शुक्रवार, 21 मई 2021

आग भी प्यास बुझाती है! - गणेश गनी

आग भी प्यास बुझाती है!

प्रेम नंदन की कविता पढ़ते हुए पाठक कहीं खोने के कगार पर पहुंच जाता है। उसे फिर ख़याल आता है कि अभी तो कविता में आगे चलना है और देखना है कि जो बात शुरू हुई थी वो अंत तक पहुंची भी या नहीं-   

सच यही है
कि बातें वहीं से शुरू हुईं 
जहाँ से होनी चाहिए थीं 
लेकिन खत्म हुईं वहाँ
जहाँ नहीं होनी चाहिए थीं ।

बातों के शुरू और खत्म होने के बीच
तमाम नदियाँ, पहाड़, जंगल और रेगिस्तान आए
और अपनी उॅचाइयाँ , गहराइयाँ , हरापन और 
नंगापन थोपते गए ।

इन सबका संतुलन न साध पाने वाली बातें
ठीक तरह से शुरू होते हुए भी
सही जगह नहीं पहुँच पाती-
अफवाहें बन जाती हैं ।

कवि लोक से जुड़ा है और लोकधर्मिता का समर्थक है। गांव देहात की बातें यूँ ही नहीं आ जातीं कविता में। कवि स्थानीयता को अपनी रचनाओं में कुशलता से लाता है-

मेरे गाँव के 
खूबसूरत चेहरे को 
करके बदरंग  
बिजूके की तरह  
टांग दिया है 
बाजार ने 
लकड़हारे के हाथों बिक चुके 
रेत हो चुकी नदी के किनारे खड़े 
अंतिम पेड़ की 
उदास डालों पर, 

अब पेड़ चाहे तो 
चेहरा पहन ले 
या फिर चेहरा 
पेड़ हो जाए 
और फिर दोनों 
रेत को निचोड़कर
मुक्त कर दें नदी को ,

ऐसी ही दो-एक संभावनाओं पर 
टिका है 
गाँव, नदी और पेड़ का भविष्य !

कवि की एक और कविता पढ़ी जानी चाहिए। कवि श्रम को पूजनीय कह रहा है-

बादलों को ओढ़े हुए 
कीचड़ में धंसी हुई 
देह को मोड़े कमान-सी 
उल्लासित तन-मन से 
लोकगीत गाते हुए
रोप रहीं धान 
खेतों में औरतें ,

अपना श्रम-सीकर 
मिला रहीं धरती में 
जो कुछ दिन बाद 
सोने-सा चमकेगा 
धन की बालियों में |
पूरे समाज के 
सुखमय भविष्य का 
सुदृढ़ आधार है 
इनका यह वर्तमान पूजनीय श्रम!

यह सच है और हमने ही काम को पूजा माना है। एक राजा था। तमाम ऐश्वर्य थे। नौकर थे। चाकर थे। बीबियाँ थीं। बांदियाँ थीं। गहने थे। राग थे। रंग थे, पर न जाने क्या था कि उसका रंग ज़र्द हुआ जाता था। दुनिया भर के हक़ीम आए, पर कोई लाभ न हुआ। आख़िर में किसी ने कहा कि क्यों न किसी सुखी आदमी को तलाशा जाए, वही राजा का दुःख दूर करेगा। 
एक दिन राजा ने खेत में हल चलाते किसान को देखा। वो जितना पसीना बहाता, उतना ही हंसता और गाता जाता। राजा उसे देर तक देखता रहा और सोचता रहा कि  क्या वह कभी ऐसी बेफिक्र हंसी हंसा। राजा ने जब किसान से उसकी हंसी और खुशी का राज़ पूछा तो किसान ने कहा कि यह तो बहुत आसान है। खुशी तो तब आती है जब इस मिट्टी में यह पसीना मिल जाता है। जीवन का आनन्द लेते हुए जियो। तब खाओ जब भूखे हो। तब बोलो जब कुछ कहने को हो। तब प्रेम करो जब भीतर उठे। तब प्रश्न करो जब जिज्ञासा हो।
प्रेम नन्दन ऐसी कविता लिखते हैं जो सीधी बात करती है, कोई लाग लपेट नहीं, कोई लिहाज़ नहीं-

जिन्हें देखना हो संघर्ष
सुनना हो श्रमजीवी गीत
चखना हो स्वाद पसीने का
माटी की गंध सूँघनी हो 
कष्टों को गले लगाना हो 

वे ही आएँ मेरे पास ।

आग, पानी और प्यास का संबंध कवि जानता है। कवि यह भी जानता है कि पानी ही नहीं आग भी प्यास बुझाती है। प्रेम नंदन की यह कविता बड़ी गहरी है, पानी जैसी निर्मल और आग जैसी चमकदार-

जब भी लगती है उन्हें प्यास
वे लिखते हैं 
खुरदुरे कागज के चिकने चेहरे पर 
कुछ बूँद पानी 
और धधकने लगती है आग !

इसी आग की आँच से 
बुझा लेते हैं वे
अपनी हर तरह की प्यास !

प्रेम नन्दन समझा रहे हैं कि एक वर्ग विशेष के लोग क्या चाहते हैं। जनता समझ रही है अब। वो दिन दूर नहीं जब मुखौटे उतरेंगे और चेहरे बेनकाब होंगे। कवि का कर्म है कि भीड़ को सावधान करते हुए बताए कि यही तो चाहते हैं वे-

लड़ना था हमें 
भय, भूख, और भृष्टाचार के खिलाफ ! 

हम हो रहे थे एकजुट 
आम आदमी के पक्ष में 
पर कुछ लोगों को 
नहीं था मंजूर यह !

उन्होंने फेंके कुछ ऐंठे हुए शब्द 
हमारे आसपास
और लड़ने लगे हम
आपस मे ही !

वे मुस्कुरा रहें हैं दूर खड़े होकर 
और हम लड़ रहें हैं लगातार
एक दूसरे से
बिना यह समझे 
कि यही तो चाहते हैं वे !

                     - गणेश गनी


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