#कवियों_की_कथा-30
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फतेहपुर के प्रेम नंदन एक प्रतिबद्ध युवा कवि हैं! लेखन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता प्रभावित करती है । अब तक उनके दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । उनकी कविताओं में वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ जीवन मूल्यों के रक्षण का आग्रह है ।साथ ही ग्राम्य जीवन तथा उसकी जटिलताओं की सहज अभिव्यक्ति है,,!
आज इस काॅलम की तीसवीं कड़ी में प्रेमनंदन की कविताओं में अभिव्यक्त प्रतिबद्धता से परिचित होंगे,,!
कवि की कथा=कवि की कलम से
#कवि_कथा
अपने लेखन की शुरुआत के बारे में बात करूं तो जब मैं लिखने के कारणों की ओर झाँकने का प्रयास करता हूँ तो कई प्रश्न एक साथ सामने आ खड़े होते हैं- आखिरकार मैंने लिखना कैसे और क्यों शुरू किया?
साहित्य का मेरे घर-परिवार से दूर-दूर तक कहीं कोई रिश्ता नहीं था तो फिर मुझमें लेखन के संस्कार कहाँ से आए?
बचपन के गलियारों में लौटने पर कई चीजें स्पष्ट हो जाती हैं, बातें शुरूआत की ओर पहुँच जाती हैं।
लिखने के शुरुआती बीज मेरे मष्तिष्क में शायद अम्मा की लोरियों ने बोए होंगे, कविता के प्रति लगाव शायद अम्मा के गाने-गुनगुनाने की आदत से पैदा हुआ होगा। अम्मा के पास लोकगीतों और कहानियों का अकूत भंडार है।
उन दिनों अम्मा गांव और रिश्तेदारी में एक अच्छी गउनहर के रूप में प्रसिद्ध थी और विभिन्न तीज-त्योहारों और शादी-ब्याह के अवसरों पर लोग उनको इसी गुण के कारण विशेष रूप से आमंत्रित करते थे।
अम्मा अब भी हमेशा कुछ ना कुछ गाती-गुनगुनाती रहती हैं। बचपन में मुझको नींद तभी आती थी जब अम्मा मीठे स्वर में लोरियां सुनाती थी और सुबह उनकी गुनगुनाने की आवाज सुनकर ही आंखें खुलती थीं। दरअसल अम्मा हमारे सोने के बाद ही सोती थी और हमारे जागने के पहले जाग जाती थी और वे घरेलू कार्य प्रायः गाते-गुनगुनाते हुए ही करती थीं, अब भी उनकी यही दिनचर्या है। यह उस समय की लगभग सभी घरेलू महिलाओं की नियमित दिनचर्या होती थी।
अम्मा की लोरियों के पंखों पर सवार होकर जब मैं स्कूल गया तो वहां भी मेरा परिचय सबसे पहले कविता यानी स्कूल में गाई जाने वाली प्रार्थना से हुआ। हिंदी की किताब में पहला पाठ भी कविता ही था। अम्मा से मिले संस्कारों के कारण बचपन में कविताएँ मुझे शीघ्र ही याद हो जाया करती थीं शायद यही कारण रहा है कि मुझे अपनी किताब की सभी कविताएं याद रहती थीं और मैं उन्हें अक्सर गुनगुनाया करता था।
इसी दौरान जिंदगी में पहले प्यार के रूप में रेडियो का प्रवेश हुआ। उस समय घर में दो रेडियो थे, एक बुश का बड़ा रेडियो, लकड़ी की बॉडी वाला, दूसरा बुश की अपेक्षाकृत छोटा रेडियो- मर्फी का प्लास्टिक बॉडी में।
धीरे-धीरे मर्फी वाला रेडियो मेरा सबसे प्यारा और गहरा दोस्त बन गया।अम्मा के गीतों के साथ-साथ, रेडियो पर फिल्मी गाने, लोकगीत, गजलें सुनते हुए मैं बड़ा हुआ। रेडियो से बचपन की ये दोस्ती हाल फिलहाल तक बनी रही। मेरे बनने-बिगड़ने में रेडियो का भी बहुत बड़ा योगदान है।
इस तरह गीतों और कविताओं के प्रति मैं बचपन से ही लगाव महसूस करता था लेकिन कविता या और कुछ लिखने के बारे में तो मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था।
स्कूली शिक्षा खत्म करने के बाद जब मैं आगे की पढ़ाई के लिए शहर आया तो जहाँ मैं किराए पर रहता था उससे कुछ दूरी पर एक राजकीय पुस्तकालय और राजकीय छात्रवास अगल-बगल स्थित थे। मेरे कई सीनियर और परिचित साथी राजकीय छात्रवास में रहते थे और अखबार, पत्रिकाएं पढ़ने के लिए रोजाना राजकीय पुस्तकालय जाते थे । मैं भी उन्ही के साथ पहले तो प्रायः रविवार और फिर नियमित रूप से लाइब्रेरी जाने लगा था लगा। वहाँ पर कई अखबार, प्रतियोगी पत्रिकायें, साहित्यिक पत्रिकाएं आती थीं। वहीं पहली बार अखबारों और पत्रिकाओं से दोस्ती हुई। उस समय 'संपादक ने नाम पत्र' जैसे कॉलम लगभग सभी अखबारों में होते थे।
विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों कर रहे कई सीनियर साथी संपादक के नाम पत्र लिखते थे और जब वे अखबारों में प्रकाशित होते थे तो बड़े गर्व से हम सबको दिखाते थे कि देखो-मेरा लिखा हुआ अखबार में छपा हैं। उस समय यह देखना काफी रोमांचक अनुभव हुआ करता था। तो इसी की देखा-देखी मैंने भी एक दिन एक पोस्टकार्ड पर विभिन्न सब्जियों की खेतीबाड़ी में प्रयोग होने वाले कीटनाशक दवाओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों को लेकर एक पोस्टकार्ड में कुछ लिखा और उसे पोस्टबॉक्स में डाल आया और फिर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गया। लगभग एक हफ्ते बाद वह पत्र कानपुर महानगर से प्रकाशित होने वाले एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक अखबार के 'संपादक के नाम पत्र' वाले कॉलम में अपने लिखे शब्दों को छपा हुआ देखकर सचमुच आँखों में आँसू आ गए थे। उस घटना के बाद पत्र लिखने का एक सिलसिला ही चल पड़ा। साथियों के साथ खूब पत्र लिखे जाते, कुछ छपते, कुछ न छपते, लेकिन अब इस बात की परवाह न करते हुए जब भी समय मिलता, खूब पोस्टकार्ड लिखे जाते, पोस्ट किए जाते।
हम जिस राजकीय पुस्कालय में पढ़ने जाते थे, शहर में मेरे जैसे तमाम गँवई लड़कों के लिए एकमात्र अड्डा था। यह पुस्कालय जिला विद्यालय निरीक्षक के आधीन था । वहाँ पर सिर्फ एक लाइब्रेरियन और एक चपरासी नियुक्त था। दोनों बहुत मक्कार थे। समय से लाइब्रेरी न खोलना, जल्दी बन्द कर देना , मेम्बरशिप लेने के बावजूद किताबें इश्यू करने में आनाकानी करना, विभिन्न मासिक पत्रिकाओं को पहले अपने घर ले जाना फिर हफ़्ते दो हफ्ते बाद लाइब्रेरी लाना जैसी अनेक करतूतों से से हम सभी पढ़ने वाले छात्र परेशान रहते थे। हम लोग आए दिन लाइब्रेरियन और चपरासी की शिकायत जिला विद्यालय निरीक्षक से करते, लेकिन उनकी आदतें सुधरने का नाम ही नहीं ले रहीं थी। इन सबसे परेशान होकर हम लोगों ने लाइब्रेरी की समस्याओं और लाइब्रेरियन और चपरासी की शिकायत के रूप में कई पोस्टकार्ड विभिन्न स्थानीय और राष्ट्रीय अखबारों को भेजे। इन शिकायती पत्रों को कई अखबारों ने प्रकाशित किया। जिनमें से कई साथियों के पत्रों के साथ मेरा लिखा शिकायती पत्र भी प्रकाशित हुआ। कुछ स्थानीय अखबारों ने इसे खबर के रूप में छापा। अखबारों में प्रकाशित होने के कारण यह एक बड़ा मुद्दा बन गया, जिसकी आँच जिला विद्यालय निरीक्षक तक पहुँची। उन्होंने इन खबरों को संज्ञान में लेते हुए एक दिन छात्रों के हमारे ग्रुप को अपने ऑफिस में बातचीत के लिए बुलाया। वहाँ पर उन्होंने बड़े ध्यानपूर्वक हमारी शिकायतें सुनी और लाइब्रेरियन व चपरासी को फटकार लगाते हुए आइंदा से नियमानुसार कार्य करने की चेतावनी दी।
जिला विद्यालय निरीक्षक महोदय ने हम लोगो से उन पत्रिकाओं और अखबारों की सूची मांगी, जो हम लोग पढ़ना चाहते थे, लेकिन लाइब्रेरी में नहीं आते थे। उन्होंने उन पत्रिकाओं, अखबारों की लाइब्रेरी भिजवाने की व्यवस्था की। जिसके बाद लाइब्रेरी की व्यवस्था में काफी सुधार हुआ।
इस घटना के बाद पहली बार मुझे शब्दों की ताकत का एहसास हुआ और उसी क्षण मैंने शब्दों से दोस्ती कर ली। अखबारों और प्रतियोगी पत्रिकाओं और साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़ाव और गहरा हुआ।
इसी दौरान किसी पत्रिका या किताब में (ठीक से याद नहीं आ रहा) जब मैंने अज्ञेय की 'छंदमुक्त' कविता 'हिरोशिमा' पहली बार पढ़ी तो अचानक ही दिमाग में यह विचार बिजली की तरह कौंधा कि इस तरह की कविता तो मैं भी लिख सकता हूँ। एक यह महज एक विचार ही था। मैं उस क्षण एक पंक्ति भी नहीं लिख सका।
इसके दो-तीन महीने बाद ही, जहाँ मैं रहता था , वहीं पड़ोस में एक दुर्घटना घट गई, एक नवब्याहता को जिंदा जला दिया गया। इस दुर्घटना ने मुझे झकझोर कर रख दिया और मेरे दिमाग को बहुत उद्देलित और बेचैन किया। यह बेचैनी कई दिनों तक दिमाग को मथती रही। अन्ततः एक दिन इस बेचैनी से मुक्ति पाने के लिए इसे शब्दों में ढालने के प्रयास में डायरी और पेन लेकर लिखने बैठ गया। उस दिमाग मे पहले से पढ़ी हुई अज्ञेय की कविता 'हिरोशिमा' पूरी तरह हावी थी और उसी से प्रेरित होकर कागज पर एक कविता जैसा कुछ लिख डाला। यह मेरी पहली साहित्यिक रचना थी। कविता का शीर्षक रखा - 'अतृप्त इच्छाओं की वेदी'।
संयोग से वह कविता एक स्थानीय साप्ताहिक पत्र में छप भी गई। इससे उत्साहित होकर कुछ और कविताएँ, गीत और लघुकथाएँ लिखीं जो विभिन्न स्थानीय साप्ताहिक पत्रों और दैनिक अखबारों की रविवासरीय परिशिष्ट में छपीं। इस तरह मेरे लेखन का सिलसिला शुरू हुआ।
#कविताएं=
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01- - संकट
जिस समय बौर से लदा-फ़दा
मह-मह गमकना चाहिए
बसंत के उस मौसम में
मुरझाई आंखों से
आठ-आठ आँसू रोते हुए
गा रहा है कोई उदास गीत
पिता का रोपा हुआ
आम का पेड़।
ये रोना सिर्फ आम का रोना नहीं है
बल्कि रोना है उस
समूची पीढ़ी का
जो पेड़ों को अपने बच्चों सा पालती थी
अब पेड़ और
पेड़ों को चाहने वाले
दोनों संकट में हैं
और इस संकट से उबरने का
कोई भी उपाय
किसी भी नदी, हवा, मिट्टी
या मौसम के पास नहीं है।
02-- मछुआरा मन
मछुआरा मन
चाहे कुछ ऐसा...
खेतों, कछारों में
नदियों संग घूमें
झूमती-मचलती
हवाओं संग झूमें
बारिश की रिमझिम में
पेड़ हँसें, फूल खिलें
जीवन की सुविधाएं
सबको भरपूर मिलें
चिड़ियों को पेड़ मिलें
पशुओं को जंगल
आदमी को बस्ती मिलें
सबका हो मंगल
मछुआरा मन
चाहे कुछ ऐसा…
03 - गाँव की पगडंडियाँ
हर बार गाँव से लौटते समय
कन्धों पर झूल-झूल जाती हैं
मेरे गाँव की पगडंडियाँ
वे भी आना चाहती हैं शहर
मेरे साथ
शहर को
समझता हूँ
मैं उनसे बेहतर
इसलिए समझाता हूँ-
यहीं रहो तुम सब
यहीं तुम सुरक्षित हो
जाओगी शहर तो
गुम हो जाओगी तुम
बचेगा नहीं नामोनिशान तुम्हारा
मेरे कंधों से उतरकर
थोड़ा गुस्सा और बहुत-सी निराशा से
ताकती हैं एकटक
वे मुझे देर तक
हर बार छोड़ आता हूँ
गाँव कि सरहद पर खड़े
बूढ़े बरगद के नीचे उन्हें
सोचता हूँ-
किसी दिन यदि सचमुच में
शहर आ गईं
गाँव कि पगडंडियाँ
तो क्या होगा उनका ?
वर्षों से
इसी असमंजस में पड़ा हूँ मैं
गाँव और शहर के
ठीक बीचोबीच
धोबी का कुत्ता बना खड़ा हूँ मैं ।
04- बीता समय उदास है
उदास है
गाँव की सरहद पर
चैकीदार-सा खड़ा
बूढ़ा बरगद
क्योंकि लोग उसकी छाया में
बैठने, बतियाने
अब नहीं आते
सूना है
बड़े कुएँ का पनघट
क्योंकि नही गूँजती
चूड़ियों, पायलों की झंकार
बाल्टी, गागर की खनखनाहटें
अब नहीं सुनाई देतीं यहाँ
लड़कियाँ-औरतों की खिलखिलाहटें
उदास है
जीवन के मद्धिम अलाव में पकी
अनुभवों की गठरी लिए बैठी
वृद्धावस्था
क्योंकि लोग उसके पास
राय-मशविरा करने
उनके सुख-दुःख सुनने
अब नहीं आते ।
05 - मेहनतकश आदमी
घबराता नहीं काम से
मेहनतकश आदमी ,
वह घबराता है निठल्लेपन से
बेरोजगारी के दिनों को खालीपन
कचोटता है उसको,
भरता है उदासी
रोजी-रोटी तलाश रही उसकी इच्छाओं में
पेट की आग से ज्यादा तीव्र होती है
काम करने की भूख उसकी
क्योंकि भूख तो तभी मिटेगी
जब वह कमाएगा
नही तों क्या खाएगा
सबसे ज्यादा डरावने होते हैं
वे दिन
जब उसके पास
करने को कुछ नहीं होता
रोजी-रोटी में सेंध मार रहीं मशीनें
सबसे बड़ी दुश्मन हैं उसकी
साहूकार, पुलिस और सरकार से
यहॉ तक कि भूख से भी
वह नहीं डरता उतना
जितना डरता है
मशीनों द्वारा अपना हक छीने जाने से
रोजगार की तलाश में
वह शहर-शहर ठोकरे खाता है
हाड़तोड़ मेहनत करता है
पर मशीनों की मार से
अपनी रोजी-रोटी नहीं बचा पाता,
तब वह बहुत घबराता है ।
06- निर्जीव होते गांव
रो रहे हैं हँसिए
चिल्ला रही हैं खुरपियाँ
फावड़े चीख रहे हैं
कुचले जा रहे हैं
हल, जुआ, पाटा,
ट्रैक्टरों के नीचे
धकेले जा रहे हैं गाय-बैल,
भैंस-भैसे कसाई-घरों में
धनिया, गाजर , मूली , टमाटर ,
आलू, लहसुन ,प्याज, गोभी ,
दूध ,दही, मक्खन, घी ,
भागे जा रहे हैं
मुँह-अँधेरे ही शहर की ओर
और किसानों के बच्चे
ताक रहे हैं इन्हें ललचाई नजरों से
गाँव में
जीने की ख़त्म होती
संभावनाओं से त्रस्त
खेतिहर नौजवान पीढ़ी
खच्चरों की तरह पिसती है
रात-दिन शहरों में
गालियों की चाबुक सहते हुए
गाँव की जिंदगी
नीलाम होती जा रही है
शहर के हाथों ;
और धीरे- धीरे ...
निर्जीव होते जा रहे हैं गाँव
07– गाँव, नदी और पेड़ का भविष्य
मेरे गाँव के
खूबसूरत चेहरे को
बदरंग करके
बिजूके की तरह
टांग दिया है
बाजार ने
लकडहारे के हाथों बिक चुके
रेत हो चुकी नदी के किनारे खड़े
अंतिम पेड़ की
उदास डालों पर
अब पेड़ चाहे तो
चेहरा पहन ले
या फिर चेहरा
पेड़ हो जाए
और फिर दोनों
रेत को निचोड़कर
मुक्त कर दें नदी को
ऐसी ही दो-एक संभावनाओं पर
टिका है
गाँव, नदी और पेड़ का भविष्य
08- सपने जिंदा हैं अभी
मर नहीं गए हैं सब सपने
कुछ सपने जिंदा हैं अभी भी
एक पेड़ ने
देखे थे जो सपने
हर आँगन में हरियाली फ़ैलाने के
उसके कट जाने के बाद भी
जिंदा हैं वे अभी
उसकी कटी हुई जड़ों में
एक फूल ने
देखे थे जो सपने
हर माथे पर खुशबू लेपने के
उसके सूखकर बिखर जाने के बाद भी
जिंदा हैं वे अभी
उसकी सूखी पंखुड़ियों में
एक तितली ने
देखे थे जो सपने
सभी आँखों में रंग भरने के
उसके मर जाने के बाद भी
जिंदा हैं वे अभी
उसके टूटे हुए पंखों में
एक कवि ने
देखे थे जो सपने
समाजिक समरसता के,
आडंबर, पाखंड, जात-पाँत, छुआछूत से
मुक्त समाज के
उसके मार दिए जाने के बाद भी
जिंदा हैं वे अभी
उसकी रचनाओं में
मर नहीं गए हैं सब सपने
कुछ सपने जिंदा हैं अभी भी।
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#परिचय=
जनपद फतेहपुर(उ0प्र0) के एक छोटे से गाँव फरीदपुर में 25 दिसंबर 1980 को जन्म.
शिक्षा एम0ए0(हिन्दी), बी0एड0, पत्रकारिता और जनसंचार में स्नातकोत्तर डिप्लोमा.
लेखन और आजीविका की शुरुआत पत्रकारिता से. दो-तीन वर्षों तक पत्रकारिता करने तथा तीन-चार वर्षों तक भारतीय रेलवे में स्टेशन मास्टरी और कुछ वर्षों तक इधर-उधर भटकने के पश्चात सम्प्रति अध्यापन.
कविताएं कहानियां, लघुकथायें एवं आलोचना आदि का लेखन और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, ई-पत्रिकाओं एवं ब्लॉगों में प्रकाशन.
दो कविता संग्रह 'सपने जिंदा हैं अभी'
और 'यही तो चाहते हैं वे' प्रकाशित.
मोबइल – 09336453835
ईमेल - premnandanftp@gmail.com
पता-शकुन नगर, सिविल लाइन्स,
फतेहपुर (उ0प्र0)