 

उधर इंडिया गेट पर बैठा 

एक आदमी बीच कुछ नहीं रहा 

पर खरीदने की फिराक में है।'

(एक आदमी जश्न मना रहा है) 

 

आज भले ही आदमी चांद तक क्यों ना पहुंच गया हो लेकिन उसके घर की दीवारें सिकुड़ती जा रही हैं। एक ही छत के नीचे रहने वाले हो सदस्यों के बीच संवादहीनता बढ़ती जा रही है और आदमी दिन-प्रतिदिन अकेला होता जा रहा है। बूढ़े-बुजुर्गों की बातें सुनने वाला कोई भी नहीं। सब अपने आप में व्यस्त हैं। इसी आपाधापी और व्यस्तता की  जकड़न में हमारे रिश्तों की उष्मा नष्ट होती जा रही है-

'यह सच नहीं है 

कि अब सच्ची बातें कहने वाले नहीं मिलते 

पर यह भी तो सच है 

कि आप सच्ची बातें रहने वाले नहीं मिलते 

इसी कहने और सहने के बीच 

घुटा रहता है कुछ कुछ अनकहा।'

(जब काँधे पर हवा बैठकर कहे)

 

स्त्रियों के बारे में आज भी हमारे समाज में तरह-तरह की बातें की जाती हैं और कहा जाता है कि महिलाओं की स्थिति पहले से बहुत बेहतर हुई है इसमें आंशिक सच्चाई है आज भले ही हम किस वी सदी में जी रहे हो लेकिन हमारी आधी आबादी में अपेक्षित बदलाव नहीं आ पाया है जो आना चाहिए था उनको जो हक आजादी मिलनी चाहिए अभी तक नहीं मिल पाई है-

'क्या आज सूरज चढ़ने तक घर की महिला सोई? 

जैसे आप सोते हैं पुरुष।

क्या आज पौ फटने से पहले आप जागे? 

जैसे जागती है वह महिला।

........................

 

कुछ नहीं बदला 

महिला अभी-अभी 

समेट कर सारे काम 

किचन में रेगुलेटर को सुरक्षा पर घुमाकर 

बच्चे की स्कूल डायरी चेक कर रही है घड़ी में दस बजे हैं 

और बेटे को होमवर्क करा रही है।'

(विश्व महिला दिवस पर समोसा चाय डी सी के साथ...)

 

आज जब देश अंधराष्ट्रवाद के मुहाने पर खड़ा युद्धोन्माद से झूम-इतरा रहा है, तब एक सजग रचनाकार का दायित्व बनता है कि ऐसे अंधों को बताया जाए कि युद्ध हमेशा ही विनाशकारी रहे हैं और जीतता कोई नहीं, सिर्फ मानवता हारती है-

'अब युद्ध समाप्त हो रहा है 

हेअश्वत्थामा! 

तुम्हें अमरत्व का वरदान है 

और माथे पर रिश्ते घाव का शाप भी 

तुम्हीं बताओ जरा 

इनमें से जीत किसकी हुई।

जो बच गए 

वे अपनी जान हथेली पे रखे 

सोच रहे हैं 

और गिनने की कोशिश कर रहे हैं 

कि अनचाहे युद्ध के दो पाटों के बीच कितनी सांसे पिस गईं।'

(कितनी साँसे पिस गईं)

 

गणेश गनी की कविताओं से गुजरते हुए हम देखते हैं कि वे सिर्फ स्मृतियों और अनुभूतियों को जीने वाले रचनाकार नहीं हैं। उनकी कविताएं वर्तमान राजनीति पर भी तीखे सवाल खड़े करती हैं और सामाजिक तथा पारिवारिक परिवेश में आईं विसंगतियों पर भी कुठाराघात करती हैं। उनकी संवेदनशील तीक्ष्ण नजरें बहुत चौकन्ने ढंग से सब कुछ देखती-समझती हैं और उन पर अपनी तार्किक टिप्पणियों से प्रहार करती हैं। वे अपनी कविताओं के माध्यम से आस्वस्त करते हैं कि भविष्य में वे और भी बेहतरीन कविताओं की रचना करेंगें और साहित्य जगत को और समृद्ध करेंगे।

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शकुन नगर, सिविल लाइंस, 

फतेहपुर (उ.प्र.)

मो0 : 9336463835

 


शुक्रवार, 21 मई 2021

आग भी प्यास बुझाती है! - गणेश गनी

आग भी प्यास बुझाती है!

प्रेम नंदन की कविता पढ़ते हुए पाठक कहीं खोने के कगार पर पहुंच जाता है। उसे फिर ख़याल आता है कि अभी तो कविता में आगे चलना है और देखना है कि जो बात शुरू हुई थी वो अंत तक पहुंची भी या नहीं-   

सच यही है
कि बातें वहीं से शुरू हुईं 
जहाँ से होनी चाहिए थीं 
लेकिन खत्म हुईं वहाँ
जहाँ नहीं होनी चाहिए थीं ।

बातों के शुरू और खत्म होने के बीच
तमाम नदियाँ, पहाड़, जंगल और रेगिस्तान आए
और अपनी उॅचाइयाँ , गहराइयाँ , हरापन और 
नंगापन थोपते गए ।

इन सबका संतुलन न साध पाने वाली बातें
ठीक तरह से शुरू होते हुए भी
सही जगह नहीं पहुँच पाती-
अफवाहें बन जाती हैं ।

कवि लोक से जुड़ा है और लोकधर्मिता का समर्थक है। गांव देहात की बातें यूँ ही नहीं आ जातीं कविता में। कवि स्थानीयता को अपनी रचनाओं में कुशलता से लाता है-

मेरे गाँव के 
खूबसूरत चेहरे को 
करके बदरंग  
बिजूके की तरह  
टांग दिया है 
बाजार ने 
लकड़हारे के हाथों बिक चुके 
रेत हो चुकी नदी के किनारे खड़े 
अंतिम पेड़ की 
उदास डालों पर, 

अब पेड़ चाहे तो 
चेहरा पहन ले 
या फिर चेहरा 
पेड़ हो जाए 
और फिर दोनों 
रेत को निचोड़कर
मुक्त कर दें नदी को ,

ऐसी ही दो-एक संभावनाओं पर 
टिका है 
गाँव, नदी और पेड़ का भविष्य !

कवि की एक और कविता पढ़ी जानी चाहिए। कवि श्रम को पूजनीय कह रहा है-

बादलों को ओढ़े हुए 
कीचड़ में धंसी हुई 
देह को मोड़े कमान-सी 
उल्लासित तन-मन से 
लोकगीत गाते हुए
रोप रहीं धान 
खेतों में औरतें ,

अपना श्रम-सीकर 
मिला रहीं धरती में 
जो कुछ दिन बाद 
सोने-सा चमकेगा 
धन की बालियों में |
पूरे समाज के 
सुखमय भविष्य का 
सुदृढ़ आधार है 
इनका यह वर्तमान पूजनीय श्रम!

यह सच है और हमने ही काम को पूजा माना है। एक राजा था। तमाम ऐश्वर्य थे। नौकर थे। चाकर थे। बीबियाँ थीं। बांदियाँ थीं। गहने थे। राग थे। रंग थे, पर न जाने क्या था कि उसका रंग ज़र्द हुआ जाता था। दुनिया भर के हक़ीम आए, पर कोई लाभ न हुआ। आख़िर में किसी ने कहा कि क्यों न किसी सुखी आदमी को तलाशा जाए, वही राजा का दुःख दूर करेगा। 
एक दिन राजा ने खेत में हल चलाते किसान को देखा। वो जितना पसीना बहाता, उतना ही हंसता और गाता जाता। राजा उसे देर तक देखता रहा और सोचता रहा कि  क्या वह कभी ऐसी बेफिक्र हंसी हंसा। राजा ने जब किसान से उसकी हंसी और खुशी का राज़ पूछा तो किसान ने कहा कि यह तो बहुत आसान है। खुशी तो तब आती है जब इस मिट्टी में यह पसीना मिल जाता है। जीवन का आनन्द लेते हुए जियो। तब खाओ जब भूखे हो। तब बोलो जब कुछ कहने को हो। तब प्रेम करो जब भीतर उठे। तब प्रश्न करो जब जिज्ञासा हो।
प्रेम नन्दन ऐसी कविता लिखते हैं जो सीधी बात करती है, कोई लाग लपेट नहीं, कोई लिहाज़ नहीं-

जिन्हें देखना हो संघर्ष
सुनना हो श्रमजीवी गीत
चखना हो स्वाद पसीने का
माटी की गंध सूँघनी हो 
कष्टों को गले लगाना हो 

वे ही आएँ मेरे पास ।

आग, पानी और प्यास का संबंध कवि जानता है। कवि यह भी जानता है कि पानी ही नहीं आग भी प्यास बुझाती है। प्रेम नंदन की यह कविता बड़ी गहरी है, पानी जैसी निर्मल और आग जैसी चमकदार-

जब भी लगती है उन्हें प्यास
वे लिखते हैं 
खुरदुरे कागज के चिकने चेहरे पर 
कुछ बूँद पानी 
और धधकने लगती है आग !

इसी आग की आँच से 
बुझा लेते हैं वे
अपनी हर तरह की प्यास !

प्रेम नन्दन समझा रहे हैं कि एक वर्ग विशेष के लोग क्या चाहते हैं। जनता समझ रही है अब। वो दिन दूर नहीं जब मुखौटे उतरेंगे और चेहरे बेनकाब होंगे। कवि का कर्म है कि भीड़ को सावधान करते हुए बताए कि यही तो चाहते हैं वे-

लड़ना था हमें 
भय, भूख, और भृष्टाचार के खिलाफ ! 

हम हो रहे थे एकजुट 
आम आदमी के पक्ष में 
पर कुछ लोगों को 
नहीं था मंजूर यह !

उन्होंने फेंके कुछ ऐंठे हुए शब्द 
हमारे आसपास
और लड़ने लगे हम
आपस मे ही !

वे मुस्कुरा रहें हैं दूर खड़े होकर 
और हम लड़ रहें हैं लगातार
एक दूसरे से
बिना यह समझे 
कि यही तो चाहते हैं वे !

                     - गणेश गनी


बुधवार, 19 मई 2021

यादों की उर्मियों में डूबती-उतराती प्रेम के रस में पगी हुई कविताएं

यादों की उर्मियों में डूबती-उतराती प्रेम के रस में पगी हुई कविताएं
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प्रेम नंदन
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हजारीबाग, झारखंड के रहने वाले युवा कवि हरेन्द्र कुमार का पहला कविता संग्रह 'मूंगफली के छिलके' अभी हाल ही में प्रलेक प्रकाशन, मुंबई से प्रकाशित हुआ है और काफी में चर्चा है। हरेंद्र कुमार की अधिकांश कविताएँ प्रेम के रस में पगी हुई हैं। कवि ने खुद स्वीकार किया है- 'प्रेम मेरी कविताओं के केन्द्र में है।, यह मानने में मुझे कोई गुरेज नहीं है। प्रेम इस सृष्टि का आधार है, प्रेम से
से यह सारा संसार है, इसे नकारा नहीं जा सकता। प्रेम से ही संवेदना उत्पन्न होती है और फिर वही सम्वेदना काव्य के रूप में अभिव्यक्त हो जाती है।

'संग्रह की शीर्षक कविता ' मूँगफली के छिलके' समेत दर्जनों कविताएं और संग्रह में शामिल गजलें कवि की स्वीकारोक्ति को पूरी तरह सच साबित करती हैं। कवि का मानना है कि प्यार मुक्त कर देता है- तुमसे ही सीखा है/ मैंने करना प्यार/ प्यार बाँधता नहीं/ मुक्त कर देता है यार। 'यादों की उर्मियाँ' कविता में भी कवि प्यार को इसी तरह से याद करता है- 'जब कभी मन अशांत हो/ तो निराश मत होना/ एक बार फिर से लगाना/ डुबकी अपने अतीत में/ उलटना यादों की पुरानी किताब/ वहाँ कोई न कोई पन्ना/ तुम्हें फिर से हँसना सिखा देगा/ तुम्हें फिर से तुमसे मिला देगा।'

ऐसा भी नहीं है कि इस संग्रह में सिर्फ प्रेम कविताएं ही हैं या कवि सिर्फ प्रेम कविताओं तक ही सीमित हैं। वे अपने समय, समाज और परिवेश पर भी संवेदनशील दृष्टि रखते हैं। उनकी कविताएं अपने समय की विडम्बनाओं को संवेदनशील ढंग से उजागर करती हैं। हरेन्द्र जी को आम जनजीवन के रोजमर्रा की घटनाओं को शब्दों में ढालने में महारत हासिल है। आम आदमी के जीवन में घटने वाली तमाम विसंगतियों, विडंबनाओं को बखूबी बयान करने का जरिया बनती हैं उनकी कविताएं। वे अपनी कविताओं में अपने आसपास के जीवन को बड़ी कुशलता से चित्रित करने वाले रचनाकार हैं। उनकी कविताएं हमारे समाज में दिन-प्रतिदिन होने वाले छोटे-बड़े सभी तरह के बदलावों पर तीखी और संवेदनशील और पारखी नजर रखती हैं और उन पर अपनी निर्मम और तीखी  टिप्पणियां भी करती हैं। 'भेड़-चाल' कविता में कवि ने मानव जीवन की भागमभाग का बड़ा सटीक वर्णन किया है- 'सबकुछ पाने के चक्कर में/ रोज थोड़ा खाली हो जाता हूँ/ यह कैसी दौड़ है/ जिससे मैं अनजान हूँ/ न मंजिल का पता है/ न रास्ते का ज्ञान है/ सब दौड़ रहे हैं/ इसलिए मैं भी बेहाल हूँ/ समझकर भी नासमझ हूँ/ कि यह भेड़-चाल है।'

आज के समय में सबसे ज्यादा संकट रिश्तों-संबंधों की विश्वसनीयता पर है । सारा सामाजिक जीवन रिश्तों की विश्वसनीयता के संकट के दौर से गुजर रहा है । ऐसे में रिश्तों की गर्माहट बचाना बेहद जरूरी है। 'मेरे जीवन की ऊष्मा' शीर्षक कविता में  हरेंद्र कुमार ने सहज शब्दों में इसे अभिव्यक्त किया है कि प्रेम और स्नेह की गर्माहट के बिना जीवन निस्तेज है और इनके साथ होने से व्यक्ति हर मुश्किल का सामना बड़े आराम से कर लेता है - "मेरे दोस्त ! /मेरे हाथों की शक्ति/मेरे पैरों की गति हो तुम,/तुम्हारे बिना मैं हूँ/निष्क्रिय और निस्तेज!/तुम्हारे स्नेह की डोर/ मेरे साँसों की डोर से/कहीं ज्यादा मजबूत है।/इनके सहारे लाँघ जाता हूँ मैं/दुर्गम पथ,/पार करता हूँ/ कंटक सफर।"

हरेंद्र कुमार अपने आसपास के वातावरण पर पैनी और  संवेदनशील दृष्टि रखने वाले कवि हैं। वे इसे भली-भांति समझते हैं कि भले ही आज आदमी चंद्रमा पर कॉलोनियां बनाने के ख्वाब बुन रहा है लेकिन उसके आसपास ही लाखों भूखे नंगे लोग रोटी के एक टुकड़े के लिए तरस रहे हैं। ऐसे समय में सिर्फ रोटी पर कविता लिखने भर से काम नहीं चलने वाला। आखिरकार पेट तो रोटी से ही भरेगा, कविता से नहीं। रोटी' पर कविता' में कवि से भूखे लोग  एक दिन यही सवाल पूछ बैठते हैं- एक बात बताओ-/
रोटी कब/ बहसों और किताबों से निकलकर/
मेरी थाली में आएगी? 

इस दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति, समाज और देश  की अपनी एक अलग और विशिष्ट पहचान है, जिससे उसकी पहचान सम्बंधी मौलिक विशेषताएँ समाहित रहती हैं। इन्हीं विशेषताओं को उसकी जड़ों यानी उसके गांव-गिरांव, बोली ,भाषा और समूचे परिवेश से जोड़कर देखा जाता है और यही उसकी मौलिक पहचान होती हैं। यदि आदमी की यह पहचान खो जाए या वह खुद इस पहचान से खुद को अलग-थलग कर ले तो उसका जीवन नीरस हो जाता है । सामान्यतः लोग इसे पुरानी परंपरा से जोड़कर देखते हैं लेकिन कवि यहां पुरानी परंपरा को ढोने की बात नहीं करता बल्कि विचारों की नई सरिता प्रवाहित करने की बात करता है जिसमें उसकी खुद की अपनी पहचान हो। इसलिए वह दुनिया का सब कुछ छोड़ कर अपनी मौलिकता को बचाए रखने की बात करता है। 'मौलिकता' शीर्षक कविता में कवि इसी मौलिकता को बरकरार रखने की चाहत से ओतप्रोत है - "मुझे चाहिए वह झाड़ू /जिससे मैं आदर्शों के झोल/झाड़ सकूं ।/मुझे चाहिए वह वसूली /जिससे मैं इसका /नया रूप ढाल सकूं ।/और ,/सड़ी हुए जल की इन मछलियों को /विचारों की सरिता से/बाहर उछाल सकूं।/
 फिर /मुझे कुछ और नहीं चाहिए/ बस /मुझे मेरी मौलिकता चाहिए।"

'आपदा उत्सव' कविता में कवि हरेंद्र कुमार मानव स्वभाव की उस विकृति की ओर इशारा करते हैं जिसमें उलझकर हम मानवीय गुणों का त्याग करके धन पशु में तब्दील हो जा रहे हैं। बाढ़ हो, सूखा हो, सड़क दुर्घटना हो या अन्य प्राकृतिक आपदा, धन-पशुओं के लिए ये अपनी तिजोरीयों को भरने का सुअवसर बन जाता है । वे आपदा को अवसर में बदलने में सिद्धहस्त होते हैं। वे सारी मानवीय संवेदना को दरकिनार करके लूट-खसोट में जुट जाते हैं। हरेन्द्र जी ने अपनी इस कविता में मानवता के दुश्मन लोगों के इसी अमानवीय कुकृत्य को रेखांकित किया है - "इस बार  फिर कई अधूरे सपने/ पूरे होने की बारी है/किसी ने बड़े प्लॉट /तो किसी ने /लग्जरी गाड़ी की कर ली तैयारी है /शवों के कफन नोंचने की /मारामारी है /ताबूतों के कील  उखाड़ने की/ फिर बारी है /इस तरह आपदा उत्सव /जोर शोर से मनाने की तैयारी है।"

कविता मनुष्यता का आदिम राग है। मनुष्य के सुख-दुख, खुशी, उल्लास रुदन जैसी समस्त मानवीय संवेदनाओं को आवाज देने का कार्य हमेशा से ही कविता ने ही किया है। मनुष्य के पैदा होने के साथ से लेकर उसके मरने तक कविता मनुष्य और मनुष्यता का साथ देती है। कविताओं ने हमेशा ही मानवता की रक्षक के रूप में अपने दायित्वों का निर्वहन किया है। मानव जीवन और कविता का चोली दामन का साथ है। एक सही कविता हमेशा सत्ता के विपक्ष में और जनमानस के पक्ष में खड़ी होती है । यह 'कविता की जरूरत' है। कवि के शब्दों में - "इसे खड़ा होना होगा/अपने पैरों पर/पूरे पुरुषार्थ के साथ ।/तोड़ना होगा जर्जर वैशाखी को, /दौड़ना होगा /कठोर कंकरीले और कँटीले रास्ते पर /बेखौफ़।/लिखना होगा /कठिन समय का सच/छोड़ना होगा/ पद ,सत्ता और पुरस्कार का पक्ष।/ चखना होगा /पसीने और लहू का स्वाद /
देना होगा /मुश्किल समय में/ मनुष्य का साथ।"

शिक्षा के बाजारीकरण ने शिक्षा और शिक्षक दोनों को अपने कर्तव्य पथ से विरत करने का काम किया है। आज शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह से व्यवसाय बनकर पूंजीपतियों की तिजोरी भरने का साधन बन गई है। शिक्षा माफियाओं ने इस पवित्र पेशे को धन उगाही का जरिया बना रखा है ।कोरोना के इस वैश्विक महामारी के दौर में निजी विद्यालय के शिक्षकों के सामने दो वक्त की रोटी की समस्या खड़ी हो गई। वे फिर से द्रोण बन द्रुपद  के द्वार खड़े हैं ।पर वहां उन्हें तिरस्कार के सिवा कुछ नहीं मिलता,मिलती है तो सीख। सब को सिखाने वाले शिक्षकों को यह सीख शिक्षा माफिया दे रहे हैं - "यह समय अपने पढ़ाये/पाठ पर चलने का है/जीवन के अग्निपथ पर/आहुति बन जलने का है।/आप अगर हो गए अधीर /तो बच्चों को क्या बतलाएंगे/विवशताओं से कैसे लड़ते हैं /यह सीख उन्हें कैसे सिखाएंगे।/इस तरह से दे रहे हैं वे/शिक्षक को सीख/ किस -किस के द्वार पर 
अब मांगे वो भीख ।"

युवा कवि हरेंद्र कुमार की कविताएं उनके बेहतर कवि को और अधिक बेहतर होने को आश्वस्ति  देती हैं। हरेन्द्र जी की कविताएं पूरी जिम्मेदारी और पक्षधरता के साथ आगे बढ़कर अपनी रचनात्मक जिम्मेदारी निभ रही हैं और अपने समय की विडम्बनाओं, संघर्षों, विचलनों, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक समस्याओं की चीरफाड़ करते हुए उम्मीद की रोशनी फैलाने का कार्य कर रही हैं। वे पूरी तरह आस्वस्त करते हैं कि भविष्य में उनकी कविताओं का इतिहास और भूगोल और विस्तृत होगा उनकी कविताओं को और व्यापकता के विस्तार की क्षमताओं को और नए और संवेदनशील पंख लगेंगे। आशा है हरेंद्र कुमार जी की कविताएं साहित्यिक परिदृश्य में अपनी सार्थक और संवेदनशील उपस्थिति से कविता के संसार को और अधिक समृद्ध करेंगी।
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संपर्क :- द्वारा - राकेश कुमार सक्सेना(पोस्टमैन)
,प्रधान डाकघर, फतेहपुर, (उ0प्र0), पिनकोड --212601
मो : 09336453835
ईमेल: premnandanftp@gmail.com

राग दरबारी का राग

राग दरबारी का राग
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श्रीलाल शुक्ल का नाम सुनते ही उनकी कालजयी कृति 'राग दरबारी' का राग कानों में बजने लगता है जिसके प्रभाव से मुस्कुराते होंठ टेढ़े-मेढ़े होने लगते हैं मस्तिष्क किसी बंजर भूमि -सा वीरान होकर कराहने लगता है। जिसके आलोक में शिवपालगंज में पूरा भारत  या कहिये पूरे भारत में शिवपालगंज अपनी पूरी सहजता और निर्ममता के साथ झलकने लगता है।

              वैसे तो उनकी अनेक रचनाएँ - अंगद का पांव, बिश्रामपुर का संत आदि  भी शानदार हैं लेकिन अन्य पाठकों की तरह ही मुझे भी सबसे ज्यादा प्रभावित 'राग दरबारी' ने ही किया। यह कहने की बात नहीं है कि उनकी सभी रचनाएँ महत्वपूर्ण हैं लेकिन उनकी कीर्ति पताका फहराने में सर्वाधिक योगदान राग दरबारी का ही है।

             राग दरबारी में उन्होंने कुशल   सर्जक की तरह भारतीय ग्रामीण -अर्ध- ग्रामीण  समाज की परिवेशगत अ-व्यवस्था या कहिये अ-व्यवस्थागत परिवेश की चीरफाड़ जैसी व्यंग्यात्मक और पैनी भाषा में की है ,भारतीय  साहित्य में कोई दूसरा वैसा नहीं कर पाया।
             आज जब भी  अपने  देश की वर्तमान व्यवस्था -अव्यवस्था के खिलाफ जरा -सा सोचने भर लगता हूँ तो  राग दरबारी के प्रिंसिपल साहब न जाने कहाँ से आ धमकते हैं और मुझे रंगनाथ के बगल  में खड़ा करके मुंह  को बिचकाते  हुए व्यंग्य से कहते हैं -तुम गधे हो !
                  तब अक्सर यह लगता है की वास्तव में हम सब गधे हो गए  हैं तभी तो व्यवस्था की अमानवीय अफसरी चक्की में बुरी तरह से पिसते जाने के बावजूद हमारे सुन्न पड़े शरीरों में, और उसके अन्दर कोमा में पड़े दिमाग में जरा-सी भी हरकत नहीं   हो रही है !   
                  ऐसे निराशाजनक माहौल में मुझे श्रीलाल शुक्ल और उनका राग दरबारी बहुत-बहुत याद आ रहे हैं ! और राग दरबारी का राग और जोर-जोर से पूरे  परिवेश में गूजने लगता है !

     ऐसे निराशाजनक माहौल में  श्रीलाल शुक्ल और उनका राग दरबारी बहुत-बहुत याद आ रहे हैं ! और राग दरबारी का राग और जोर-जोर से पूरे  परिवेश में गूजने लगता है ! संविधान  के अनुसार हमारा देश एक प्रजातांत्रिक देश है लेकिन हम सभी अच्छी प्रकार से जानते हैं कि हमारे देश का प्रजातंत्र किस तरह लोगों की जागीर बन गया है । भ्रष्टाचार, अनाचार और परिवारवाद की  सहस्त्रबाहु जकड़न में फंसा लोकतंत्र आठ -आठ आंसू रो रहा है और इसके नियामक कभी संसद तो कभी लोकतंत्र की दुहाई देकर देश में बचे-खुचे लोकतंत्र को भी तार-तार किये दे रहे हैं | और जो थोडे-से लोग इसको बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं ; उन्हें ये लोग अतिवादी और अलोकतान्त्रिक बताकर उलटे उन्हें ही कठघरे में खड़ा कर रहे हैं |
            
               अपने देश में प्रजातंत्र का आधुनिक हाल जानने के लिए राग दरबारी  के  इस अंश को पूर्व पीठिका की तरह माना जा सकता है - 

       "...प्रजातंत्र  उनके  तख़्त के पास जमीन पर पंजों के बल बैठा है | उसने हाथ जोड़ रखे हैं | उसकी शक्ल हलवाहों-जैसी है और अंग्रेजी तो अंग्रेजी , वह  शुद्ध हिंदी भी नहीं बोल पा रहा है | फिर भी वह गिड़गिड़ा रहा है और वैध  जी उसका गिडगिडाना सुन रहे हैं | वैध जी उसे बार-बार तख़्त पर बैठने के लिए कहते हैं और समझाते हैं कि तुम गरीब हो तो क्या हुआ , हो तो हमारे  रिश्तेदार ही ,पर प्रजातंत्र बार -बार उन्हें हुजूर और सरकार कहकर पुकारता है। बहुत समझाने  पर प्रजातंत्र उठकर उनके तख़्त के कोने पर आ जाता है और जब उसे इतनी सांत्वना मिल जाती है कि वह मुँह से कोई तुक की बात निकाल सके , तो वह वैध जी से प्रार्थना करता है  मेरे कपड़े फट गए हैं , मैं नंगा हो रहा हूँ | इस हालत में मुझे किसी के सामने निकलते हुए शर्म लगती है , इसलिए , हे  वैध महाराज , मुझे एक साफ़ -सुथरी  धोती पहनने को दे दो ।"

             ये हालात आज से लगभग पचास साल पहले के हैं | अब आप बैठे-बैठे अनुमान लगाते रहिये कि आज हमारे देश में लोकतंत्र  की क्या स्थिति है या होनी चाहिए ?

@ प्रेम नंदन

मंगलवार, 18 मई 2021

"अपने समय और समाज की विसंगतियों एवं विद्रूपताओंके कवि हरेंद्र कुमार"

अपने समय और समाज की विसंगतियों एवं विद्रूपताओं
के कवि हरेंद्र कुमार
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प्रेम नंदन
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युवा कवि हरेंद्र कुमार की कविताएँ  विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती रही हैं । उनका हाल में प्रकाशित काव्य संग्रह 'मूंगफली के छिलके' साहित्यिक वर्ग में काफी चर्चा में है । हरेंद्र कुमार की कविताएँ अपने समय और समाज की विसंगतियों एवं विद्रूपताओं को सटीक ढंग से उजागर करती हैं। हरेन्द्र जी को आम जनजीवन के रोजमर्रा की घटनाओं को शब्दों में ढालने में महारत हासिल है। आम आदमी के जीवन में घटने वाली तमाम विसंगतियों, विडंबनाओं को बखूबी बयान करने का जरिया बनती हैं उनकी कविताएं। वे अपनी कविताओं में अपने आसपास के जीवन को चित्रित करने वाले रचनाकार हैं। उनकी कविताएं हमारे समाज में होने वाले छोटे-छोटे बदलावों पर तीखी और संवेदनशील नजर रखती हैं और उन पर अपनी टिप्पणियां करती हैं। उनकी कविताओं की मुख्य विशेषता उनके शब्दों में छिपा हुआ व्यंग्य है जो कहीं भी भाषा की गरिमा का अतिक्रमण नहीं करता, बल्कि धीरे से अपनी गहरी टीस देकर हमें सोचने पर मजबूर करता है।

आज के समय में सबसे ज्यादा संकट रिश्तों-संबंधों की विश्वसनीयता पर है । सारा सामाजिक जीवन रिश्तों की विश्वसनीयता के संकट के दौर से गुजर रहा है । ऐसे में रिश्तों की गर्माहट बचाना बेहद जरूरी है। 'मेरे जीवन की ऊष्मा' शीर्षक कविता में  हरेंद्र कुमार ने सहज शब्दों में इसे अभिव्यक्त किया है कि प्रेम और स्नेह की गर्माहट के बिना जीवन निस्तेज है और इनके साथ होने से व्यक्ति हर मुश्किल का सामना बड़े आराम से कर लेता है - "मेरे दोस्त ! /मेरे हाथों की शक्ति/मेरे पैरों की गति हो तुम,/तुम्हारे बिना मैं हूँ/निष्क्रिय और निस्तेज!/तुम्हारे स्नेह की डोर/ मेरे साँसों की डोर से/कहीं ज्यादा मजबूत है।/इनके सहारे लाँघ जाता हूँ मैं/दुर्गम पथ,/पार करता हूँ/ कंटक सफर।"

इस पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों की स्थिति हमेशा से ही दोयम दर्जे की बनाने का काम किया गया है। आज भी पुरुषों की सोच और संस्कारों में बहुत परिवर्तन नहीं आया है । बाजार उन्हें एक वस्तु बनाकर प्रस्तुत कर रहा है और मजे की बात यह है कि कुछ स्त्रियां बाजार के जाल में फंस कर उसी में अपनी मुक्ति तलाश रही हैं। एक तरफ हम आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल हैं तो दूसरी तरफ 'ऑनर किलिंग' के नाम पर हो रही हत्याएं यह बताती हैं कि हमारे समाज की सोच आज भी कितनी निकृष्ट है । 'फीनिक्स' कविता इसकी ही बानगी है जिसमें कवि ने इस गंभीर संकट को बड़ी मार्मिकता से शब्दबद्ध किया है - "और फिर/तुम्हारे कोमल हाथ/ लोहे के सरिये बन गए/ और उनकी सख्ती/मैं महसूस करती रही/अपनी गर्दन पर" पर बार-बार हो रही इन घटनाओं के बावजूद उनका फिर से लौटना उम्मीद जगाता है ।यहां बगावत की बू नहीं बल्कि हृदय परिवर्तन की कामना है क्योंकि बिना सोच बदले इससे निजात पाना असंभव है - "पर मैं फीनिक्स हूँ/मैं फिर लौट आऊँगी/बार-बार लौट आऊँगी/तब तक लौटती रहूँगी/जब तक तुम्हारे हाथ/लोहे के सरिये से/कमल के फूल न बन जाए/और तुम्हारी झूठी प्रतिष्ठा/मेरे प्रेम के सामने/धूल न बन जाए।"
कविता में 'बार-बार लौट आऊंगी' शब्द गहरे मथती है। यह लौटना  साधारण लौटना नहीं है बल्कि एक अनवरत प्रक्रिया है तब तक जब तक झूठी प्रतिष्ठा के नाम पर सच्चे प्रेम की बलि चढ़नी बंद नहीं हो जाती।

हरेंद्र कुमार अपने आसपास के वातावरण पर पैनी और  संवेदनशील दृष्टि रखने वाले कवि हैं। वे इसे भली-भांति समझते हैं कि भले ही आज आदमी चंद्रमा पर कॉलोनियां बनाने के ख्वाब बुन रहा है लेकिन उसके आसपास ही लाखों भूखे नंगे लोग रोटी के एक टुकड़े के लिए तरस रहे हैं। 'भूख' कविता कवि की चिंता को आवश्यक आवाज देने का कार्य बखूबी करती है ।कविता में छिपा व्यंग्य बड़ा मारक है - 'मजदूर मजबूर है /वह याद करता है /बचपन का वह पाठ  /जिसमें पढ़ा था उसने /चांद रोटी की तरह गोल है /पर अब लगता है उसे कि/चांद रोटी की तरह नहीं /रोटी चांद की तरह गोल है/और दूर भी /विज्ञान का ज्ञान तो /बहुत पहले पहुंच चुका है/चांद तक /कोई मुझे यह बताएं कि/वह रोटी तक कब पहुंचेगा/क्या रोटी चांद से भी दूर है/
 या फिर यह व्यवस्था के हाथों/ मजबूर है।"

इस दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति, समाज और देश  की अपनी एक अलग और विशिष्ट पहचान है, जिससे उसकी पहचान सम्बंधी मौलिक विशेषताएँ समाहित रहती हैं। इन्हीं विशेषताओं को उसकी जड़ों यानी उसके गांव-गिरांव, बोली ,भाषा और समूचे परिवेश से जोड़कर देखा जाता है और यही उसकी मौलिक पहचान होती हैं। यदि आदमी की यह पहचान खो जाए या वह खुद इस पहचान से खुद को अलग-थलग कर ले तो उसका जीवन नीरस हो जाता है । सामान्यतः लोग इसे पुरानी परंपरा से जोड़कर देखते हैं लेकिन कवि यहां पुरानी परंपरा को ढोने की बात नहीं करता बल्कि विचारों की नई सरिता प्रवाहित करने की बात करता है जिसमें उसकी खुद की अपनी पहचान हो। इसलिए वह दुनिया का सब कुछ छोड़ कर अपनी मौलिकता को बचाए रखने की बात करता है ।'मौलिकता' शीर्षक कविता में कवि इसी मौलिकता को बरकरार रखने की चाहत से ओतप्रोत है - "मुझे चाहिए वह झाड़ू /जिससे मैं आदर्शों के झोल/झाड़ सकूं ।/मुझे चाहिए वह वसूली /जिससे मैं इसका /नया रूप ढाल सकूं ।/और ,/सड़ी हुए जल की इन मछलियों को /विचारों की सरिता से/बाहर उछाल सकूं।/
 फिर /मुझे कुछ और नहीं चाहिए/ बस /मुझे मेरी मौलिकता चाहिए।"

'आपदा उत्सव' कविता में कवि हरेंद्र कुमार मानव स्वभाव की उस विकृति की ओर इशारा करते हैं जिसमें उलझकर हम मानवीय गुणों का त्याग करके धन पशु में तब्दील हो जा रहे हैं। बाढ़ हो, सूखा हो, सड़क दुर्घटना हो या अन्य प्राकृतिक आपदा, धन-पशुओं के लिए ये अपनी तिजोरीयों को भरने का सुअवसर बन जाता है । वे आपदा को अवसर में बदलने में सिद्धहस्त होते हैं। वे सारी मानवीय संवेदना को दरकिनार करके लूट-खसोट में जुट जाते हैं। हरेन्द्र जी ने अपनी इस कविता में मानवता के दुश्मन लोगों के इसी अमानवीय कुकृत्य को रेखांकित किया है - "इस बार  फिर कई अधूरे सपने/ पूरे होने की बारी है/किसी ने बड़े प्लॉट /तो किसी ने /लग्जरी गाड़ी की कर ली तैयारी है /शवों के कफन नोंचने की /मारामारी है /ताबूतों के कील  उखाड़ने की/ फिर बारी है /इस तरह आपदा उत्सव /जोर शोर से मनाने की तैयारी है।"

कविता मनुष्यता का आदिम राग है। मनुष्य के सुख-दुख, खुशी, उल्लास रुदन जैसी समस्त मानवीय संवेदनाओं को आवाज देने का कार्य हमेशा से ही कविता ने ही किया है। मनुष्य के पैदा होने के साथ से लेकर उसके मरने तक कविता मनुष्य और मनुष्यता का साथ देती है। कविताओं ने हमेशा ही मानवता की रक्षक के रूप में अपने दायित्वों का निर्वहन किया है। मानव जीवन और कविता का चोली दामन का साथ है। एक सही कविता हमेशा सत्ता के विपक्ष में और जनमानस के पक्ष में खड़ी होती है । यह 'कविता की जरूरत' है। कवि के शब्दों में - "इसे खड़ा होना होगा/अपने पैरों पर/पूरे पुरुषार्थ के साथ ।/तोड़ना होगा जर्जर वैशाखी को, /दौड़ना होगा /कठोर कंकरीले और कँटीले रास्ते पर /बेखौफ़।/लिखना होगा /कठिन समय का सच/छोड़ना होगा/ पद ,सत्ता और पुरस्कार का पक्ष।/ चखना होगा /पसीने और लहू का स्वाद /
देना होगा /मुश्किल समय में/ मनुष्य का साथ।"

शिक्षा के बाजारीकरण ने शिक्षा और शिक्षक दोनों को अपने कर्तव्य पथ से विरत करने का काम किया है। आज शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह से व्यवसाय बनकर पूंजीपतियों की तिजोरी भरने का साधन बन गई है। शिक्षा माफियाओं ने इस पवित्र पेशे को धन उगाही का जरिया बना रखा है ।कोरोना के इस वैश्विक महामारी के दौर में निजी विद्यालय के शिक्षकों के सामने दो वक्त की रोटी की समस्या खड़ी हो गई। वे फिर से द्रोण बन द्रुपद  के द्वार खड़े हैं ।पर वहां उन्हें तिरस्कार के सिवा कुछ नहीं मिलता,मिलती है तो सीख। सब को सिखाने वाले शिक्षकों को यह सीख शिक्षा माफिया दे रहे हैं - "यह समय अपने पढ़ाये/पाठ पर चलने का है/जीवन के अग्निपथ पर/आहुति बन जलने का है।/आप अगर हो गए अधीर /तो बच्चों को क्या बतलाएंगे/विवशताओं से कैसे लड़ते हैं /यह सीख उन्हें कैसे सिखाएंगे।/इस तरह से दे रहे हैं वे/शिक्षक को सीख/ किस -किस के द्वार पर 
अब मांगे वो भीख ।"

युवा कवि हरेंद्र कुमार की कविताएं उनके बेहतर कवि को और अधिक बेहतर होने को आश्वस्ति  देती हैं। हरेन्द्र जी की कविताएं पूरी जिम्मेदारी और पक्षधरता के साथ आगे बढ़कर अपनी रचनात्मक जिम्मेदारी निभ रही हैं और अपने समय की विडम्बनाओं, संघर्षों, विचलनों, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक समस्याओं की चीरफाड़ करते हुए उम्मीद की रोशनी फैलाने का कार्य कर रही हैं। वे पूरी तरह आस्वस्त करते हैं कि भविष्य में उनकी कविताओं का इतिहास और भूगोल और विस्तृत होगा उनकी कविताओं को और व्यापकता के विस्तार की क्षमताओं को और नए पंख लगेंगे। हरेंद्र जी की कविताएं साहित्यिक परिदृश्य में अपनी सार्थक और संवेदनशील उपस्थिति से कविता के संसार को और समृद्धि करेंगी।
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संपर्क :- द्वारा - राकेश कुमार सक्सेना(पोस्टमैन)
,प्रधान डाकघर, फतेहपुर, (उ0प्र0), पिनकोड --212601
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कविता

दुनिया की प्रत्येक चीज   संदेह से दूर नहीं मैं और तुम  दोनों भी खड़े हैं संदेह के आखिरी बिंदु पर तुम मुझ देखो संदेहास्पद नजरों से मैं तुम्हें...