शनिवार, 6 जून 2020

भूमिका

'सपने जिंदा हैं अभी' के द्वितीय संस्करण पर दो शब्द लिखते हुए इसके पहले संस्करण के प्रकाशन के संदर्भ याद आने स्वाभाविक ही हैं। इसके प्रथम संस्करण का प्रकाशन लोकमंगल साहित्य परिषद, फतेहपुर के द्वारा किया गया था, जिसके कर्ताधर्ता राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी के परम शिष्य श्री धनंजय अवस्थी थे।
श्री धनंजय अवस्थी जी ने मेरी डायरी से इन कविताओं का चयन करके, इसका नामकरण किया और इसकी भूमिका प्रसिद्ध आलोचक श्री ओमप्रकाश अवस्थी जी से लिखवाई।
अब याद करता हूँ तो विस्मय होता है कि कोई साहित्यकार एक अनजाने और नवोदित रचनाकार के लिए इतना सह्रदय भी हो सकता है।
श्री धनंजय अवस्थी जी से मिलने की भी एक कहानी है।

तब तक मैं किसी भी साहित्यकार से साक्षात नहीं मिला था। न ही किसी साहित्यकार को जानता था। एक दिन मैं एक स्थानीय हिंदी दैनिक अखबार की रविवासरीय परिशिष्ट में प्रकाशित करवाने के लिए कुछ कविताएं देने गया था। वहीं कार्यालय में बैठे एक सज्जन ने जब मेरी कविताएं देखीं तो उन्होंने सहज ही पूछ लिया । अच्छा तो तुम भी कविताएं लिखते हो?

बातों-बातों में उन्होंने जनपद के वरिष्ठ साहित्यकार धनंजय अवस्थी का नाम लिया। उन्होंने धनंजय अवस्थी जी के प्रसिद्ध खंडकाव्य 'शबरी' का ज़िक्र किया।  उन दिनो 'शबरी' खंडकाव्य कानपुर विश्वविद्यालय (वर्तमान में छत्रपति शाहू जी महाराज, कानपुर) में हिंदी के स्नातक द्वितीय वर्ष के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती थी। मैने उन सज्जन से धनंजय जी का पता लिया और अगली सुबह ही किसी साहित्यकार से प्रथम बार साक्षात मिलने के रोमांच से प्रफुल्लित, अगली सुबह ही उनके घर जा पहुंचा।

वह सर्दियों की कोई (फरवरी 1997 के किसी दिन की) कोई गुनगुनी सुबह थी जब मैं श्री धनंजय अवस्थी जी का पता पूछते-पूछते उनके घर जा पहुँचा था। घर के सामने एक सज्जन मीठी धूप सेंकते हुए अखबार में तल्लीन थे। मैं उनके पास गया और प्रणाम करते हुए पूछा -' क्या श्री धनंजय अवस्थी जी का घर यही है?
वे महाशय अखबार एक तरफ रखते हुए मुझे पास रखी दूसरी कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए बोले- कहिए, क्या काम है?
यह कहते हुए उनके चेहरे पर मधुर मुस्कान तैर रही थी।
 मैंने कुछ सकुचाते हुए कहा- 'उनसे मिलना है।'
'मैं ही धनंजय अवस्थी हूँ'- वे उसी मधुर मुस्कान के साथ बोले।
मैंने लपककर उनके पैर छुए और कुर्सी खींचकर उनके पास बैठ गया। मैं पहली बार किसी साहित्यकार की सामने देखकर इतना रोमांचित था कि यह समझ नहीं पा रहा था कि क्या बातें करूँ?

मेरी उलझन देखकर उन्होंने ही बातचीत शुरू की। सबसे पहले मेरा नाम पूछा। मैंने अपना नाम बताते हुए जब उनसे अपनी रचना कर्म के बारे में बताया तो बहुत खुश हुए और मुझे अपनी रचनाएं दिखाने को कहा। मैं अपने साथ अपनी कुछ कविताएं, गीत और लघुकथाएँ और अखबारों में प्रकाशित अपनी रचनाओं की कटिंग लेकर गया था।जिन्हें डरते -डरते हैं उनको दिखाया।

श्री अवस्थी जी ने चार -पांच कविताएं और गीत बड़े ध्यान से पढ़ने के पश्चात उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई और रचनाओं की सराहना की। कुछ संशोधन करने के सुझाव भी दिए। काफी देर तक वे मुझे रचनाधर्मिता के बारे में बताते रहे । इस दौरान मैं साँसें थामे उनकी बातें सुनता रहा। चलते समय उन्होंने अपना बहुचर्चित खंडकाव्य 'शबरी' की एक प्रति मुझे अपने हस्ताक्षर करके भेंट की, जो मेरे लिए सबसे अमूल्य भेंट बन गई।

उस पहली मुलाकात में ही श्री अवस्थी जी ने मुझ जैसे अनजान और नए रचनाकार से जितना आत्मीय व्यवहार किया, आगे मिलते रहने के लिए कहा। उनके द्वारा किया गया प्रोत्साहन और लिखते रहने की प्रेरणा देने वाले शब्द मेरे रचनाकार के लिए संजीवनी बन गए।

फिर उनसे मिलने-जुलने का सिलसिला बढ़ता गया। वे मुझे विभिन्न साहित्यिक समारोहों में अपने साथ ले जाते, वरिष्ठ साहित्यकारों से मिलवाते और कविता पाठ करने के अवसर देते। इसके बाद फिर लगभग मेरी हर रचना उनकी नजरों से गुजरती। वे मुझे अपनी कविताओं को विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भेजने के लिए कहते और अपने घर आने वाली पत्रिकाओं को पढ़ने के लिए देते।

अब मेरी कई कविताएं कादम्बिनी, नवनीत, आर्यावर्त जैसी पत्रिकाओं और स्थानीय अखबारों में प्रकाशित हो चुकी थी। अब श्री अवस्थी जी प्रायः कहते कि अब तुम्हारी कविताओं का संग्रह आना चाहिए।वे कहते- लोकमंगल साहित्य परिषद, तुम्हारी कविताओं के संग्रह को छापेगा । मैं संकोच में था और लगातार इसको टाल रहा था। एक दिन उन्होंने आदेशात्मक मुद्रा में कहा, तुम अपनी डायरी मुझे दे जाओ, कविताओं का चयन मैं खुद करूँगा। अब मैं क्या करता, अपनी डायरी उनके सुपुर्द कर दी। बीच-बीच मे कविताओं पर चर्चा-परिचर्चा होती रही। संग्रह का नाम तय हो गया-  'सपने जिंदा हैं अभी'।

लगभग दो महीने बाद उन्होंने मुझे इसकी टाइप की हुई एक प्रति दी और कहा कि इसको ठीक से पढ़ लो, गलतियों को लाल पेन से सही करके लिख दो । पन्द्रह दिन बाद इसे छपने के लिए प्रेस में देना है। 

गुरुवार, 4 जून 2020

मैं क्यों लिखता हूँ

मैं क्यों लिखता हूँ
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                   * प्रेम नंदन 


‘To make people free is the aim of art, therefore art for me is the science of freedom.’
-Joseph Beuys (1921-1986)

(one of the most influential sculptors and performance artists of the 20th century) 

मैं क्यों लिखता हूँ? यह एक ऐसा सवाल है जिससे प्रत्येक रचनाकार को कभी न कभी दो-चार होना ही पड़ता है। कभी दूसरे यह सवाल पूछते हैं तो कभी रचनाकार स्वयं से यह सवाल पूछने पर मजबूर होता है। देखने में बहुत सरल लगने वाले इस सवाल का उत्तर देना हर रचनाकार के लिए हमेशा ही मुश्किल रहा है।

मैं अपने लेखन की बात करूं तो जब मैं लिखने के कारणों की ओर झाँकने का प्रयास करता हूँ तो कई प्रश्न एक साथ सामने आ खड़े होते हैं- आखिरकार मैंने लिखना कैसे और क्यों शुरू किया?
साहित्य का मेरे घर-परिवार से दूर-दूर तक कहीं कोई रिश्ता नहीं था तो फिर मुझमें लेखन के संस्कार कहाँ से आए? 

बचपन के गलियारों में लौटने पर कई चीजें स्पष्ट हो जाती हैं, बातें शुरूआत की ओर पहुँच जाती हैं।
लिखने के शुरुआती बीज मेरे मष्तिष्क में शायद अम्मा की लोरियों ने बोए होंगे, कविता के प्रति लगाव शायद अम्मा के गाने-गुनगुनाने की आदत से पैदा हुआ होगा। अम्मा के पास लोकगीतों और कहानियों का अकूत भंडार है। 

उन दिनों अम्मा गांव और रिश्तेदारी में एक अच्छी गउनहर के रूप में प्रसिद्ध थी और विभिन्न तीज-त्योहारों और शादी-ब्याह के अवसरों पर लोग उनको इसी गुण के कारण विशेष रूप से आमंत्रित करते थे।

अम्मा अब भी हमेशा कुछ ना कुछ गाती-गुनगुनाती रहती हैं। बचपन में मुझको नींद तभी आती थी जब अम्मा मीठे स्वर में लोरियां सुनाती थी और सुबह उनकी गुनगुनाने की आवाज सुनकर ही आंखें खुलती थीं। दरअसल अम्मा हमारे सोने के बाद ही सोती थी और हमारे जागने के पहले जाग जाती थी और वे घरेलू कार्य करते समय भी प्रायः गाते-गुनगुनाते हुए ही करती थीं, अब भी उनकी यही दिनचर्या है। यह उस समय की लगभग सभी घरेलू महिलाओं की नियमित दिनचर्या होती थी।

अम्मा की लोरियों के पंखों पर सवार होकर जब मैं स्कूल गया तो वहां भी मेरा परिचय सबसे पहले कविता यानी स्कूल में गाई जाने वाली प्रार्थना से  हुआ। हिंदी की किताब में पहला पाठ भी कविता ही था। अम्मा से मिले संस्कारों के कारण बचपन में कविताएँ मुझे शीघ्र ही याद हो जाया करती थीं शायद यही कारण रहा है कि मुझे अपनी किताब की सभी कविताएं याद रहती थीं और मैं उन्हें अक्सर गुनगुनाया करता था।

इसी दौरान जिंदगी में पहले प्यार के रूप में रेडियो का प्रवेश हुआ। उस समय घर में दो रेडियो थे, एक बुश का बड़ा रेडियो, लकड़ी की बॉडी वाला, दूसरा बुश की अपेक्षाकृत छोटा रेडियो- मर्फी का प्लास्टिक बॉडी में। धीरे-धीरे मर्फी वाला रेडियो मेरा सबसे प्यारा और गहरा दोस्त बन गया।अम्मा के गीतों के साथ-साथ, रेडियो पर फिल्मी गाने, लोकगीत, गजलें सुनते हुए मैं बड़ा हुआ। रेडियो से बचपन की ये दोस्ती हाल फिलहाल तक बनी रही।  मेरे बनने-बिगड़ने में रेडियो का भी बहुत बड़ा योगदान है। 


इस तरह गीतों और कविताओं के प्रति मैं बचपन से ही लगाव महसूस करता था लेकिन कविता या और कुछ लिखने के बारे में तो मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था।

स्कूली शिक्षा खत्म करने के बाद जब मैं आगे की पढ़ाई के लिए शहर आया तो जहाँ मैं किराए पर रहता था उससे कुछ दूरी पर एक राजकीय पुस्तकालय और राजकीय छात्रवास अगल-बगल स्थित थे। मेरे कई सीनियर और परिचित साथी राजकीय छात्रवास में रहते थे और अखबार, पत्रिकाएं पढ़ने के लिए रोजाना राजकीय पुस्तकालय जाते थे । मैं भी उन्ही के साथ पहले तो प्रायः रविवार और फिर नियमित रूप से लाइब्रेरी जाने लगा था लगा। वहाँ पर कई अखबार, प्रतियोगी पत्रिकायें, साहित्यिक पत्रिकाएं आती थीं। वहीं पहली बार अखबारों और पत्रिकाओं से दोस्ती हुई। उस समय 'संपादक ने नाम पत्र' जैसे कॉलम लगभग सभी अखबारों में होते थे। 

विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों कर रहे कई सीनियर साथी संपादक के नाम पत्र लिखते थे और जब वे अखबारों में प्रकाशित होते थे तो बड़े गर्व से हम सबको दिखाते थे कि देखो-मेरा लिखा हुआ अखबार में छपा हैं। उस समय यह देखना काफी रोमांचक अनुभव हुआ करता था। तो इसी की देखा-देखी मैंने भी एक दिन एक पोस्टकार्ड पर विभिन्न सब्जियों की खेतीबाड़ी में प्रयोग होने वाले कीटनाशक दवाओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों को लेकर एक पोस्टकार्ड में कुछ लिखा और उसे पोस्टबॉक्स में डाल आया और फिर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गया। लगभग एक हफ्ते बाद वह पत्र कानपुर महानगर से प्रकाशित होने वाले एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक अखबार के 'संपादक के नाम पत्र' वाले कॉलम में अपने लिखे शब्दों को छपा हुआ देखकर सचमुच आँखों में आँसू आ गए थे। उस घटना के बाद पत्र लिखने का एक सिलसिला ही चल पड़ा। साथियों के साथ खूब पत्र लिखे जाते, कुछ छपते, कुछ न छपते, लेकिन अब इस बात की परवाह न करते हुए जब भी समय मिलता, खूब पोस्टकार्ड लिखे जाते, पोस्ट किए जाते।

हम जिस राजकीय पुस्कालय में पढ़ने जाते थे, शहर में मेरे जैसे तमाम गँवई लड़कों के लिए एकमात्र अड्डा था। यह पुस्कालय जिला विद्यालय निरीक्षक के आधीन था । वहाँ पर सिर्फ एक लाइब्रेरियन और एक चपरासी नियुक्त था। दोनों बहुत मक्कार थे। समय से लाइब्रेरी न खोलना, जल्दी बन्द कर देना , मेम्बरशिप लेने के बावजूद किताबें इश्यू करने में आनाकानी करना, विभिन्न मासिक पत्रिकाओं को पहले अपने घर ले जाना फिर हफ़्ते दो हफ्ते बाद लाइब्रेरी लाना जैसी अनेक करतूतों से  से हम सभी पढ़ने वाले छात्र परेशान रहते थे। हम लोग आए दिन लाइब्रेरियन और चपरासी की शिकायत जिला विद्यालय निरीक्षक से करते, लेकिन उनकी आदतें सुधरने का नाम ही नहीं ले रहीं थी। इन सबसे परेशान होकर हम लोगों ने लाइब्रेरी की समस्याओं और लाइब्रेरियन और चपरासी की शिकायत के रूप में कई पोस्टकार्ड विभिन्न स्थानीय और राष्ट्रीय अखबारों को भेजे। इन शिकायती पत्रों को कई अखबारों ने प्रकाशित किया। जिनमें से कई साथियों के पत्रों के साथ मेरा लिखा शिकायती पत्र भी प्रकाशित हुआ। कुछ स्थानीय अखबारों ने इसे खबर के रूप में छापा। अखबारों में प्रकाशित होने के कारण यह एक बड़ा मुद्दा बन गया, जिसकी आँच जिला विद्यालय निरीक्षक तक पहुँची। उन्होंने इन खबरों को संज्ञान में लेते हुए एक दिन छात्रों के हमारे ग्रुप को अपने ऑफिस में बातचीत के लिए बुलाया। वहाँ पर उन्होंने बड़े ध्यानपूर्वक हमारी शिकायतें सुनी और लाइब्रेरियन व चपरासी को फटकार लगाते हुए आइंदा से नियमानुसार कार्य करने की चेतावनी दी।

जिला विद्यालय निरीक्षक महोदय ने हम लोगो से उन पत्रिकाओं और अखबारों की सूची मांगी, जो हम लोग पढ़ना चाहते थे, लेकिन लाइब्रेरी में नहीं आते थे। उन्होंने उन पत्रिकाओं, अखबारों की लाइब्रेरी भिजवाने की व्यवस्था की। जिसके बाद लाइब्रेरी की व्यवस्था में काफी सुधार हुआ।

इस घटना के बाद पहली बार मुझे शब्दों की ताकत का एहसास हुआ और उसी क्षण मैंने शब्दों से दोस्ती कर ली। अखबारों और प्रतियोगी पत्रिकाओं और साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़ाव और गहरा हुआ। 

इसी दौरान किसी पत्रिका या किताब में (ठीक से याद नहीं आ रहा) जब मैंने अज्ञेय की 'छंदमुक्त' कविता 'हिरोशिमा' पहली बार पढ़ी तो अचानक ही दिमाग में यह विचार बिजली की तरह कौंधा कि इस तरह की कविता तो मैं भी लिख सकता हूँ। एक यह महज एक विचार ही था। मैं उस क्षण एक पंक्ति भी नहीं लिख सका।

इसके दो-तीन महीने बाद ही, जहाँ मैं रहता था , वहीं पड़ोस में एक दुर्घटना घट गई, एक नवब्याहता को जिंदा जला दिया गया। इस दुर्घटना ने मुझे झकझोर कर रख दिया और मेरे दिमाग को बहुत उद्देलित और बेचैन किया। यह बेचैनी कई दिनों तक दिमाग को मथती रही। अन्ततः एक दिन इस बेचैनी से मुक्ति पाने के लिए इसे शब्दों में ढालने के प्रयास में डायरी और पेन लेकर लिखने बैठ गया। उस दिमाग मे पहले से पढ़ी हुई अज्ञेय की कविता 'हिरोशिमा' पूरी तरह हावी थी और उसी से प्रेरित होकर कागज पर एक कविता जैसा कुछ लिख डाला। यह मेरी पहली साहित्यिक रचना थी। कविता का शीर्षक रखा - 'अतृप्त इच्छाओं की वेदी'। 

संयोग से वह कविता एक स्थानीय साप्ताहिक पत्र में छप भी गई। इससे उत्साहित होकर  कुछ और कविताएँ, गीत और लघुकथाएँ लिखीं जो विभिन्न स्थानीय साप्ताहिक पत्रों और दैनिक अखबारों की रविवासरीय परिशिष्ट में छपीं। इस तरह लेखन का सिलसिला शुरू हुआ।

जब स्थानीय साप्ताहिक और दैनिक अखबारों में कुछ कविताएं, गीत लघुकथाएँ प्रकाशित हुईं तो पत्रकारिता करने का भूत सवार हुआ। इसी क्रम में अपने शहर के विभिन्न स्थानीय और राष्ट्रीय अखबारों के ऑफिसों के चक्कर शुरू हुए और इसी दौरान पढ़ाई के साथ-साथ एक स्थानीय हिंदी दैनिक अखबार में विधिवत पत्रकारिता की शुरुआत हुई और कविता, गीत, लघुकथा के साथ-साथ  विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर लेख लिखने लगा।

लेखन के इन विभिन्न चरणों से गुजरते हुए आज भी जब इस सवाल का सामना होता है तो कोई सटीक जवाब नहीं सूझता है। फिर भी कभी दूसरों को तो कभी खुद को जवाब देना ही पड़ता है।

मेरे पास लिखने का कोई एक निश्चित कारण नहीं है बल्कि बहुत सारे कारणों का एक समुच्चय है, जिनके लिए लिखना पड़ता है। कभी संपादकों और मित्रों के आग्रह पर भी लिखना पड़ता है तो कभी किसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए भी लिखना पड़ता है। अखबारी लेखन पैसों के लिए करना पड़ता है।

इस तरह लिखने का एक अन्य प्रमुख कारण अन्याय, झूठ, पाखण्ड, अंधविश्वास, हिंसा, नफरत, साम्प्रदायिकता, सामाजिक असमानता से उत्पन्न बेचैनी, घुटन और संत्रास को अभिव्यक्ति देने और इनसे मुक्ति पाने की छटपटाहट ही है। 

मेरे लिखने का एक और कारण मानवता के प्रति एक समर्पित पक्षधरता है। मैं 'जो जैसा है' से संतुष्ट नहीं होता बल्कि वर्तमान में 'कैसा होना चाहिए' इसके लिए शब्दों की कुदाल से समय की जड़ता को तोड़ने का प्रयास करता रहता हूँ। मैं इसलिए लिखता हूँ कि मेरे लिखे शब्द किसी की आवाज बन सकें। किसी को सांत्वना दे सकें। किसी को उसके डरावने वर्तमान और अंधेरे भविष्य से मुक्ति दिला सकें।

ग्रामीण परिवेश में जन्मा, पला-बढ़ा होने के कारण और  ग्रामीण अंचल में ही कार्यरत होने के कारण मैं लोगों के सुख-दुख, संघर्ष, जिजीविषा, घुटन.. मेरी रचनाओं में अनायास ही आते रहते हैं। 
मानव-जीवन की, उसके परिवेश की जड़ता को तोड़कर कष्टमय वर्तमान और अनिश्चित भविष्य की राह को आसान बनाने की इच्छा ही मेरे लेखन का मूल उद्देश्य है।

प्रसिद्ध साहित्यकार कमलेश्वर ने भी कहा था कि लेखन में ही मुक्ति है। कला का हर रूप यही चाहता है। लिखना भी एक कला है और लेखन का उद्देश्य भी मुक्ति की कामना ही है। इसलिए जब अन्याय, झूठ, पाखण्ड, अंधविश्वास, हिंसा, नफरत, साम्प्रदायिकता, सामाजिक असमानता से उत्पन्न स्थितियां मानव जीवन को 
दुखी करती हैं, झकझोरती हैं तो इन सबसे मुक्ति के लिए उन अनुभूतियों को शब्दों में ढालकर, उन संवेदनाओं को दूसरे लोगों तक, ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाने के लिए लिखता हूँ। क्योंकि बोलकर, भाषण देकर अपनी बातों को लोगों तक संप्रेषित करने के विकल्प सीमित हैं, और इसमें एक तरह का संकोच भी आड़े आ जाता है, इसलिए लिखकर अपनी बातें लोगों तक संप्रेषित करना ज्यादा बेहतरीन विकल्प है, और मैं इसीलिए लिखता हूँ।

* प्रेम नंदन
शकुन नगर, सिविल लाइंस
फतेहपुर (उ0प्र0)
मो0 : 09336453835
ईमेल : premnandanftp@gmail.com

चितकबरे फ्रेम के धूसर चित्र

चितकबरे फ्रेम के धूसर चित्र (कहानी)
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मैंने उन्हें जब भी देखा, वे हमेशा धूसर रंग के मटमैले और चितकबरे फ्रेम में किसी उदास और रंगहीन चित्र की तरह जड़वत नजर आए!

वे यानी मेरे पिताजी के बचपन के दोस्त। लंगोटिया यार और पड़ोसी । गाँव के प्राथमिक विद्यालय में पांचवीं कक्षा तक एक साथ पढ़ने वाले पिताजी के सहपाठी। मेरे सबसे अच्छे दोस्त गुड्डू के पिताजी। यानी सुमेर बाबू।

वे अपने गाँव महीने में एक-आध बार ही आते और जब भी आते तो दो-तीन दिन की छुट्टियां लेकर आते। सुमेर बाबू को देखते ही मेरे पिताजी की आँखें खुशी से चमकने लगती थीं और चेहरे पर उल्लास छलकने लगता था। वे जब तक गांव में रहते उनका अधिकांश समय मेरे पिताजी के साथ ही बीतता। सुमेर बाबू, पिताजी से उम्र में दो-तीन साल छोटे थे लेकिन दोनों में खूब छनती थी। वे दोनों घण्टों न जाने क्या बतियाया करते थे। उनका इस तरह घण्टों बतियाना हमारे लिए बड़े कौतूहल का विषय हुआ करता था। बात-बात में उठने वाले पिताजी के ठहाकों के बीच कभी-कभी सुमेर बाबू की हल्की सी मुस्कुरहट ही देखने को मिलती। मैंने कभी भी उनको खुलकर हँसते हुए नहीं देखा। मेरे पिताजी बीड़ी पीते थे और सुमेर बाबू खैनी खाते थे। जब दोनों साथ होते तो वे इनकी अदला-बदली करके अपने नशे के स्वाद बदल लिया करते थे।

उनकी दोस्ती की तरह हमारी यानी मेरी और गुड्डू की दोस्ती भी भी पूरे गांव में मशहूर थी। लोग अक्सर कहते कि ये दोनों बिलकुल अपने बापों पर गए हैं। बापों की पुस्तैनी दोस्ती बेटों के सर चढ़कर बोल रही है।

सुमेर बाबू गाँव से लगभग सत्तर किलोमीटर दूर अपने जिला मुख्यालय के एक सरकारी दफ्तर में चपरासी थे। वे वहाँ ऑफिस परिसर में बने सरकारी क्वार्टर में अकेले ही रहते थे। शहर जाने के लिए उन्हें पहले सात-आठ किलोमीटर दूर एक छोटे से कस्बे तक जाना पड़ता था। वहां जाने के लिए कोई साधन नही था। अक्सर पिताजी उनको अपनी साइकिल पर बैठाकर वहां तक छोड़ दिया करते थे।

फिर वहाँ से शहर के लिए बस पकड़नी पड़ती थी। बस उन्हें एक बड़े कस्बे तक पहुँचाती थी। फिर वे वहां के रेलवे स्टेशन पर रूकने वाली, शाम के चार बजे आने वाली एकमात्र पैसेंजर रेलगाड़ी से अपने जिला मुख्यालय पहुँचते थे। 

इस तरह उन्हें गाँव से अपने दफ्तर तक पहुंचने में पूरा एक दिन लग जाता था। यदि गांव से वे सुबह सात बजे निकल लेते तो अपने क्वार्टर पर शाम सात बजे के पहले न पहुँच पाते। कभी कभी तो इससे भी ज्यादा देर हो जाती।

सुमेर बाबू जब घर आते तो उनके घर में खुशियों के बजाय कलह का माहौल बन जाता। इन दिनों गुड्डू मेरे घर पर ही अधिकांशतः समय बिताने की कोशिश करता। मुझे ये बात बिलकुल समझ में नहीं आती थी कि आखिरकार ऐसा क्यों होता है? गुड्डू को तो खुशी होनी चाहिए कि उसके बाबू घर आए हैं लेकिन इन दिनों वह कुछ ज्यादा ही उदास हो जाता था। वैसे उदासी उसके चेहरे का स्थायी भाव थी। वह कभी कभार ही खुश दिखाई देता। मैं उसका सबसे अच्छा और इकलौता दोस्त था, इसके बावजूद भी वह अपने बारे में, अपनी माँ और घर के हालात के बारे में कभी कोई बात नहीं करता था। मेरे बहुत पूछने के बाद भी कभी कुछ नहीं बताता था। बहुत कुरेदने पर वह ऐसे जड़वत हो जाता था जैसे चितकबरे फ्रेम में जड़ा हुआ कोई धूसर चित्र हो। अब मैं भी उससे इस बारे में बातचीत नहीं करता था।

गुड्डू के घर में रोज-रोज होने वाली कलह का कारण मुझे बहुत बाद में पता चला। दरअसल बात यह थी कि गुड्डू के पिताजी ने दो शादियाँ कर रखी थीं। पारिवारिक कलह का कारण दोनों पत्नियों का आपसी मनमुटाव था, जिसके बीज तभी पड़ गए थे जब सुमेर बाबू ने अपनी विवाहिता पत्नी और एक बच्चा होने के बावजूद भी अपनी सगी भौजाई से शादी कर ली थी।

इस दूसरी शादी के पीछे भी एक कहानी है। सुमेर बाबू के बड़े भाई राम बाबू, जो उनसे दो-तीन साल ही बड़े थे, एक बार वे बीमार पड़े तो फिर बहुत इलाज के बाद भी ठीक नहीं हुए और एक दिन चल बसे। दो-तीन साल पहले ही उनकी शादी हुई थी। उनकी पत्नी रन्नो भरी जवानी में विधवा हो गई। अब एक विधवा, अकेली औरत कहाँ जाए? घर की इज्ज़त का वास्ता देकर गुड्डू के बाबा-दादी ने, सुमेर बाबू की पत्नी के घोर विरोध के बाद भी, भौजाई के साथ दूसरा विवाह करवा दिया। बाबा-दादी का तर्क था कि इससे घर की इज्ज़त भी बच जाएगी और सुमेर बाबू को कोई दिक्कत भी नहीं होगी। एक पत्नी उनके साथ शहर में रहेगी और दूसरी गाँव मे खेती-बाड़ी की देखभाल करेगी।

सुमेर बाबू की पहली पत्नी कमला ने इस विवाह का खूब विरोध किया, रोई -गिड़गिड़ाई, सुमेर बाबू के पैरों में अपने दुधमुँहे बच्चे को रखकर मिन्नतें कीं, लेकिन उनपर इस सबका कोई असर नहीं पड़ा। अपने पति, सास-ससुर और जेठानी की चौकड़ी के आगे कमला की  एक न चली। अंततः सुमेर बाबू ने अपनी भौजाई रन्नो को दूसरी पत्नी बना लिया।

इसके विरोध में कमला अपने सात महीने के दुधमुँहे बच्चे को आँचल में लपेटकर मायके चली गई । मायके में माँ-बाप तो थे नहीं जो उसका साथ देते। एक भाई था, वो भी किसी तरह मजदूरी करके अपने परिवार का पेट पालता था। कमला का मायके में भी ठिकाना न लगा। पहले तो कुछ दिन तक सब कुछ ठीक-ठाक रहा। फिर भाई-भौजाई में कमला को लेकर तकरार होने लगी। कुछ दिन तो कमला ने यह सब सहा लेकिन जब जब बर्दास्त न हुआ तो एक दिन वह भारी मन से अपनी ससुराल वापस चली आई।

 जब कमला ससुराल आई तो वहां का माहौल पूरी तरह से बदल चुका था। उस समय सुमेर बाबू अपने दफ़्तर गए हुए थे। उसके सास-ससुर  और रन्नो ने उसे घर मे नहीं घुसने दिया। उसके सास-ससुर उसके मायके चले जाने से बेहद नाराज थे। कमला रोती-गिड़गिड़ाती रही, किन्तु उसकी सुनने वाला कोई न था। कमला अपने बच्चे को गोद में लिए घर के बगल में, जानवरों को बांधने के लिए बनी कच्ची कोठरी के छप्पर के नीचे दो-तीन दिनों तक भूखी-प्यासी पड़ी रही।

दो-तीन दिन बाद किसी तरह ये खबर सुमेर बाबू तक पहुंची तो वे शहर से गांव आये तो इच्छा के बावजूद भी उनके माँ-बाप और रन्नो ने कमला को घर में रखने से पूरी तरह से मना कर दिया।

सुमेर बाबू बड़ी दुविधा में फँसे हुए थे। एक तरफ माँ-बाप और दूसरी पत्नी की जिद और दूसरी तरफ पहली पत्नी और उसके बच्चे का भविष्य।
 वे दो पाटों के बीच में बुरी तरह उलझ गए थे। 
कमला के बहुत रोने-गिड़गिड़ाने और बच्चे की दुहाई देने से वे कुछ विचलित दिख रहे थे।

मेरे पिताजी और अन्य पड़ोसियों के समझाने पर सुमेर बाबू के माँ-बाप तो कमला को घर में रखने को तैयार हो गए। लेकिन रन्नो जिद्द पर अड़ गई।
वह कमला को घर में रखने पर जान देने की धमकियां देने लगी।

अंततः बीच का रास्ता निकाला गया कि दोनों अलग-अलग घर में रहेंगी। तब जाकर मामला शांत हुआ। कमला को वही जानवरों को बांधने वाली वही कच्ची कोठरी रहने को दे दी गई, जिसके बाहर दो-तीन दिनों से कमला अपने बच्चे के साथ भूखी-प्यासी पड़ी रही थी। जीवन यापन के लिए बीघे-डेढ़ बीघे का एक खेत भी दे दिया।
कमला करती भी क्या, उसके पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था। उसने कलेजे पर पत्थर रखकर रोते-बिलखते हुए इसे नियति का खेल मान लिया और मेहनत-मजदूरी करके किसी तरह अपना और अपने बच्चे का पेट पालने लगी।

इसके बाद सुमेर बाबू जब भी शहर से गांव आते अपनी दूसरी पत्नी रन्नो के साथ ही अपने पुराने घर में रहते। इस बीच दूसरी पत्नी से दो बच्चे भी हो गए। वे कमला और गुड्डू की तरफ बिलकुल भी ध्यान न देते। कमला जब कभी उनसे बात करने की कोशिश करती वे उसे झिड़क देते। गुड्डू उनसे बहुत डरता था। जब कमला गुड्डू से कहती कि जा बाबू आए हैं, जाकर पैलगी कर ले तो गुड्डू उनके पास बिलकुल न जाता।

रन्नो को गुड्डू फूटी आंखों नहीं सुहाता था। एक दिन बच्चों की कहासुनी में कमला की गैरमौजूदगी में रन्नो ने गुड्डू पर हँसिए से हमला करके घायल कर दिया। पड़ोसियों ने उसे किसी तरह बचाया था। उस समय कमला खेतों पर काम कर रही थी, जब उसने यह सुना तो फावड़ा लेकर दौड़ी आई थी, उसको देखकर रन्नो अपने घर मे घुसकर दरवाजा बंद कर लिया था।

कमला गुड्डू को सीने से चिपकाए हाथ मे फावड़ा लिए सिंहनी-सी दहाड़ती रही थी। उस दिन रन्नो सामने आ जाती तो कमला उसका खून ही कर देती। चितकबरे फ्रेम में धूसर चित्र -सी जड़ी रहने वाली, हमेशा शांत और अपने काम से काम रखने वाली कमला का पड़ोसियों ने उस दिन एक नया ही रूप देखा था - रौद्र रूप।  अपने बच्चे के लिए किसी से भी टकराने की हिम्मत वाला नारी रूप।

इस घटना ने सुमेर बाबू को खिन्न कर दिया। इसके बाद सुमेर बाबू रन्नो से कुछ कटे-कटे से रहने लगे। अब वे कमला के प्रति थोड़ा प्रेमभाव रखने लगे थे। वे जब भी गाँव आते तो कभी कभार कमला के दरवाजे पर बैठने भी लगे थे, गुड्डू से भी बातचीत भी करते, उसकी पढ़ाई -लिखाई के लिए कुछ पैसे भी दे देते। कभी-कभी खाना भी कमला चाची और गुड्डू के साथ खाते और रात को भी वहीं रुक जाते।

इससे रन्नो और चिढ़ जाती और गाली गलौज करते हुए झगड़ा करने पर उतारू हो जाती। जब भी ऐसा होता, रन्नो आसमान को सर पर उठा लेती, जिस रात सुमेर बाबू कमला के घर रुक जाते, रन्नो सारी रात दोनों को कोसती गरियाती रहती।

ऐसे समय में डर-सहमा, गुड्डू प्रायः मेरे घर आ जाता और रात भर मेरे साथ ही रहता। हम दोनों हमउम्र थे और एक साथ एक ही कक्षा में पढ़ते थे। साथ-साथ स्कूल जाते थे, और साथ ही लौटते, खेलते थे।

गुड्डू पढ़ने में बहुत अच्छा था, मुझे गणित कम समझ आती थी, इसमें वह मेरी मदद करता था।
इस तरह हम दोनों की दोस्ती स्कूल और घर दोनों जगह मशहूर थी। गुड्डू बचपन से ही घर और खेती-बाड़ी के कामों में अपनी अम्मा का हाथ बंटाने लगा था। वह छोटी सी उम्र में ही समझदार हो गया था।

समय अपनी गति से चलता रहा। सुमेर बाबू के बूढ़े माता-पिता भी एक-एक करके चल बसे। सुमेर बाबू भी अब अधेड़ हो चले थे। मैं और गुड्डू स्कूल अब स्कूल जाने लगे थे। अब वे जब भी गाँव आते कमला चाची के घर पर ही ठहरते। 

और जब भी ऐसा होता कलह का बवंडर पूरे परिवार को तहस-नहस करने पर उतारू हो जाता।
रोज-रोज की पारिवारिक कलह से बचने के लिए सुमेर बाबू अब गाँव आने से कतराने लगे थे। वे तीन-तीन, चार-चार महीने तक गाँव न आते।

उन्होंने सारी खेती अपनी दोनों पत्नियों में बाँट दी थी। दो हिस्से रन्नो को और एक हिस्सा कमला को दे दिया था। वे जब आते तो अपनी तनख्वाह भी इसी हिसाब से बांट देते। कमला एक तिहाई हिस्सा पाकर भी कुछ न कहती। लेकिन रन्नो दो तिहाई हिस्सा पाने के बाद भी खुश न रहती। हमेशा ही गाली गलौज करती रहती- लड़ती-झगड़ती रहती।

इस बार सुमेर बाबू सात-आठ महीने बाद गाँव आए तो बिलकुल जीर्ण-शीर्ण हालत में आए। उस समय समय शाम के कोई छः बजे रहे होंगे। मैं और गुड्डू हमारे दरवाजे पर बैठे होमवर्क कर रहे थे।
वे बहुत बीमार दिख रहे थे। बावन-तिरपन की उम्र में ही वे सत्तर बरस के दिखने लगे थे। उनका चेहरा पीला पड़ चुका था, कमर झुकी हुई और आँखें निस्तेज हो गईं थीं। इससे पहले मैंने उन्हें कभी बीमार होते नहीं देखा था।

आते ही वे कमला चाची के दरवाजे पर पड़ी चारपाई पर कटे पेड़ की तरह गिर पड़े। मैं और गुड्डू दोनों दौड़कर उनके पास गए। गुड्डू ने उन्हें पानी दिया और पंखा झलने लगा। उस समय कमला चाची घर पर नहीं थीं, वे खेतों पर काम कर रहीं थी। उन्हें खबर की गई। वे भागते हुए आईं। तब तक मेरे पिताजी भी बाजार से आ गए थे। अपने घर के दरवाजे पर झोला रखकर वे तुरंत ही सुमेर बाबू के पास आ पहुंचे।

पिताजी को देखते ही सुमेर बाबू की आंखों में क्षण भर के लिए एक स्नेहिल चमक उभरी और अगले क्षण ही आँखों की कोरों से ढुलक आए आंसुओं में खो गई। पिताजी की आँखों में भी आँसू भर आए। वे भर्राई आवाज में बोले- 'ये क्या हो गया सुमेर? कुछ नहीं होगा तुम्हें। अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है, जो ऐसी बातें करते हो?  मैं अभी पड़ोस के गाँव वाले डॉक्टर साहब को बुला के लाता हूँ।'
सुमेर बाबू ने पिताजी का हाथ अपने थरथराते हाथों में लेकर भीगी आवाज में कहा- 'मोहन भइया, कुछ नहीं हुआ मुझे, अब समय आ गया है। एक दिन तो सबके साथ यही होना है।'
इतना सुनते ही पिताजी सुमेर बाबू से लिपट गए।

कमला चाची धार-धार रो रहीं थीं और पिताजी से डॉक्टर साहब को बुलाकर लाने को कह रहीं थीं। उधर सुमेर बाबू पिता जी को छोड़ ही नहीं रहे थे।

सुमेर बाबू ने कमला चाची और गुड्डू सिर पर हाथ रखते हुए कहा- 'कमला, कहा-सुना माफ करना।' फिर गुड्डू को गले से लगाते हुए सिर पर हाथ फेरकर ऐसी पश्चात्ताप भरी, भीगी नज़रों से उसे देखा, जैसे माफी मांग रहे हों!

वे जब से आए थे, उन्हें रुक-रुककर खाँसी के दौरे पड़ रहे थे। इस बार उन्हें खाँसी का ऐसा विचित्र दौरा पड़ा जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। दो-तीन मिनट बाद खाँसी बन्द हुई तो वे निढाल हो गए। उनकी आँखें बंद हो गईं। फिर उन्हें एक हिचकी आई और उनका सिर एक तरफ लुढ़ककर ऐसे स्थिर हो गया जैसे वे चितकबरे फ्रेम में जड़े हुए कोई धूसर चित्र हों। 

कमला चाची और गुड्डू, दोनों एक साथ दहाड़ मारकर रो पड़े।
उस समय वहां पर उपस्थित सभी लोगों की आँखें नम हो गईं।
तब तक रन्नो चाची और उनके दोनों बच्चे भी आ चुके थे।
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* प्रेम नंदन
शकुन नगर, सिविल लाइंस,
फतेहपुर, (उ0प्र0)
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कविता

दुनिया की प्रत्येक चीज   संदेह से दूर नहीं मैं और तुम  दोनों भी खड़े हैं संदेह के आखिरी बिंदु पर तुम मुझ देखो संदेहास्पद नजरों से मैं तुम्हें...