बुधवार, 19 मई 2021

राग दरबारी का राग

राग दरबारी का राग
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श्रीलाल शुक्ल का नाम सुनते ही उनकी कालजयी कृति 'राग दरबारी' का राग कानों में बजने लगता है जिसके प्रभाव से मुस्कुराते होंठ टेढ़े-मेढ़े होने लगते हैं मस्तिष्क किसी बंजर भूमि -सा वीरान होकर कराहने लगता है। जिसके आलोक में शिवपालगंज में पूरा भारत  या कहिये पूरे भारत में शिवपालगंज अपनी पूरी सहजता और निर्ममता के साथ झलकने लगता है।

              वैसे तो उनकी अनेक रचनाएँ - अंगद का पांव, बिश्रामपुर का संत आदि  भी शानदार हैं लेकिन अन्य पाठकों की तरह ही मुझे भी सबसे ज्यादा प्रभावित 'राग दरबारी' ने ही किया। यह कहने की बात नहीं है कि उनकी सभी रचनाएँ महत्वपूर्ण हैं लेकिन उनकी कीर्ति पताका फहराने में सर्वाधिक योगदान राग दरबारी का ही है।

             राग दरबारी में उन्होंने कुशल   सर्जक की तरह भारतीय ग्रामीण -अर्ध- ग्रामीण  समाज की परिवेशगत अ-व्यवस्था या कहिये अ-व्यवस्थागत परिवेश की चीरफाड़ जैसी व्यंग्यात्मक और पैनी भाषा में की है ,भारतीय  साहित्य में कोई दूसरा वैसा नहीं कर पाया।
             आज जब भी  अपने  देश की वर्तमान व्यवस्था -अव्यवस्था के खिलाफ जरा -सा सोचने भर लगता हूँ तो  राग दरबारी के प्रिंसिपल साहब न जाने कहाँ से आ धमकते हैं और मुझे रंगनाथ के बगल  में खड़ा करके मुंह  को बिचकाते  हुए व्यंग्य से कहते हैं -तुम गधे हो !
                  तब अक्सर यह लगता है की वास्तव में हम सब गधे हो गए  हैं तभी तो व्यवस्था की अमानवीय अफसरी चक्की में बुरी तरह से पिसते जाने के बावजूद हमारे सुन्न पड़े शरीरों में, और उसके अन्दर कोमा में पड़े दिमाग में जरा-सी भी हरकत नहीं   हो रही है !   
                  ऐसे निराशाजनक माहौल में मुझे श्रीलाल शुक्ल और उनका राग दरबारी बहुत-बहुत याद आ रहे हैं ! और राग दरबारी का राग और जोर-जोर से पूरे  परिवेश में गूजने लगता है !

     ऐसे निराशाजनक माहौल में  श्रीलाल शुक्ल और उनका राग दरबारी बहुत-बहुत याद आ रहे हैं ! और राग दरबारी का राग और जोर-जोर से पूरे  परिवेश में गूजने लगता है ! संविधान  के अनुसार हमारा देश एक प्रजातांत्रिक देश है लेकिन हम सभी अच्छी प्रकार से जानते हैं कि हमारे देश का प्रजातंत्र किस तरह लोगों की जागीर बन गया है । भ्रष्टाचार, अनाचार और परिवारवाद की  सहस्त्रबाहु जकड़न में फंसा लोकतंत्र आठ -आठ आंसू रो रहा है और इसके नियामक कभी संसद तो कभी लोकतंत्र की दुहाई देकर देश में बचे-खुचे लोकतंत्र को भी तार-तार किये दे रहे हैं | और जो थोडे-से लोग इसको बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं ; उन्हें ये लोग अतिवादी और अलोकतान्त्रिक बताकर उलटे उन्हें ही कठघरे में खड़ा कर रहे हैं |
            
               अपने देश में प्रजातंत्र का आधुनिक हाल जानने के लिए राग दरबारी  के  इस अंश को पूर्व पीठिका की तरह माना जा सकता है - 

       "...प्रजातंत्र  उनके  तख़्त के पास जमीन पर पंजों के बल बैठा है | उसने हाथ जोड़ रखे हैं | उसकी शक्ल हलवाहों-जैसी है और अंग्रेजी तो अंग्रेजी , वह  शुद्ध हिंदी भी नहीं बोल पा रहा है | फिर भी वह गिड़गिड़ा रहा है और वैध  जी उसका गिडगिडाना सुन रहे हैं | वैध जी उसे बार-बार तख़्त पर बैठने के लिए कहते हैं और समझाते हैं कि तुम गरीब हो तो क्या हुआ , हो तो हमारे  रिश्तेदार ही ,पर प्रजातंत्र बार -बार उन्हें हुजूर और सरकार कहकर पुकारता है। बहुत समझाने  पर प्रजातंत्र उठकर उनके तख़्त के कोने पर आ जाता है और जब उसे इतनी सांत्वना मिल जाती है कि वह मुँह से कोई तुक की बात निकाल सके , तो वह वैध जी से प्रार्थना करता है  मेरे कपड़े फट गए हैं , मैं नंगा हो रहा हूँ | इस हालत में मुझे किसी के सामने निकलते हुए शर्म लगती है , इसलिए , हे  वैध महाराज , मुझे एक साफ़ -सुथरी  धोती पहनने को दे दो ।"

             ये हालात आज से लगभग पचास साल पहले के हैं | अब आप बैठे-बैठे अनुमान लगाते रहिये कि आज हमारे देश में लोकतंत्र  की क्या स्थिति है या होनी चाहिए ?

@ प्रेम नंदन

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