शनिवार, 22 मई 2021

सघन अनुभूतियों और गहन स्मृतियों के बीच शब्दों के पुल बनाती कविताएं

सघन अनुभूतियों और गहन स्मृतियों के बीच शब्दों के पुल बनाती कविताएं

-प्रेम नंदन 

 

अनुभूतियाँ और स्मृतियाँ जब किसी दुबकी हुई साँझ या अंखुआई भोर में किसी नदी में पाँव डालकर आसपास बैठे हुए संवाद करती हैं तब ऐसे ही अविकल समय में जन्म लेती हैं साँस लेती, चहकती-फुदकती, गुनगुनाती कविताएं। ऐसी ही कविताओं के सर्जक हैं चर्चित कवि गणेश गनी। उनकी कविताएं अनुभूतियों और स्मृतियों की जीवंत दस्तावेज हैं। उनकी कविताओं के बिम्बों, रूपकों और शिल्प में झाँकता, निहारता और गमकता है पहाड़ी जीवन, नदियाँ, पर्वत, झरने, चीड़ , देवदार के घने जंगल और हरी-भरी घाटियाँ। इन्ही स्मृतियों में तैरते हुए वे कहते हैं-

'उधर सूरज भोर का उजाला 

लाने को था बेताब 

तूफान ने कई पेड़ उजाड़ दिए 

पर एक कागज पर रख कर या मेरे सामने 

और बादल स्याही की दवात

एक शाख कलम और 

भोर का तारा दे गया पता 

उस स्त्री का 

जिससे जुड़ी थी मेरी नाल।'

(पीछे चलने वाली पगडंडियाँ)

 

गणेश गनी की कविताओं में स्मृतियों का रंग इतना चटख है कि वो समय की सदियों लम्बी दूरी कुछ ही शब्दों से नाप लेती हैं और और किसी जीवित चरित्र सी , समय-बेसमय अक्सर दहलीज पर आकर खड़ी हो जाती हैं-

'कितने बरस बीत गए 

तुम्हारे पैर छुए और फिर 

गले लगा अपने दुख आंखों से बहा आया 

आंख खुली तो देखा अभी भोर का तारा 

पहरेदारी में जाग रहा है 

जबकि तुम्हारा इंतजार अभी बैठा है ठीक उसी जगह दहलीज के बाहर पत्थरों की पहली सीढ़ी पर।'

(मैं कहानी सुना रहा हूँ!)

 

लोक की संवेदनशीलता और अपनी जड़ों से जुड़ाव उनकी कविताओं में सर्दियों की गर्म धूप सा चमकता है वे बार-बार अपने गाँव-जवार लौटते हैं और यादों की सीलन भरी जगहों को रोशनी और ऊष्मा से भर देते हैं। स्मृतियों में भटकते हुए ऐसे ही कोमल क्षणों में दूर कहीं खोह में बहुत गहरे दबे चेहरे आँखों के परदों पर किसी चलचित्र की तरह आ खड़े होते हैं-

'जब वो कुछ शब्दों को 

बोल देता है सहज ही 

तो मेरी स्मृतियों खुल जाती हैं 

ऐसे शब्द 

जो पिता कहते थे 

जो मां बोलती थी 

उसके मुंह से सुनता हूं तो 

उफ़्फ़ कहता हूं धीरे से। 

 

ओह!

सोचता हूं वो शब्द कैसे चल कर 

और कब उसकी जुबान पर पहुंचे होंगे!'

(जबकि इंद्रधनुष तो  उसकी  पलकों पे  रहता है!)

 

अपनी जमीन से गहरे जुड़ा कवि साँप-सीढ़ी नहीं खेलता बल्कि पहाड़ी झरनों सी, बारिश की गुनगुनाती बूँदों सी, मिट्टी की सोंधी खुशबू-सी गमकती, फूलों पर मंडराती तितलियों जैसी कविताएं लिखता है और उन्हें आकाश की अलगनी पर टाँगकर पहाड़ों की सरसराती ठंडी हवा में झूलने के लिए छोड़ देता है-

'उसे नहीं मालूम 

कि हवा ने कान खड़े कर रखे हैं 

पंछी अपने पर तो बोल रहे हैं

ऊंची उड़ान भरने से पहले 

सारे बादल जा छिपे पहाड़ के पीछे।

 

आज वह आई है ठानकर

कि अपनी सीटी की आवाज से 

बुलाने पर पल में 

दौड़ी चली आने वाली हवा को 

जाने ही नहीं देगी।'

(हवा को जाने नहीं देगी)

 

गणेश गनी अनुभूतियों की रस्सी पकड़कर स्मृतियों में उतरते हैं और शब्दों के पुल पार करके वर्तमान में लौटते हैं यही उनकी रचना प्रक्रिया है और इसी से उनकी कविताएं जन्म लेती हैं -

'इन सब के बीच बड़ी खबर यह है कि

जोबनू के पास है सुच्चा मणि

वह आज हैरान है 

भरी दोपहर में 

एकदम चापलूस से दिखने वाले लोगों का जमघट 

अपने आंगन में देखकर 

वो दोनों कंधों पर खेश को 

चांदी की सुइयों से टांगे और 

बाएं कंधे की सुई से 

झूलती चाबियों की खनक 

और विरासत संभाले चौकन्नी है।'

(जोबनू)

 

कोई भी सजग रचनाकार अपने समय और समाज से निरपेक्ष नहीं रह सकता। गणेश गनी भी समय की नब्ज पर गहरी नजर रखने वाले रचनाकार हैं। वे वर्तमान राजनीति की लफ्फाज तिकड़मों पर पैनी नजर रखते हैं और उसकी विसंगतियों पर गहरी चोट करते हुए लिखते हैं-

'आप समझते हैं 

कि लाल किले के परकोटे से 

अपने संबोधन में 

मात्र मित्रों कहने भर से 

सद्भावना का हो जाता है संचार 

संपूर्ण पृथ्वी पर 

 

आपके तेज-तेज चलने से ही 

देश का विकास रफ्तार पकड़ लेता है!

 

आप समझते हैं 

कि जहाज के दरवाजे पर खड़े होकर दाहिना हाथ ऊपर उठाकर 

जोर-जोर से हिलाने भर से 

दरिद्रता के बादल छंट जाते हैं।

 

 सरकारी रेडियो स्टेशन से 

आपके मन की बात कर देती है 

सबके मन का बोझ हल्का।'

(आप समझते हैं)

 

आधुनिकता और परम्परा के द्वंद्व में सबसे ज्यादा नुकसान पारिवारिक ढाँचे का हुआ है। इनके  आपसी प्रतिद्वंद्व में संयुक्त परिवार बिखर गए हैं,और एकल परिवारों का चलन बढ़ गया है। अब इन एकल परिवारों में सास-ससुर,दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची जैसे अनेक पारिवारिक रिश्ते हाशिए पर चले गए हैं । इसीलिए बच्चों और बहुओं को जो संस्कार मिलते थे, अब उनका क्षरण हो गया है-

'पुल पर चलने का हुनर 

सास बता रही है नई बहू को 

साथ ही बता रही है 

पुल के रग-रग की कथा 

पुल कहीं झूलने न लगे लग जाए

 इसलिए दबे पाँव चलना है पुल पर और यह भी कि कैसे 

दबे पाँव चलते हैं घर के भीतर।'

(पार की धूप)

 

कविताओं के देय के बारे में अब तक बहुत कुछ लिखा जा चुका है। कविता हमें भौतिक रुप में भले ही कुछ नहीं देती लेकिन हमें मानसिक सुकून और कुछ अच्छा और सच्चा करने की प्रेरणा जरूर देती हैं। वे अपनी एक कविता में कुछ ऐसा ही कहते हैं-

'कविता आकाश से खुलापन देती है उड़ने को पंख देती है 

पंखों में हल्का पन देती है 

अनंत उड़ान देती है कविता।

 

संगीत को शब्द 

आवाज को गीत देती है कविता कल्पना को छलाँग

और आदमी को संवेदना देती है कविता।

 

कविता रोटी नहीं सुकून देती है कविता की चट्टान को जितना तोड़ोगे 

वह उतनी सुंदर दिखेगी 

और फैल जाएगी तुम्हारे पोर-पोर में।'

 (कविता क्या नहीं देती?)

 

पूंजीवाद की नाजायज औलाद बाजारवाद आज पूरे समाज को अपने लुभावने जाल की गिरफ्त में ले चुका है। पूरा समाज उसकी चमक-दमक में उलझ कर रह गया है। बाजार हमारे घरों तक घुस आया है और हमें अपने जाल में बुरी तरह से जकड़ चुका है। बूढ़े, जवान, बच्चे ,सभी पर उसकी नजरें लगी हुई हैं और उससे बचना नामुमकिन सा हो गया है। वह हमें लूटने के लिए रोज नए -नए तरीके खोज रहा है और हमें लूट रहा है और हम लुट रहे हैं, कुछ उसकी मर्जी से कुछ अपनी मर्जी से-

'लूट के तौर-तरीके बदल चुके 

बाजार सेंध लगाकर 

हो चुका है दाखिल घर में 

उसकी नजर पहुंच चुकी है 

बच्चे की गुल्लक तक भी 

अलाव तापता एक बूढ़ा 

बच्चों को सुना रहा है कथा 

राक्षस और देवता की।'

 ( बच्चे की गुल्लक तक)

 

कवि को पता है कि हमारे आसपास जो कुछ भी होता है या हो रहा है, वह अकस्मात नहीं है। उसके पीछे एक सुनियोजित साजिश है जिसे हम अपनी खुली आँखों से नहीं देख पा रहे हैं। ऐसी चीजें देखने में प्रायः नजरअंदाज हो जाया करती हैं। इनका अंदाजा सूँघकर ही लगाया जा सकता है-

'अचानक नहीं हुआ यह सब 

कि कुछ अक्षर फल बांट रहे हैं 

तो कुछ औजार युद्ध के दिनों में

अ बाँट रहा है अनार 

और क सफेद कबूतर 

द बांट रहा है दराटियाँ 

और हां हल और हथौड़े

बस केवल ब के पास नहीं है

बांटने को गेहूं की बालियां 

पर स नया सूरज उगाने की फिराक में है।' 

(यह उत्सव मनाने का समय है)

 

इन दिनों देश मे आतंकवाद, नक्सलवाद से भी बड़ा खतरा बनकर उभरा है अंधराष्ट्रवाद। यह ऐसा समय है कि जो उसकी हाँ में हाँ नहीं मिलाता वह तुरंत ही देशद्रोही हो जाता है। ऐसे लोग किसी भी समय सरेआम किसी अराजक भीड़ का शिकार बन सकते हैं-

'जिन लोगों को अब तक नहीं हुआ था यकीन 

कि अराजकता गणतंत्र की दहलीज तक पहुंची है 

उनकी आंखें फटी और मुंह खुले रह गए 

जब संविधान के पहले पन्ने से न्याय जैसा शब्द 

राजधानी में अदालत के बाहर सड़क पर आ गया।'

(किस्से चलते हैं बिल्ली के पाँव पर)

 

ऐसे अराजकता के पोषक लोग अब बहुत सारे शब्दों में मनचाहे अर्थ भरना चाहते हैं। वे शब्दों के बाजीगर हैं और अपनी बाजीगरी से समाज को अपने पैरों तले रौंदते हुए सत्ता की सीढ़ियाँ चढ़ते चले जा रहे हैं-

'जागृति, संघर्ष आंदोलन 

ऐसे शब्दों को 

किया गया है नजरबंद 

फिर भी डरे नहीं है शब्द

डटे हैं व्यवस्था के खिलाफ 

और भी मुखर हुए हैं ।

 

शब्द कहीं हथियार ना बन जाए इसलिए चाहते हैं 

शब्दों को मार डालना 

या उनकी जुबान काट डालना 

या कम से कम 

शब्दों के अर्थ ही बदल डालना 

चाहते हैं वे।'

 (पहरे)

 

यह साज़िशों का दौर है और इसके पोषकों द्वारा आम आदमी के पक्ष में उठती जिंदा आवाजों को लगातार निशाना बनाया जा रहा है। उनके बनाये गए खाँचे में फिट न होने वाले लोगों पर निगरानी जारी है और हवा में चारों तरफ एक डर सा पसरा है-

'एक साजिश रची जा रही है निरंतर 

डर के मारे लोग भाग रहे हैं 

घर छोड़ कर 

बच्चे डरे हुए घर लौट रहे हैं भविष्यवाणी करने वाले 

स्टूडियो में बैठे इंटरव्यू दे रहे हैं 

जो रोकना चाहता है वह मारा जाता है।'  

(पृथ्वी का लोकनृत्य)

 

पूंजीवाद और बाजारवाद की सीढ़ियों से चढ़कर सत्ता के शिखर तक पहुंचा एक आदमी उसी की पैरवी में दिन रात लगा हुआ है। सैकड़ों किसान रोज आत्महत्या कर रहें हैं, अपना गाँव-घर छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं लेकिन उसे आम आदमी के सुख-दुख, जीवन-मरण से कोई मतलब नहीं है। वह सपने बेचने में व्यस्त और मस्त है-

'संविधान की कुर्सी पर बैठा 

एक आदमी ईमान बेच रहा है 

एक आदमी धर्म बेच रहा है 

एक आदमी पृथ्वी के टुकड़ों में बेच रहा है 

 

अपने खेत की मेड पर बैठा 

एक आदमी अपने खेत बेचने की सोच रहा है 

एक आदमी कर्ज चुकाने के वास्ते 

अपने प्राणों की सौदेबाजी कर रहा है।

 

उधर इंडिया गेट पर बैठा 

एक आदमी बीच कुछ नहीं रहा 

पर खरीदने की फिराक में है।'

(एक आदमी जश्न मना रहा है) 

 

आज भले ही आदमी चांद तक क्यों ना पहुंच गया हो लेकिन उसके घर की दीवारें सिकुड़ती जा रही हैं। एक ही छत के नीचे रहने वाले हो सदस्यों के बीच संवादहीनता बढ़ती जा रही है और आदमी दिन-प्रतिदिन अकेला होता जा रहा है। बूढ़े-बुजुर्गों की बातें सुनने वाला कोई भी नहीं। सब अपने आप में व्यस्त हैं। इसी आपाधापी और व्यस्तता की  जकड़न में हमारे रिश्तों की उष्मा नष्ट होती जा रही है-

'यह सच नहीं है 

कि अब सच्ची बातें कहने वाले नहीं मिलते 

पर यह भी तो सच है 

कि आप सच्ची बातें रहने वाले नहीं मिलते 

इसी कहने और सहने के बीच 

घुटा रहता है कुछ कुछ अनकहा।'

(जब काँधे पर हवा बैठकर कहे)

 

स्त्रियों के बारे में आज भी हमारे समाज में तरह-तरह की बातें की जाती हैं और कहा जाता है कि महिलाओं की स्थिति पहले से बहुत बेहतर हुई है इसमें आंशिक सच्चाई है आज भले ही हम किस वी सदी में जी रहे हो लेकिन हमारी आधी आबादी में अपेक्षित बदलाव नहीं आ पाया है जो आना चाहिए था उनको जो हक आजादी मिलनी चाहिए अभी तक नहीं मिल पाई है-

'क्या आज सूरज चढ़ने तक घर की महिला सोई? 

जैसे आप सोते हैं पुरुष।

क्या आज पौ फटने से पहले आप जागे? 

जैसे जागती है वह महिला।

........................

 

कुछ नहीं बदला 

महिला अभी-अभी 

समेट कर सारे काम 

किचन में रेगुलेटर को सुरक्षा पर घुमाकर 

बच्चे की स्कूल डायरी चेक कर रही है घड़ी में दस बजे हैं 

और बेटे को होमवर्क करा रही है।'

(विश्व महिला दिवस पर समोसा चाय डी सी के साथ...)

 

आज जब देश अंधराष्ट्रवाद के मुहाने पर खड़ा युद्धोन्माद से झूम-इतरा रहा है, तब एक सजग रचनाकार का दायित्व बनता है कि ऐसे अंधों को बताया जाए कि युद्ध हमेशा ही विनाशकारी रहे हैं और जीतता कोई नहीं, सिर्फ मानवता हारती है-

'अब युद्ध समाप्त हो रहा है 

हेअश्वत्थामा! 

तुम्हें अमरत्व का वरदान है 

और माथे पर रिश्ते घाव का शाप भी 

तुम्हीं बताओ जरा 

इनमें से जीत किसकी हुई।

जो बच गए 

वे अपनी जान हथेली पे रखे 

सोच रहे हैं 

और गिनने की कोशिश कर रहे हैं 

कि अनचाहे युद्ध के दो पाटों के बीच कितनी सांसे पिस गईं।'

(कितनी साँसे पिस गईं)

 

गणेश गनी की कविताओं से गुजरते हुए हम देखते हैं कि वे सिर्फ स्मृतियों और अनुभूतियों को जीने वाले रचनाकार नहीं हैं। उनकी कविताएं वर्तमान राजनीति पर भी तीखे सवाल खड़े करती हैं और सामाजिक तथा पारिवारिक परिवेश में आईं विसंगतियों पर भी कुठाराघात करती हैं। उनकी संवेदनशील तीक्ष्ण नजरें बहुत चौकन्ने ढंग से सब कुछ देखती-समझती हैं और उन पर अपनी तार्किक टिप्पणियों से प्रहार करती हैं। वे अपनी कविताओं के माध्यम से आस्वस्त करते हैं कि भविष्य में वे और भी बेहतरीन कविताओं की रचना करेंगें और साहित्य जगत को और समृद्ध करेंगे।

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शकुन नगर, सिविल लाइंस, 

फतेहपुर (उ.प्र.)

मो0 : 9336463835

 


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