सोमवार, 25 जनवरी 2021

हरेन्द्र जी की कविताओं पर लेख

अपने समय और समाज की विसंगतियों एवं विद्रूपताओं
के कवि हरेंद्र कुमार
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प्रेम नंदन
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युवा कवि हरेंद्र कुमार की कविताएँ  विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती रही हैं । उनका हाल में प्रकाशित काव्य संग्रह 'मूंगफली के छिलके' साहित्यिक वर्ग में काफी चर्चा में है । हरेंद्र कुमार की कविताएँ अपने समय और समाज की विसंगतियों एवं विद्रूपताओं को सटीक ढंग से उजागर करती हैं। हरेन्द्र जी को आम जनजीवन के रोजमर्रा की घटनाओं को शब्दों में ढालने में महारत हासिल है। आम आदमी के जीवन में घटने वाली तमाम विसंगतियों, विडंबनाओं को बखूबी बयान करने का जरिया बनती हैं उनकी कविताएं। वे अपनी कविताओं में अपने आसपास के जीवन को चित्रित करने वाले रचनाकार हैं। उनकी कविताएं हमारे समाज में होने वाले छोटे-छोटे बदलावों पर तीखी और संवेदनशील नजर रखती हैं और उन पर अपनी टिप्पणियां करती हैं। उनकी कविताओं की मुख्य विशेषता उनके शब्दों में छिपा हुआ व्यंग्य है जो कहीं भी भाषा की गरिमा का अतिक्रमण नहीं करता, बल्कि धीरे से अपनी गहरी टीस देकर हमें सोचने पर मजबूर करता है।

आज के समय में सबसे ज्यादा संकट रिश्तों-संबंधों की विश्वसनीयता पर है । सारा सामाजिक जीवन रिश्तों की विश्वसनीयता के संकट के दौर से गुजर रहा है । ऐसे में रिश्तों की गर्माहट बचाना बेहद जरूरी है। 'मेरे जीवन की ऊष्मा' शीर्षक कविता में  हरेंद्र कुमार ने सहज शब्दों में इसे अभिव्यक्त किया है कि प्रेम और स्नेह की गर्माहट के बिना जीवन निस्तेज है और इनके साथ होने से व्यक्ति हर मुश्किल का सामना बड़े आराम से कर लेता है - "मेरे दोस्त ! /मेरे हाथों की शक्ति/मेरे पैरों की गति हो तुम,/तुम्हारे बिना मैं हूँ/निष्क्रिय और निस्तेज!/तुम्हारे स्नेह की डोर/ मेरे साँसों की डोर से/कहीं ज्यादा मजबूत है।/इनके सहारे लाँघ जाता हूँ मैं/दुर्गम पथ,/पार करता हूँ/ कंटक सफर।"

इस पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों की स्थिति हमेशा से ही दोयम दर्जे की बनाने का काम किया गया है। आज भी पुरुषों की सोच और संस्कारों में बहुत परिवर्तन नहीं आया है । बाजार उन्हें एक वस्तु बनाकर प्रस्तुत कर रहा है और मजे की बात यह है कि कुछ स्त्रियां बाजार के जाल में फंस कर उसी में अपनी मुक्ति तलाश रही हैं। एक तरफ हम आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल हैं तो दूसरी तरफ 'ऑनर किलिंग' के नाम पर हो रही हत्याएं यह बताती हैं कि हमारे समाज की सोच आज भी कितनी निकृष्ट है । 'फीनिक्स' कविता इसकी ही बानगी है जिसमें कवि ने इस गंभीर संकट को बड़ी मार्मिकता से शब्दबद्ध किया है - "और फिर/तुम्हारे कोमल हाथ/ लोहे के सरिये बन गए/ और उनकी सख्ती/मैं महसूस करती रही/अपनी गर्दन पर" पर बार-बार हो रही इन घटनाओं के बावजूद उनका फिर से लौटना उम्मीद जगाता है ।यहां बगावत की बू नहीं बल्कि हृदय परिवर्तन की कामना है क्योंकि बिना सोच बदले इससे निजात पाना असंभव है - "पर मैं फीनिक्स हूँ/मैं फिर लौट आऊँगी/बार-बार लौट आऊँगी/तब तक लौटती रहूँगी/जब तक तुम्हारे हाथ/लोहे के सरिये से/कमल के फूल न बन जाए/और तुम्हारी झूठी प्रतिष्ठा/मेरे प्रेम के सामने/धूल न बन जाए।"
कविता में 'बार-बार लौट आऊंगी' शब्द गहरे मथती है। यह लौटना  साधारण लौटना नहीं है बल्कि एक अनवरत प्रक्रिया है तब तक जब तक झूठी प्रतिष्ठा के नाम पर सच्चे प्रेम की बलि चढ़नी बंद नहीं हो जाती।

हरेंद्र कुमार अपने आसपास के वातावरण पर पैनी और  संवेदनशील दृष्टि रखने वाले कवि हैं। वे इसे भली-भांति समझते हैं कि भले ही आज आदमी चंद्रमा पर कॉलोनियां बनाने के ख्वाब बुन रहा है लेकिन उसके आसपास ही लाखों भूखे नंगे लोग रोटी के एक टुकड़े के लिए तरस रहे हैं। 'भूख' कविता कवि की चिंता को आवश्यक आवाज देने का कार्य बखूबी करती है ।कविता में छिपा व्यंग्य बड़ा मारक है - 'मजदूर मजबूर है /वह याद करता है /बचपन का वह पाठ  /जिसमें पढ़ा था उसने /चांद रोटी की तरह गोल है /पर अब लगता है उसे कि/चांद रोटी की तरह नहीं /रोटी चांद की तरह गोल है/और दूर भी /विज्ञान का ज्ञान तो /बहुत पहले पहुंच चुका है/चांद तक /कोई मुझे यह बताएं कि/वह रोटी तक कब पहुंचेगा/क्या रोटी चांद से भी दूर है/
 या फिर यह व्यवस्था के हाथों/ मजबूर है।"

इस दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति, समाज और देश  की अपनी एक अलग और विशिष्ट पहचान है, जिससे उसकी पहचान सम्बंधी मौलिक विशेषताएँ समाहित रहती हैं। इन्हीं विशेषताओं को उसकी जड़ों यानी उसके गांव-गिरांव, बोली ,भाषा और समूचे परिवेश से जोड़कर देखा जाता है और यही उसकी मौलिक पहचान होती हैं। यदि आदमी की यह पहचान खो जाए या वह खुद इस पहचान से खुद को अलग-थलग कर ले तो उसका जीवन नीरस हो जाता है । सामान्यतः लोग इसे पुरानी परंपरा से जोड़कर देखते हैं लेकिन कवि यहां पुरानी परंपरा को ढोने की बात नहीं करता बल्कि विचारों की नई सरिता प्रवाहित करने की बात करता है जिसमें उसकी खुद की अपनी पहचान हो। इसलिए वह दुनिया का सब कुछ छोड़ कर अपनी मौलिकता को बचाए रखने की बात करता है ।'मौलिकता' शीर्षक कविता में कवि इसी मौलिकता को बरकरार रखने की चाहत से ओतप्रोत है - "मुझे चाहिए वह झाड़ू /जिससे मैं आदर्शों के झोल/झाड़ सकूं ।/मुझे चाहिए वह वसूली /जिससे मैं इसका /नया रूप ढाल सकूं ।/और ,/सड़ी हुए जल की इन मछलियों को /विचारों की सरिता से/बाहर उछाल सकूं।/
 फिर /मुझे कुछ और नहीं चाहिए/ बस /मुझे मेरी मौलिकता चाहिए।"

'आपदा उत्सव' कविता में कवि हरेंद्र कुमार मानव स्वभाव की उस विकृति की ओर इशारा करते हैं जिसमें उलझकर हम मानवीय गुणों का त्याग करके धन पशु में तब्दील हो जा रहे हैं। बाढ़ हो, सूखा हो, सड़क दुर्घटना हो या अन्य प्राकृतिक आपदा, धन-पशुओं के लिए ये अपनी तिजोरीयों को भरने का सुअवसर बन जाता है । वे आपदा को अवसर में बदलने में सिद्धहस्त होते हैं। वे सारी मानवीय संवेदना को दरकिनार करके लूट-खसोट में जुट जाते हैं। हरेन्द्र जी ने अपनी इस कविता में मानवता के दुश्मन लोगों के इसी अमानवीय कुकृत्य को रेखांकित किया है - "इस बार  फिर कई अधूरे सपने/ पूरे होने की बारी है/किसी ने बड़े प्लॉट /तो किसी ने /लग्जरी गाड़ी की कर ली तैयारी है /शवों के कफन नोंचने की /मारामारी है /ताबूतों के कील  उखाड़ने की/ फिर बारी है /इस तरह आपदा उत्सव /जोर शोर से मनाने की तैयारी है।"

कविता मनुष्यता का आदिम राग है। मनुष्य के सुख-दुख, खुशी, उल्लास रुदन जैसी समस्त मानवीय संवेदनाओं को आवाज देने का कार्य हमेशा से ही कविता ने ही किया है। मनुष्य के पैदा होने के साथ से लेकर उसके मरने तक कविता मनुष्य और मनुष्यता का साथ देती है। कविताओं ने हमेशा ही मानवता की रक्षक के रूप में अपने दायित्वों का निर्वहन किया है। मानव जीवन और कविता का चोली दामन का साथ है। एक सही कविता हमेशा सत्ता के विपक्ष में और जनमानस के पक्ष में खड़ी होती है । यह 'कविता की जरूरत' है। कवि के शब्दों में - "इसे खड़ा होना होगा/अपने पैरों पर/पूरे पुरुषार्थ के साथ ।/तोड़ना होगा जर्जर वैशाखी को, /दौड़ना होगा /कठोर कंकरीले और कँटीले रास्ते पर /बेखौफ़।/लिखना होगा /कठिन समय का सच/छोड़ना होगा/ पद ,सत्ता और पुरस्कार का पक्ष।/ चखना होगा /पसीने और लहू का स्वाद /
देना होगा /मुश्किल समय में/ मनुष्य का साथ।"

शिक्षा के बाजारीकरण ने शिक्षा और शिक्षक दोनों को अपने कर्तव्य पथ से विरत करने का काम किया है। आज शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह से व्यवसाय बनकर पूंजीपतियों की तिजोरी भरने का साधन बन गई है। शिक्षा माफियाओं ने इस पवित्र पेशे को धन उगाही का जरिया बना रखा है ।कोरोना के इस वैश्विक महामारी के दौर में निजी विद्यालय के शिक्षकों के सामने दो वक्त की रोटी की समस्या खड़ी हो गई। वे फिर से द्रोण बन द्रुपद  के द्वार खड़े हैं ।पर वहां उन्हें तिरस्कार के सिवा कुछ नहीं मिलता,मिलती है तो सीख। सब को सिखाने वाले शिक्षकों को यह सीख शिक्षा माफिया दे रहे हैं - "यह समय अपने पढ़ाये/पाठ पर चलने का है/जीवन के अग्निपथ पर/आहुति बन जलने का है।/आप अगर हो गए अधीर /तो बच्चों को क्या बतलाएंगे/विवशताओं से कैसे लड़ते हैं /यह सीख उन्हें कैसे सिखाएंगे।/इस तरह से दे रहे हैं वे/शिक्षक को सीख/ किस -किस के द्वार पर 
अब मांगे वो भीख ।"

युवा कवि हरेंद्र कुमार की कविताएं उनके बेहतर कवि को और अधिक बेहतर होने को आश्वस्ति  देती हैं। हरेन्द्र जी की कविताएं पूरी जिम्मेदारी और पक्षधरता के साथ आगे बढ़कर अपनी रचनात्मक जिम्मेदारी निभ रही हैं और अपने समय की विडम्बनाओं, संघर्षों, विचलनों, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक समस्याओं की चीरफाड़ करते हुए उम्मीद की रोशनी फैलाने का कार्य कर रही हैं। वे पूरी तरह आस्वस्त करते हैं कि भविष्य में उनकी कविताओं का इतिहास और भूगोल और विस्तृत होगा उनकी कविताओं को और व्यापकता के विस्तार की क्षमताओं को और नए पंख लगेंगे। हरेंद्र जी की कविताएं साहित्यिक परिदृश्य में अपनी सार्थक और संवेदनशील उपस्थिति से कविता के संसार को और समृद्धि करेंगी।
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संपर्क :- द्वारा - राकेश कुमार सक्सेना(पोस्टमैन)
,प्रधान डाकघर, फतेहपुर, (उ0प्र0), पिनकोड --212601
मो : 09336453835
ईमेल: premnandanftp@gmail.com

कविता

दुनिया की प्रत्येक चीज   संदेह से दूर नहीं मैं और तुम  दोनों भी खड़े हैं संदेह के आखिरी बिंदु पर तुम मुझ देखो संदेहास्पद नजरों से मैं तुम्हें...