सोमवार, 29 अगस्त 2022

पानी का बुलबुला

घमंड किस बात का?

पानी का बुलबुला
किस क्षण फूट जाए
क्या पता?

फिर भी हम
मानते हैं कहाँ!

28-08-2022

गुरुवार, 11 अगस्त 2022

राजेन्द्र राव

कथा का विलक्षण शिल्पी : राजेन्द्र राव ----------------------------------------------
@ प्रेम नंदन 

राजेन्द्र राव वरिष्ठ कथाकार हैं अपनी कहानियों और उपन्यासों के आधुनिक समस्यामूलक कथाबिम्बों के कारण वो हिन्दी बहुपठित कथाकार हैं । समकालीन कहानी ने परम्परागत फार्मेट में पर्याप्त तोडफोड कर ली है अब वह भाषा से लेकर विषय तक किसी भी पक्ष में परम्परा के पेशेवर अन्दाज का परित्याग कर चुकी है । राजेन्द्र राव की कहानियों को इसी परित्याग के सन्दर्भ में परखना होगा । राजेन्द्र जी अपने समूचे रचनात्मक जीवन में प्रयोगधर्मी रहे ।हर एक कहानी अगली कहानी से पृथक रचनात्मक भाषा और विषय लेकर चलती रही । शिल्प में भी वो वैविध्यपूर्ण हस्तक्षेप करते है।शायद इसी  विविधता के कारण उनकी समीक्षा के प्रतिमान अभी तक नही बन पाए किसी भी लेखक के समीक्षा प्रतिमान तभी निर्मित होते हैं जब वो शिल्प के स्तर पर व भाषा के स्तर पर एकरसता व एकरूपता का संवहन करता है । नवीन जीवनबोध , नयी समस्याओं के लिए निरन्तर शैल्पिक प्रयोग परम्परागत आलोचना प्रतिमानों में नही अंटते अतः या तो आलोचक समीक्षण का साहस नही करता या फिर वो लेखक के कृतित्व को जानबूझकर पढना नही चाहता है यही कारण है राजेन्द्र राव के कथासाहित्य का अब तक समुचित  मूल्यांकन नही हो सका है बिल्कुल वैसे ही जैसे माधवराव सप्रे , चतुरसेन शास्त्री , भगवती चरण वर्मा और दूधनाथ सिंह के कथा साहित्य का अब तक मूल्यांकन नही हो सका है ।माधवराव सप्रे छत्तीसगढ के थे उनकी कहानी टोकरी भर मिट्टी को हिन्दी की पहली कहानी कहा जाता है अपने समय की सबसे यथार्थ कहानी थी मगर भाषा और शिल्प के स्तर पर वह अपने समकालीन से बहुत आगे थी यही कारण है इस कथा को अनदेखा किया गया और माधवराव सप्रे को वह महत्व नही मिल सका जो मिलना चाहिए । चतुरसेन शास्त्री इतिहास और संस्कृति को लेकर नवीन जीवनबोध की कहानी लिखते थे जिनसे मिथक तो इतिहास और पुराण से लेते थे पर सन्देश आधुनिक होता था । उनका युग प्रेमचन्द का युग था प्रेमचन्द के विशाल व्यक्तित्व के समक्ष इस यथार्थवादी कथाकार की भी उपेक्षा की गयी । राजेन्द्र राव का युग आजादी के बाद का हिन्दुस्तानी युग है । आजादी के बाद नवजात मध्यमवर्ग व उसकी सामाजिक पारिवारिक संघर्षों व विडम्बनाओं को उनके कथा साहित्य में तरजीह दी गयी है इसका आशय यह नही की उनकी कहानियों में सर्वहारा चरित्र नही है 
राजेन्द्र राव की कथाओं का फलक अति विस्तृत है इस व्यापक फलक पर यह आरोप कतई नहीं लग सकता कि उनकी दृष्टि में वर्गीय विभेद नही है  । यह सच है वो जीवन की यथार्थ अर्थछबियों सें यकीन रखते हैं यह आधुनिक कथाकारों का लक्षण है कि वो किस्सा या गल्प की बजाय यथार्थ व अनुभूत सच को अधिक तरजीह देते हैं जीवन का अनुभूत तथ्य कथा को गतिशील तभी बनाता है जब वह डबी घटनात्मक परिणिति मे अपने आप को तब्दील कर ले । यही अधिकांश लेखक कर रहे है कुछ के लिए घटना का बडा होना ही कथा की बुनावट है अस्तु वो तमाम छोटी छोटी घटनाओं का संजाल तैयार करके कथानक को बडी घटना के रूप मे तैयार कर लेते हैं उनके लिए छोटी घटनाएं महज तैयारी का काम करती है ऐसी कहानियाँ अधिकांशतः विवरण बनकर रह जाती हैं ज्ञानरंजन मे इस टेक्निक को देखा जा सकता है उनकी पिता कहानी भी मध्यमवर्गीय है पर अयथार्थ घटनाओं का ऐसा संजाल बुना गया है कि कहानी यथार्थ को अधिक प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त नही कर पाती है राजेन्द्र राव इस कथा टेक्निक का उपयोग एकदम नही करते हैं उनकी शैली सबसे अलहदा है वो तमाम टेक्निकों को धता बताकर परिवेश सृजन पर अधिक बल देते है "लौकी का तेल" कहानी को ही देखिए इस कहानी मे लेखक अपने मन्तव्यों की प्रतिपुष्टि मे वस्तु चित्रण व वातावरण को इतना व्यापक व सूक्ष्मता से युक्त कर देता है कि तमाम संवाद और घटनाएं वातावरण की स्मृति बिम्ब से उपजे लगने लगते है समूची कहानी मे कोई भी घटना अस्वाभाविक व थोपी गयी नही प्रतीत होती वातावरण प्रधानता के कारण कथा भी कभी कभी गौंण हो जाती है मगर प्रवाह बाधित नही है ।यह नवीन टेक्निक है जिसे काशीनाथ सिंह और दूधनाथ सिंह भी सफलता पूर्वक प्रयोग करते हैं ।  
जाहिर है जब लेखक का उद्देय वातावरण और उससे जन्य चरित्र ही कथानक के आधार होगें तो लेखक कहानी की माँग के अनुसार ही वर्गीय चरित्र लाएगा यदि वातावरण में चरित्र की जरूरत नही हो तो लेखक इस अकथ जोखिम को क्यों उठाए हलाँकि राजेन्द्रराव जोखिम के कथाकार है पर वातावरण मे जोखिम की सम्भावना कम रहती है फिर भी वर्गीय नजरिए से वो पृथक नही है ड्राईवर , दुकानदार , फुटपाथ , सब्जीवाले , बेरा , पालिसवाला , जैसे चरित्र स्वाभाविक रूप से उनकी कहानियों मे जगह पाते हैं पर इनकी वर्गीय अवस्तिथि को परखने के लिए आलोचक को भी वातावरण को परखने का जोखिम उठाना पडेगा ।ये सारे चरित्र सर्वहारा के हैं बहुत से लोगों की धारणा है कि वो लोक और सर्वहारा का विभाजन करते समय गाँव और शहर की अवैचारिक सीमाओं में कैद हो जाते हैं जबकि लोक और अभिजात्य का विभाजन शहर और गा्ँव का विभाजन नही है वह वर्गीय विभाजन है विचारधारा का सवाल है । यदि गाँव में किसान मजदूर सर्वहारा है तो शहर मे रिक्सेवाले खोमचेवाले , जैसे समुदाय सर्वहारा है क्योंकी दोनो की वर्गीय स्थिति और शोषक शक्तियाँ एक जैसी है दोनो के तरीके अलग मगर मन्शा एक ही है समस्याएं एक ही है यदि इस नजरिए से राजेन्द्र राव की कहानियों को देखा जाए तो राव भी सर्वहारा के कथाकार ठहरते हैं और उनकी दृस्टि भी वर्गीय दिखाई देती है | साथ ही नवीनता बोध भी राजेन्द्र राव की कहानियाँ हमारे समय की विडंबनाओं को नए ढंग से रेखांकित करती हैं, वे अपनी कहानियों मे समाज मे होने वाली सामान्य सी घटनाओं को लेते  हैं और फिर कथ्य और शिल्प से ऐसा ताना-बना बुनते हैं कि हम उनसे जुडते चले जाते हैं | सामाजिक रिस्तों की  आपाधापी के बीच वे रिस्तों को बचाने की  कोशिश करती  कहानियाँ लिखने वाले काहनीकर हैं|

अपनी चर्चित कहानी  दोपहर का भोजन मे वे प्रेम के सामाजिक अंतर्द्वंद  को हरे हमारे सामने रखते हैं , हमारा समाज  शुरू से ही प्रेम के प्रति बहुत ही असहिष्णु रहा है , ये कहानी भी उसी ओर इशारा करती है| इस कहानी में नायिका की बड़ी बहन एक सिक्ख लड़के से शादी कर लेती है जिसके कारण उसके माँ-बाप उससे  रिस्ता तोड़ लेते हैं ,अब नायिका को डर हैं की कहीं उसके साथ भी ऐसा ही न हो , जिसकी पूरी सांभावन है ,तो वह  दूसरे विकल्पों की तलाश मे जुट जाती है  जिससे उसका प्यार भी बचा रहे और माँ- बाप का आशीर्वाद भी | इस कहानी मे एक प्रेमी जोड़ा हैं जो अपने प्रेम को बचाए रखने के साथ-साथ अपने माँ-बाप का भी आशीर्वाद  चाहता है लेकिन ये संभव होता नहीं दिखता तो वे कोई दूसरा रास्ता तलाशने कि कोशिश करते दिखाई देते हैं जिससे उनका प्रेम और माँ- बाप का प्यार भी मिलता रहे| राजेंद्र राव ने और भी कई प्रेम कहानियाँ लिखी हैं उनकी इन कहानैयों मे एक तरफ उद्दाम प्रेम मे डूबते –उतराते प्रेमी युगल दिखते हऐन तो  दूसरी तरफ परिवार और सामाज की बेड़ियों मे जकड़े अपने प्रेम को कुर्बान करर्ते प्रेमी – प्रेमिका भी दिखाई देते हैं | लेकिन दोपहर  का भोजन कहानी  मे ये प्रेमी जोड़ा कोई नए रास्ते की तलाश करते दिखाई  देते हैं |  
साहित्य मे राजनीतिक और पूँजीपतियों ने कैसी सेंध लगाई हैं इसको देखना के लिए राजेंद्र  राव की कहानी – मैं राम की बाहुरिया पढ़ना चाहिये इस कहानी मे उन्होने दिखाया हैं कि कैसे  एक पूंजी पति आपने राजनीतिक  संपर्कों के जरिये पहले अकूत संपत्ति अर्जित करता है और जब वह संपप्ति उसके गले की हड्डी बनने लगती है तो फिर उसी काली कमाई के जरिये साहित्य मे घुसपैठ करके, एक चर्चित साहित्यकार बनकर , साहित्य का नियंता बन बैठता है ,इस कहानी के जरिये राजेंद्र राव ने पहले ही जयपुर साहित्य महोत्सव जैसे आयोजनाओ और फर्जी लेखकों की ओर इशारा कर दिया था | उन्होने अपनी एक अन्य कहानी लौकी का तेल मे राजनीति और पूँजीपतियों के गठजोड़ को दर्शाने की प्रयास किया है इस कहानी मे उन्होने दिखाया हैं की पूंजीपति लोग कैसे अपने फायदे के लिए राजनीती इस्तेमाल करते हैं और राजनीतिक लोग भी अपनी राजनीति चमकाने मे जनता के हितों की कोई परवाह नहीं करते हैं |राजेन्द्र राव की कहानियों मे अपने समय के तनावों को मजबूती से उठाया गया है पूंजीवादी व्यवस्था कैसे अपने जाल फैलाती है और आम जन मानस को अपनी आगोस मे लेकर उनका खून चूसती है , इन सब बातों को वे बड़ी बारीकी से पकड़ते हैं और इस जाल मे उलझे आम आदमी की छटपटाहट को रेखांकित करते हैं|  राजेन्द्र राव जी अपनी कहानियों मे शिल्प के स्तर पर बहुत ज्यादा प्रयोग न करके अपनी बात सीधे सरल शब्दों मे घटनाओं को पिरोते हैं और बिना किसी नाटकीयता के कहानी को आगे बढ़ाते हैं | छोटी छोटी बिम्बावलियों और दृष्यों से कथानक सृजित कर देना कला है राजेन्द्र राव इस कला में सिद्धहस्त है । इस टेक्निक मे लेखक हर स्थान में स्वयम् उपस्थित रहता है ।अक्सर कहानियों मे लेखक कथा कहते कहते नेपथ्य मे चला जाता है वह पाठक की भावानुभूतियों और प्रतिक्रियाओं के बूते कथानक को व गतिशीलता को आगे बढाता रहता है इससे कथानक पूर्ण रूप से तारतम्यता पर निर्भर होता है पाठक का व्यवधान भी लेखक का व्यवधान बन जाता है राव इस स्थिति से परिचित हैं । अतः उन्होने अपनी अधिकांश कहानियों में खुद को भी उपस्थिति करके करके रखा है लेखक गायब नही होता है वह गाईड की तरह कथानक को सपाट और सुग्राह बनाता हुआ चलता है । हलांकि मैं शैली मे उनकी अधिक कहानिया नही है न ही वो उत्तम पुरुष के रूप मे कही उपस्थित है पर अन्य सत्ता के रूप भे विवरण देते समय लेखक की उपस्थिति का जोरदार आभाष होता रहता है यह भी प्रयोगधर्मी जोखिम की तरह है  इस जोखिम मे लेखक सफल हो जाता है एक तरफ वो पाठक को बाँधकर रखने मे सफल होता तो दूसरी तरफ वो चरित्र का आवश्यक विस्तार भी कर देता है । यदि लेखक प्रकारान्तर से अपनी कहानी मे उपस्थित है तो वह अपने मन्तव्यों को जीवन से जुडे सवालों के साथ अधिक सफलता से प्रेषित कर सकता है मुन्सी प्रेमचन्द की बहुत सी कहानियों मे इस विशिष्टता को देखा जा सकता है । लेखक की उपस्थिति से पाठक और लेखक का चिन्तन व आवेग समानान्तर हो जाते है पाठक लेखक की दृष्टि से सीधे जुड जाता है अतः ऐसी कहानियाँ प्रभावोत्पादकता की दृष्टि से अधिक सफल होती हैं । ऐसी कहानियाँ संवादी भंगिमा से युक्त होकर बेधडक आगे बढती जाती है । इस विशिष्टता के कारण राजेन्द्र राव की कहानिया पाठक के भीतर अरुचि मा ऊब नही उत्पन्न करती है वह और भी अधिक संघातों का गरिमामय प्रतिबिम्ब बनाती हैं
राजेन्द्र राव की कृतियाँ उनके व्यक्तित्व का परिचय कराती है एक ऐसा व्यक्तित्व जिसमे चिन्तन के सूक्ष्म तन्तु व वैचारिक बनावटों की तहें भी उपस्थित हैं । चूँकि लेखक की वैचारिक अवस्थितियाँ साहित्यिक , सांस्कृतिक व सामाजिक परिवेश की पैदाईस होती है लेखक का चतुर्दिक देशकाल ही उसकी विचार प्रक्रिया व चिन्तन को सामाजिक आधार देता है यदि राजेन्द राव जी की कहानियों मे मध्यमवर्गीय परिवारों व उनकी समस्याओं का प्रतिबिम्ब है तो इसके लिए उनका सामाजिक यथार्थ उत्तरदायी है । लेखक अपने आस पास के अपने लोगों को ही कहानी या कविता का विषय बनाता है वह अपने परिवेश से बाहर निकलना नही चाहता यदि वह निकलेगा तो कहानी मे कहीं न कहीं नकलीपन जरूर आ जाएगा और कहानी के निकष जीवन अनुभव के निकष बनकर नही उपस्थित हो सकेगे राव की साहित्यिक प्रेरणा भारत के वृहत्तर सामाजिक जीवन की फरिलब्धि है उनकी कहानियों की इमारत शून्य मे नही बनी कल्पना की अनुकृति नही है वह यथार्थ की इबारत है ।वैचारिक व्यक्तिगत अनुभवों की संवेगशील अभिव्यक्ति है । शिल्प और भाषा के सम्बन्ध मे वो अपने समकालीनों से अलग रहे उन्होने दृष्यात्मक व परिदृष्यात्मक शैली का कुशलतम प्रयोग किया है ये दोनो शैली रेणु की उपन्यासों मे भी उपस्थित है ।जब परिवेश को चरितनायक का दर्जा दिया जाना होता है तभी इस शैली का उपयोग होता है इस शैली से कोई भी घटना अस्वाभाविक नही लगती समूचा परिदृष्य अपने आप उपस्थित होता व स्पष्टीकरण देता चला जाता है । समाज के सांस्कृतिक व पारिवारिक सवालों को लेकर राजेन्द्र राव की कहानियाँ व्यापक माहौल विनिर्मित करती हैं इस सन्दर्भ में वो लेखक और समाजशास्त्री दोनो हैं वे अपनी कहानियों में भारतीय अस्मिता वैयक्तिक अस्मिता जातीय अस्मिताओं के सवालों के साथ बहुलतावादी वर्गीय संस्कृति के सवालों से खुलकर मुठभेड करते हैं ।साथ ही समाज को संचालित करने वाली तमाम शक्तियों का पोस्टमार्डम करते हुए जनता के पक्ष मे विरोध व सपनों का खूबसूरत आधार प्रस्तुत करते हैं राव की कहानियाँ चिर परिचित आस्वाद में खलल डाले बगैर नये कथात्मक आस्वाद से परिचित कराती हैं और बहुत कुछ मनुष्य के उपभोक्तावादी जडताओं और मूढताओं का खंडन करती है । लेखक जितना बेरहम जडताओं के खंडन के पक्ष मे है उतना ही दरियादिल व सजग नव निर्माण के प्रति है इसे उनकी निजी रंगत कहिए या अखिल भारतीय वैश्विक परिवर्तनों की समझ वह लोकलटी के साथ वैश्विकता की ओर कदम बढाते हैं स्थानीयता के साथ भूमंडलीकरण को परखते हैं परिवार के आधार पर मनुष्यता को देखते हैं तो विहंगम मानवता के साथ अस्मिता की बात करते है निः सन्देह राजेन्द्र राव हमारे समय के बडे कथाकार है । जिन्हे हम जानबूझकर उपेक्षित नही कर सकते हैं |
                                                                             @ प्रेम नंदन

बुधवार, 10 अगस्त 2022

कवियों की कथा

#कवियों_की_कथा-30
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   फतेहपुर के प्रेम नंदन एक प्रतिबद्ध युवा कवि हैं! लेखन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता प्रभावित करती है । अब तक उनके दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । उनकी कविताओं में वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ जीवन मूल्यों के रक्षण का आग्रह  है ।साथ ही ग्राम्य जीवन तथा उसकी जटिलताओं की सहज अभिव्यक्ति  है,,!
     आज इस काॅलम की तीसवीं कड़ी में प्रेमनंदन की कविताओं में अभिव्यक्त प्रतिबद्धता से परिचित होंगे,,!

            कवि की कथा=कवि की कलम से 
                      #कवि_कथा

अपने लेखन की शुरुआत के बारे में बात करूं तो जब मैं लिखने के कारणों की ओर झाँकने का प्रयास करता हूँ तो कई प्रश्न एक साथ सामने आ खड़े होते हैं- आखिरकार मैंने लिखना कैसे और क्यों शुरू किया?
साहित्य का मेरे घर-परिवार से दूर-दूर तक कहीं कोई रिश्ता नहीं था तो फिर मुझमें लेखन के संस्कार कहाँ से आए? 

बचपन के गलियारों में लौटने पर कई चीजें स्पष्ट हो जाती हैं, बातें शुरूआत की ओर पहुँच जाती हैं।
लिखने के शुरुआती बीज मेरे मष्तिष्क में शायद अम्मा की लोरियों ने बोए होंगे, कविता के प्रति लगाव शायद अम्मा के गाने-गुनगुनाने की आदत से पैदा हुआ होगा। अम्मा के पास लोकगीतों और कहानियों का अकूत भंडार है। 

उन दिनों अम्मा गांव और रिश्तेदारी में एक अच्छी गउनहर के रूप में प्रसिद्ध थी और विभिन्न तीज-त्योहारों और शादी-ब्याह के अवसरों पर लोग उनको इसी गुण के कारण विशेष रूप से आमंत्रित करते थे।

अम्मा अब भी हमेशा कुछ ना कुछ गाती-गुनगुनाती रहती हैं। बचपन में मुझको नींद तभी आती थी जब अम्मा मीठे स्वर में लोरियां सुनाती थी और सुबह उनकी गुनगुनाने की आवाज सुनकर ही आंखें खुलती थीं। दरअसल अम्मा हमारे सोने के बाद ही सोती थी और हमारे जागने के पहले जाग जाती थी और वे घरेलू कार्य प्रायः गाते-गुनगुनाते हुए ही करती थीं, अब भी उनकी यही दिनचर्या है। यह उस समय की लगभग सभी घरेलू महिलाओं की नियमित दिनचर्या होती थी।

अम्मा की लोरियों के पंखों पर सवार होकर जब मैं स्कूल गया तो वहां भी मेरा परिचय सबसे पहले कविता यानी स्कूल में गाई जाने वाली प्रार्थना से  हुआ। हिंदी की किताब में पहला पाठ भी कविता ही था। अम्मा से मिले संस्कारों के कारण बचपन में कविताएँ मुझे शीघ्र ही याद हो जाया करती थीं शायद यही कारण रहा है कि मुझे अपनी किताब की सभी कविताएं याद रहती थीं और मैं उन्हें अक्सर गुनगुनाया करता था। 

इसी दौरान जिंदगी में पहले प्यार के रूप में रेडियो का प्रवेश हुआ। उस समय घर में दो रेडियो थे, एक बुश का बड़ा रेडियो, लकड़ी की बॉडी वाला, दूसरा बुश की अपेक्षाकृत छोटा रेडियो- मर्फी का प्लास्टिक बॉडी में।
धीरे-धीरे मर्फी वाला रेडियो मेरा सबसे प्यारा और गहरा दोस्त बन गया।अम्मा के गीतों के साथ-साथ, रेडियो पर फिल्मी गाने, लोकगीत, गजलें सुनते हुए मैं बड़ा हुआ। रेडियो से बचपन की ये दोस्ती हाल फिलहाल तक बनी रही।  मेरे बनने-बिगड़ने में रेडियो का भी बहुत बड़ा योगदान है। 

इस तरह गीतों और कविताओं के प्रति मैं बचपन से ही लगाव महसूस करता था लेकिन कविता या और कुछ लिखने के बारे में तो मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था।

स्कूली शिक्षा खत्म करने के बाद जब मैं आगे की पढ़ाई के लिए शहर आया तो जहाँ मैं किराए पर रहता था उससे कुछ दूरी पर एक राजकीय पुस्तकालय और राजकीय छात्रवास अगल-बगल स्थित थे। मेरे कई सीनियर और परिचित साथी राजकीय छात्रवास में रहते थे और अखबार, पत्रिकाएं पढ़ने के लिए रोजाना राजकीय पुस्तकालय जाते थे । मैं भी उन्ही के साथ पहले तो प्रायः रविवार और फिर नियमित रूप से लाइब्रेरी जाने लगा था लगा। वहाँ पर कई अखबार, प्रतियोगी पत्रिकायें, साहित्यिक पत्रिकाएं आती थीं। वहीं पहली बार अखबारों और पत्रिकाओं से दोस्ती हुई। उस समय 'संपादक ने नाम पत्र' जैसे कॉलम लगभग सभी अखबारों में होते थे। 

विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों कर रहे कई सीनियर साथी संपादक के नाम पत्र लिखते थे और जब वे अखबारों में प्रकाशित होते थे तो बड़े गर्व से हम सबको दिखाते थे कि देखो-मेरा लिखा हुआ अखबार में छपा हैं। उस समय यह देखना काफी रोमांचक अनुभव हुआ करता था। तो इसी की देखा-देखी मैंने भी एक दिन एक पोस्टकार्ड पर विभिन्न सब्जियों की खेतीबाड़ी में प्रयोग होने वाले कीटनाशक दवाओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों को लेकर एक पोस्टकार्ड में कुछ लिखा और उसे पोस्टबॉक्स में डाल आया और फिर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गया। लगभग एक हफ्ते बाद वह पत्र कानपुर महानगर से प्रकाशित होने वाले एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक अखबार के 'संपादक के नाम पत्र' वाले कॉलम में अपने लिखे शब्दों को छपा हुआ देखकर सचमुच आँखों में आँसू आ गए थे। उस घटना के बाद पत्र लिखने का एक सिलसिला ही चल पड़ा। साथियों के साथ खूब पत्र लिखे जाते, कुछ छपते, कुछ न छपते, लेकिन अब इस बात की परवाह न करते हुए जब भी समय मिलता, खूब पोस्टकार्ड लिखे जाते, पोस्ट किए जाते।

हम जिस राजकीय पुस्कालय में पढ़ने जाते थे, शहर में मेरे जैसे तमाम गँवई लड़कों के लिए एकमात्र अड्डा था। यह पुस्कालय जिला विद्यालय निरीक्षक के आधीन था । वहाँ पर सिर्फ एक लाइब्रेरियन और एक चपरासी नियुक्त था। दोनों बहुत मक्कार थे। समय से लाइब्रेरी न खोलना, जल्दी बन्द कर देना , मेम्बरशिप लेने के बावजूद किताबें इश्यू करने में आनाकानी करना, विभिन्न मासिक पत्रिकाओं को पहले अपने घर ले जाना फिर हफ़्ते दो हफ्ते बाद लाइब्रेरी लाना जैसी अनेक करतूतों से  से हम सभी पढ़ने वाले छात्र परेशान रहते थे। हम लोग आए दिन लाइब्रेरियन और चपरासी की शिकायत जिला विद्यालय निरीक्षक से करते, लेकिन उनकी आदतें सुधरने का नाम ही नहीं ले रहीं थी। इन सबसे परेशान होकर हम लोगों ने लाइब्रेरी की समस्याओं और लाइब्रेरियन और चपरासी की शिकायत के रूप में कई पोस्टकार्ड विभिन्न स्थानीय और राष्ट्रीय अखबारों को भेजे। इन शिकायती पत्रों को कई अखबारों ने प्रकाशित किया। जिनमें से कई साथियों के पत्रों के साथ मेरा लिखा शिकायती पत्र भी प्रकाशित हुआ। कुछ स्थानीय अखबारों ने इसे खबर के रूप में छापा। अखबारों में प्रकाशित होने के कारण यह एक बड़ा मुद्दा बन गया, जिसकी आँच जिला विद्यालय निरीक्षक तक पहुँची। उन्होंने इन खबरों को संज्ञान में लेते हुए एक दिन छात्रों के हमारे ग्रुप को अपने ऑफिस में बातचीत के लिए बुलाया। वहाँ पर उन्होंने बड़े ध्यानपूर्वक हमारी शिकायतें सुनी और लाइब्रेरियन व चपरासी को फटकार लगाते हुए आइंदा से नियमानुसार कार्य करने की चेतावनी दी।

जिला विद्यालय निरीक्षक महोदय ने हम लोगो से उन पत्रिकाओं और अखबारों की सूची मांगी, जो हम लोग पढ़ना चाहते थे, लेकिन लाइब्रेरी में नहीं आते थे। उन्होंने उन पत्रिकाओं, अखबारों की लाइब्रेरी भिजवाने की व्यवस्था की। जिसके बाद लाइब्रेरी की व्यवस्था में काफी सुधार हुआ।

इस घटना के बाद पहली बार मुझे शब्दों की ताकत का एहसास हुआ और उसी क्षण मैंने शब्दों से दोस्ती कर ली। अखबारों और प्रतियोगी पत्रिकाओं और साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़ाव और गहरा हुआ। 

इसी दौरान किसी पत्रिका या किताब में (ठीक से याद नहीं आ रहा) जब मैंने अज्ञेय की 'छंदमुक्त' कविता 'हिरोशिमा' पहली बार पढ़ी तो अचानक ही दिमाग में यह विचार बिजली की तरह कौंधा कि इस तरह की कविता तो मैं भी लिख सकता हूँ। एक यह महज एक विचार ही था। मैं उस क्षण एक पंक्ति भी नहीं लिख सका।

इसके दो-तीन महीने बाद ही, जहाँ मैं रहता था , वहीं पड़ोस में एक दुर्घटना घट गई, एक नवब्याहता को जिंदा जला दिया गया। इस दुर्घटना ने मुझे झकझोर कर रख दिया और मेरे दिमाग को बहुत उद्देलित और बेचैन किया। यह बेचैनी कई दिनों तक दिमाग को मथती रही। अन्ततः एक दिन इस बेचैनी से मुक्ति पाने के लिए इसे शब्दों में ढालने के प्रयास में डायरी और पेन लेकर लिखने बैठ गया। उस दिमाग मे पहले से पढ़ी हुई अज्ञेय की कविता 'हिरोशिमा' पूरी तरह हावी थी और उसी से प्रेरित होकर कागज पर एक कविता जैसा कुछ लिख डाला। यह मेरी पहली साहित्यिक रचना थी। कविता का शीर्षक रखा - 'अतृप्त इच्छाओं की वेदी'। 

संयोग से वह कविता एक स्थानीय साप्ताहिक पत्र में छप भी गई। इससे उत्साहित होकर  कुछ और कविताएँ, गीत और लघुकथाएँ लिखीं जो विभिन्न स्थानीय साप्ताहिक पत्रों और दैनिक अखबारों की रविवासरीय परिशिष्ट में छपीं। इस तरह मेरे लेखन का सिलसिला शुरू हुआ।

#कविताएं=
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01- - संकट

जिस समय बौर से लदा-फ़दा
मह-मह गमकना चाहिए
बसंत के उस मौसम में
मुरझाई आंखों से
आठ-आठ आँसू रोते हुए
गा रहा है कोई उदास गीत
पिता का रोपा हुआ
आम का पेड़।

ये रोना सिर्फ आम का रोना नहीं है
बल्कि रोना है उस
समूची पीढ़ी का
जो पेड़ों को अपने बच्चों सा पालती थी

अब पेड़ और
पेड़ों को चाहने वाले
दोनों संकट में हैं
और इस संकट से उबरने का
कोई भी उपाय
किसी भी नदी, हवा, मिट्टी
या मौसम के पास नहीं है।

02-- मछुआरा मन 

मछुआरा मन
चाहे कुछ ऐसा... 

खेतों, कछारों में
नदियों संग घूमें
झूमती-मचलती 
हवाओं संग झूमें

बारिश की रिमझिम में
पेड़ हँसें, फूल खिलें
जीवन की सुविधाएं
सबको भरपूर मिलें

चिड़ियों को पेड़ मिलें
पशुओं को जंगल
आदमी को बस्ती मिलें
सबका हो मंगल

मछुआरा मन
चाहे कुछ ऐसा…

03 -  गाँव की पगडंडियाँ

हर बार गाँव से लौटते समय 
कन्धों पर झूल-झूल जाती हैं 
मेरे गाँव की पगडंडियाँ
वे भी आना चाहती हैं शहर 
मेरे साथ 

शहर को 
समझता हूँ  
मैं उनसे बेहतर 
इसलिए समझाता हूँ- 
यहीं रहो तुम सब 
यहीं तुम सुरक्षित हो 
जाओगी शहर तो 
गुम हो जाओगी तुम 
बचेगा नहीं नामोनिशान तुम्हारा 

मेरे कंधों से उतरकर 
थोड़ा गुस्सा और बहुत-सी निराशा से 
ताकती हैं एकटक 
वे मुझे देर तक 

हर बार छोड़ आता हूँ 
गाँव कि सरहद पर खड़े
बूढ़े बरगद के नीचे उन्हें 

सोचता हूँ- 
किसी दिन यदि सचमुच में 
शहर आ गईं 
गाँव कि पगडंडियाँ 
तो क्या होगा उनका ?

वर्षों से 
इसी असमंजस में पड़ा हूँ मैं 
गाँव और शहर के 
ठीक बीचोबीच 
धोबी का कुत्ता बना खड़ा हूँ मैं ।

04- बीता समय उदास है

उदास है 
गाँव की सरहद पर
चैकीदार-सा खड़ा
बूढ़ा बरगद 
क्योंकि लोग उसकी छाया में
बैठने, बतियाने 
अब नहीं आते 

सूना है 
बड़े कुएँ का पनघट 
क्योंकि नही गूँजती
चूड़ियों, पायलों की झंकार
बाल्टी, गागर की  खनखनाहटें 
अब नहीं सुनाई देतीं यहाँ
लड़कियाँ-औरतों की खिलखिलाहटें 

उदास है
जीवन के मद्धिम अलाव में पकी
अनुभवों की गठरी लिए बैठी  
वृद्धावस्था 
क्योंकि लोग उसके पास
राय-मशविरा करने
उनके सुख-दुःख सुनने 
अब नहीं आते ।

05 - मेहनतकश आदमी

घबराता नहीं काम से
मेहनतकश आदमी ,
वह घबराता है निठल्लेपन से

बेरोजगारी के दिनों को खालीपन
कचोटता है उसको,
भरता है उदासी
रोजी-रोटी तलाश रही उसकी इच्छाओं में

पेट की आग से ज्यादा तीव्र होती है
काम करने की भूख उसकी
क्योंकि भूख तो तभी मिटेगी
जब वह कमाएगा
नही तों क्या खाएगा

सबसे ज्यादा डरावने होते हैं
वे दिन
जब उसके पास
करने को कुछ नहीं होता

रोजी-रोटी में सेंध मार रहीं मशीनें
सबसे बड़ी दुश्मन हैं उसकी
साहूकार, पुलिस और सरकार से
यहॉ तक कि भूख से भी
वह नहीं डरता उतना
जितना डरता है
मशीनों द्वारा अपना हक छीने जाने से

रोजगार की तलाश में
वह शहर-शहर ठोकरे खाता है
हाड़तोड़ मेहनत करता है
पर मशीनों की मार से
अपनी रोजी-रोटी नहीं बचा पाता,
तब वह बहुत घबराता है ।

06- निर्जीव होते गांव 

रो रहे हैं हँसिए
चिल्ला रही हैं खुरपियाँ
फावड़े चीख रहे हैं 
कुचले जा रहे हैं
हल, जुआ, पाटा,
ट्रैक्टरों के नीचे 

धकेले जा रहे हैं गाय-बैल, 
भैंस-भैसे कसाई-घरों में 

धनिया, गाजर , मूली ,  टमाटर ,
आलू, लहसुन ,प्याज, गोभी ,
दूध ,दही, मक्खन, घी ,
भागे जा रहे हैं
मुँह-अँधेरे ही शहर की ओर
और किसानों के बच्चे
ताक रहे हैं इन्हें ललचाई नजरों से 

गाँव में 
जीने की ख़त्म होती 
संभावनाओं से त्रस्त
खेतिहर नौजवान पीढ़ी
खच्चरों की तरह पिसती है  
रात-दिन शहरों में
गालियों की चाबुक सहते हुए 

गाँव की जिंदगी
नीलाम होती जा रही है
शहर के हाथों ;
और धीरे- धीरे ...
निर्जीव होते जा रहे हैं गाँव 

07– गाँव, नदी और पेड़ का भविष्य 
 
मेरे गाँव के 
खूबसूरत चेहरे को 
बदरंग करके 
बिजूके की तरह  
टांग दिया है 
बाजार ने 
लकडहारे के हाथों बिक चुके 
रेत हो चुकी नदी के किनारे खड़े 
अंतिम पेड़ की 
उदास डालों पर
 
अब पेड़ चाहे तो 
चेहरा पहन ले 
या फिर चेहरा 
पेड़ हो जाए 
और फिर दोनों 
रेत को निचोड़कर
मुक्त कर दें नदी को 
 
ऐसी ही दो-एक संभावनाओं पर 
टिका है 
गाँव, नदी और पेड़ का भविष्य 

08- सपने जिंदा हैं अभी

मर नहीं गए हैं सब सपने 
कुछ सपने जिंदा हैं अभी भी

एक पेड़ ने
देखे थे जो सपने
हर आँगन में हरियाली फ़ैलाने के 
उसके कट जाने के बाद भी
जिंदा हैं वे अभी
उसकी कटी हुई जड़ों में 

एक फूल ने
देखे थे जो सपने
हर माथे पर खुशबू लेपने के
उसके सूखकर बिखर जाने के बाद भी
जिंदा हैं वे अभी
उसकी सूखी पंखुड़ियों में 

एक तितली ने
देखे थे जो सपने
सभी आँखों में रंग भरने के 
उसके मर जाने के बाद भी
जिंदा हैं वे अभी
उसके टूटे हुए पंखों में 

एक कवि ने
देखे थे जो सपने
समाजिक समरसता के, 
आडंबर, पाखंड,  जात-पाँत,  छुआछूत से 
मुक्त समाज के 
उसके मार दिए जाने के बाद भी 
जिंदा हैं वे अभी
उसकी रचनाओं में 

मर नहीं गए हैं सब सपने 
कुछ सपने जिंदा हैं अभी भी। 

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 #परिचय=

जनपद फतेहपुर(उ0प्र0) के एक छोटे से गाँव फरीदपुर में 25 दिसंबर 1980 को जन्म. 
 
शिक्षा एम0ए0(हिन्दी), बी0एड0, पत्रकारिता और जनसंचार में स्नातकोत्तर डिप्लोमा.
 
लेखन और आजीविका की शुरुआत पत्रकारिता से. दो-तीन वर्षों तक पत्रकारिता करने तथा तीन-चार वर्षों तक भारतीय रेलवे में स्टेशन मास्टरी और कुछ वर्षों तक इधर-उधर भटकने के पश्चात सम्प्रति अध्यापन.
 
कविताएं कहानियां, लघुकथायें एवं आलोचना आदि का लेखन और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, ई-पत्रिकाओं एवं ब्लॉगों में प्रकाशन.
 
दो कविता संग्रह 'सपने जिंदा हैं अभी'
और 'यही तो चाहते हैं वे' प्रकाशित. 
 
मोबइल – 09336453835 
ईमेल - premnandanftp@gmail.com
पता-शकुन नगर, सिविल लाइन्स,
      फतेहपुर (उ0प्र0)

कविता

दुनिया की प्रत्येक चीज   संदेह से दूर नहीं मैं और तुम  दोनों भी खड़े हैं संदेह के आखिरी बिंदु पर तुम मुझ देखो संदेहास्पद नजरों से मैं तुम्हें...