गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

समकालीन कविता का महत्वपूर्ण दस्तावेज : दिल्ली की सेल्फी कविता विशेषांक -2017

समकालीन कविता का महत्वपूर्ण दस्तावेज : दिल्ली की सेल्फी कविता 
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विशेषांक 2017
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लड़ना था हमें 
भय, भूख और भ्रष्टाचार के खिलाफ
हम हो रहे थे एकजुट
आम आदमी के पक्ष में
पर उनलोगों को 
नहीं था मंजूर यह।
उन्होंने फेंके कुछ ऐंठे हुए शब्द
हमारे आसपास
और लड़ने लगे हम
आपस में ही!
वे मुस्कुरा रहे हैं दूर खड़े होकर।
(कविता:यही तो चाहते हैं वे, कवि: प्रेम नंदन)

आगे मत पढ़िए। एक मिनट रुकिए और अपने आसपास के माहौल के बारे में सोचिए। 

क्या हर तरफ़ ऐसा ही नहीं हो रहा है, जैसा ऊपर की पंक्तियों में कहा गया है। एक ऐसा हंगामा बरपा हुआ है, जिसका मक़सद सिर्फ़ और सिर्फ़ बांटना है,  आदमी-आदमी के बीच जितना संभव हो, उतनी दीवारें खड़ी करते जाना है—ताकि आदमी कटता-मरता रहे और सत्ता अपना हित साधती रही। सदियों से सत्ता का चरित्र ऐसा ही रहा है।  

ये पंक्तियां उस कविता विशेषांक  के तेवर की ओर इशारा करती है, जिसका प्रकाशन दिल्ली  के साप्ताहिक अखबार ‘दिल्ली की सेल्फी’ ने किया है। दिल्ली की सेल्फी कविता विशेषांक 2017 का प्रकाशन इस अखबार की पहली वर्षगांठ पर किया गया और जनवरी में दिल्ली विश्व पुस्तक मेले के दौरान इसका लोकार्पण हुआ। इस विशेषांक में 49 कवियों की रचनाएं शामिल हैं। इनमें वरिष्ठ कवि भी हैं और वो भी हैं, जिन्होंने अभी अभी कलम उठाया ही है लेकिन विषयों की विविधता, लेखन की शैली, भाषा की बुनावट, शिल्प के वैविध्य की वजह से यह विशेषांक समकालीन कविता का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बन गया है।  यह विशेषांक हिन्दी कविता के समकालीन प्रवृत्तियों को बखूबी रेखांकित करती है। इसे पढ़कर आप समझ सकते हैं कि हिंदी कविता में आज क्या और कैसा लिखा जा रहा है।

इस विशेषांक की कविताओं में प्रेम है, नफ़रत है, शहर के कंक्रीट के ढेर में तब्दील होते जाने की विडंबना है तो गांव के भी शहर  के नक्शे कदम पर चल पड़ने की व्यथा है। प्रकृति की खूबसूरती का बखान है तो इसकी 
खूबसूरती को उजाड़ने की साज़िश से सतर्क करने की तत्परता भी। व्यवस्था पर सवाल है, गुस्सा है, प्रतिरोध है।

हर प्रतिरोध में मिलाता हूं अपनी आवाज़
डरता हूं अपनी आवाज़ के पहचाने जाने से
डरता पहचान लिए जाने से
डरता हूं चिह्नित होने से
और जब तक ये डर मुझमें पैठा रहेगा
प्रतिरोधात्मक राग बेअसर रहेगी
(कविता : प्रतिरोध के कोरस में एक स्वर मेरा भी,  कवि : अनवर सुहैल Anwar Suhail)

आम आदमी का ये डर उसे जिल्लत भर ज़िन्दगी जीने को मज़बूर करती है। मुठ्ठियां खुली हुईं है। असहिष्णु आतताइयों के जुल्म को सहने की सहिष्णुता हैं लेकिन क्रांति के लिए मुठ्ठियां बंद करने की हिम्मत सिरे से गायब है।

यह समय है
आंखें बंद कर 
शुतरमुर्ग हो जाने  का
या फिर चील, बाज की तरह
विलुप्त हो जाने का
संक्रमित समय है यह!!
(कविता : संक्रमित समय  है यह, कवि : अरुण चंद्र राय) 

इस संक्रमित समय में भी इंसानियत को बचाए रखने की कोशिश में कवि पीछे नहीं रहता। 

जब मैं मरूं
तो मेरी अर्थी को कंधा  देने से पहले
देख लेना कहीं आस-पास
किसी खेत के किनारे
पेड़ पर लटक न रही हो
किसी किसान की लाश
कहीं न पड़ी हो
भूख से तड़प कर 
चार कंधों  की आस में
मरे किसी मज़दूर की अर्थी
भाई मेरे,
बस इतना ही चाहता हूं
कि मुझे मोक्ष प्रदान करने से पहले
और बाम्हनों को
हलुआ-पूरी खिलाने से पहले
उन्हें कंधा जरूर दे देना।
(कविता : जब मैं मरूं,  कवि : के. रवींद्र) Kunwar Ravindra

यह कविता नहीं है, मौजूदा समय का आईना है। इसमें साफ़ दिख रहा है कि किसान के पैरों तले ज़मीन नहीं है। वह हवा में लटकने को विवश है। मज़दूर के हाथ में काम नहीं है। थाली में रोटी नहीं है लेकिन एक वर्ग है, जो इनकी मौत पर भी हलुवा पूरी खा रहा है। उसकी कोशिश ही यही है कि मेहनतकश का पेट कभी न भरे। वो हर वक्त यही साज़िश रचने में व्यस्त रहता है। ऐसे लोगों को बेनकाब करती कविता भी विशेषांक में मौजूद है।

तुम्हारे भूख को जिंदा बचाए रखना
हमारी मज़बूरी है
क्योंकि जिस दिन
तुम्हारी भूख मर जाएगी
वर्षों की हमारी वधशाला  की
यह साधना भंग हो जाएगी
देश का जमीर मर जाएगा
उल्टे हम  भूखों मर जाएंगे
शायद नहीं पता हो तुम्हें
कि सत्ता जब भूखी होती है
जब उसका जमीर मर जाता है
तो वह  अजगर की तरह
निगल जाती है पूरे मुल्क को
(कविता:देशद्रोह का खतरा, कवि:योगेंद्र कृष्णा)

लेकिन मेहनतकश वर्ग भूख से लड़ता रहता है। भूख से जंग से, हालात से समझौते की ऐसी कई कविताएं इस विशेषांक में मौजूद हैं।

भात में नमक अधिक पड़ जाये
तो पानी मिलाकर खाते हैं
और पानी अधिक पड़ जाये
तो नमक मिलाकर खाते हैं
गरीब अपनी गरीबी भले ही न मिटा पाये
परन्तु अपनी भूख मिटाना जानता है
भूख तो असल में 
अमीरों की मिटाए नहीं मिटती
फिर चाहे मुल्क ही मिट जाए।
(कविता : भूख,  कवियत्री : अनामिका चक्रवर्ती ‘अनु’) 
***
उन्हें पता है
कितनी रोटी बची है चकले और थाली के बीच
चावल की हांडी में कितनी मुठ्ठी उम्मीद बची है
देह में कितना ताप बचा है
बचे हैं और भी कितने ही संघर्ष के दिन
लेकिन इस भोथर देह ने इंकार कर दिया है
उन्हें यकीन नहीं है
कि आज कड़ाके की ठंड है
(कविता:उन्हें यकीन नहीं, कवि:प्रशांत विप्लवी) 
***
महीने के अन्त में 
पिताजी चाय कम पीया करते हैं
और
सादी चाय उन्हें बहुत
अच्छी लगती है।
(कविता : दीवार पर टंगी वह कमीज, कवि : अभिनव सिद्धार्थ)

इसी भूख ने गांव को शहर का रुख  करने को मज़बूर किया। शहर ने कुछ पैसे दिए लेकिन ज़िन्दगी का सारा सुख छीन लिया। मजबूरी के शहर और मोह के गांव के बीच पिसा मध्यवर्ग का दर्द कुछ कविताओं में बखूबी उभरा है।

एक ज़माने में
भारी छूट की भाषा से 
जब अंजान थे लोग
तब 
घर के साथ-साथ
आंगन भी मिल जाता  था...
आज भारी छूट पर मिलते हैं
विशाल चौकोरों में छोटे-छोटे चौकोर
और आदमी छज्जे तक को तरस जाता है
कि छीन ली जाती है
जीवन से पाई-पाई जीने की कला
(कविता : भारी छूट,  कवि :अनुज)

शहर आने वाले आदमी की  
अंटी देखता है और
जाने वाली की छोड़ी गई सहन
जिसमें उसके अपने खड़े
होने की गुंजाइश हो।
अब जब मैंने खपा दी
शहर में अपनी उमर
जहां ने कभी मेरे आने से
वेशी हुई थी न
चले जाने से खाली होगा कुछ।
अब गांव जाकर
कहां किस पटोहे में
किस दुरौधें के नीचे
किस आले में रखूंगा
अपना यह खालीपन
(कविता:शहर से मिला  कवि: नरेंद्र पुंडरीक) 

राष्ट्रवाद जब चुनावी जुमला बन जाता है, तब केवल तमाशा होता है। उस तमाशे में वह दर्द जब जाता है, जो देश के लिए शहीद होने वाले सिपाही का परिवार झेलता है। 

युद्ध में अकेला नहीं जाता है सिपाही
साथ जाता है उसका किसान बाप
और उसकी डेढ़ बिसुआ ज़मीन...
साथ जाती है उसकी बूढ़ी मां
और उसकी पथराई आंखें
            ***
साथ जाते हैं उसके यार
साथ जाती है हुस्ना
साथ जाता है उसका घर
उसका खेत
उसका गांव
उसकी नीम
उसकी छांव
***
युद्ध में अकेला नहीं मरता है सिपाही
साथ ही मर जाते हैं ये सभी भी
(कविता:युद्ध में अकेला नहीं जाता सिपाही, कवि:नीरज द्विवेदी )

संग्रह में 49 कवियों  की कविताएं शामिल हैं। यहां सबका जिक्र करना संभव नहीं है लेकिन इस संग्रह में आपको अजय चंद्रवंशी, , अनिल कुमार पांडेय, अनुप्रिया, अनुराधा सिंह, अभिनव सिद्धार्थ, अरविंद श्रीवास्तव Arvind Srivastava, अरुण श्री, आनन्द गुप्ता Anand Gupta, इंदु सिंह, दिनेश कुमार, दिलीप कुमार शर्मा ‘अज्ञात’, ध्रुव गुप्त , नवनीत पांडेय Navneet Pandey, नूर मुहम्मद नूर Noor Mohammad Noor, नेहा सक्सेना, परमेंद्र सिंह, प्रदीप त्रिपाठी, बुद्धिलाल पाल Buddhi Lal Pal, महावीर राजी Mahabir Raji, मिथिलेश कुमार राय, मीता दास , यशस्विनी पांडेय, रचना त्यागी, राखी सिंह, राजकिशोर राजन ,शशांक शेखर, शहंशाह आलम Shahanshah Alam, शैलेंद्र कुमार शुक्ल, शैलेंद्र शांत, संतोषकुमार चतुर्वेदी Santosh Chaturvedi, सागर आनन्द, सुलोचना वर्मा ,सोनी पांडेय, सौरभ वाजपेयी, हनुमंत किशोर , ज्योति तिवारी की कविताएं हैं।(नाम अल्फाबेटिकल क्रम में है)

ये विशेषांक पठनीय और संग्रहणीय है। इस अंक के लिए संपादक नित्यानंद  गायेन Nityanand Gayen और कविता चयन में अहम भूमिका निभाने वाले प्रभात पांडेय Prabhat Pandey और रमेश पाठक  बधाई के पात्र हैं।

कश्मीर के कवि निदा नवाज Nida Nawaz की कविता के कुछ अंश के साथ खत्म करता हूं, पढ़िए और जानिए धरती के स्वर्ग की हक़ीक़त
मैं उस स्वर्ग में रहता हूं
जहां घर से निकलते समय मांएं
अपने बच्चों के गले में
परिचय पत्र डालना कभी नहीं भूलतीं
भले ही वह भूल जाय
टिफिन या किताबों के बस्ते
अपने नन्हों के परिचय की खातिर नहीं
बल्कि 
उनका शव घर के ही पते पर पहुंचे
इसकी ही चिन्ता है उन्हें
*   * *
मैं उस स्वर्ग में रहता हूं
जहां बच्चा होना होता है सहम जाना
जवान होना होता है मर जाना
औरत होना होता है लुट जाना
और बूढ़ा होना होता है
अपने  ही संतान का 
कब्रिस्तान हो जाना
*******
मैं उस नर्क में रहता हूं
जो शताब्दियों से भोग रहा है
स्वर्ग होने का एक
कड़वा और झूठा आरोप
 (कविता: मैं उस स्वर्ग में रहता हूं, कवि:निदा नवाज)
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पत्रिका: दिल्ली की सेल्फी कविता विशेषांक 2017
संपादक : नित्यानंद गायेन
कविताओं का चयन: प्रभात पांडेय, नित्यानंद गायेन और रमेश पाठक
मूल्य : 50 रुपए
पता: A-21/27, सेकेंड फ्लोर, नारायणा इंडस्ट्रियल एरिया, फेस II, नई दिल्ली-28

कविता

दुनिया की प्रत्येक चीज   संदेह से दूर नहीं मैं और तुम  दोनों भी खड़े हैं संदेह के आखिरी बिंदु पर तुम मुझ देखो संदेहास्पद नजरों से मैं तुम्हें...