गुरुवार, 27 अगस्त 2020

नीलोत्पल रमेश : समय, समाज और गांव ज्वार से बतकही करती कविताएं

कविता की वास्तविक मनोभूमि गाँव-जवार, खेत-खलिहान, नदियाँ, कछार, पोखरे, पेड़ पौधे, पशु-पक्षी और आदमी के जीवन, उनके सुख-दुःख, सपनों, संघर्षों और हारने-जीतने, जीने-मरने की वास्तविक परिस्थितियों के आसपास ही है। कविता हवा-हवाई इच्छाओं की काल्पनिक उड़ान नहीं, बल्कि जल, जंगल और जमीन के आपसी रिश्तों और जिंदगी की परतों को देखने समझने के लिए ,एक दूसरे के आमने सामने बैठकर की गई जीवंत बतकही है। 

वरिष्ठ कवि और समीक्षक नीलोत्पल रमेश का कविता संग्रह- 'मेरे गाँव का पोखरा' गाँव-जावर की ऐसी ही संवेदनशील और जीवंत कविताओं का बेहतरीन संग्रह है। इन कविताओं में पाठक को अपने आसपास की संवेदनशील जिंदगी सांस लेती नजर आती है और पाठक से संवेदनात्मक साम्य स्थापित कर लेती है.

वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक परिवेश की मरती संवेदनशीलता को देखकर वे कहते हैं-
'बच्चे मर रहे हैं
एक के बाद एक 
मरने का यह सिलसिला जारी है
उसी तरह हमारे देश का
भविष्य भी मर रहा है
और मर रही है सदियों की परम्परा
और मर रहा है देश
और इसी के साथ मर गईं
देश की संवेदनाएं भी।'
(बच्चे मर रहे हैं)

आज देश का राजनीतिक परिदृश्य इतना दूषित और ईर्ष्यालु हो गया है कि जो प्रतीक कभी समाज को अमन चैन और भाईचारे का संदेश देते थे अब वे कुछ लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ता नजर आ रहा है-

'जय श्री राम!'
एक डरावना और भीभत्स
नारा बन गया है
जिसमें रामत्व नहीं
बल्कि उग्र राष्ट्रवाद का 
ले लिया है रूप इसने।'
(हे राम!)

.......


कविता की वास्तविक मनोभूमि गाँव-जवार, खेत-खलिहान, नदियाँ, कछार, पोखरे, पेड़ पौधे, पशु-पक्षी और इन सबके बीच बसे आम आदमी के सुख-दुःख, सपनों, संघर्षों, हारने-जीतने, और जीने-मरने की वास्तविक परिस्थितियों के आसपास ही है। कविता हवा-हवाई इच्छाओं की काल्पनिक उड़ान नहीं, बल्कि जल, जंगल और जमीन के आपसी रिश्तों और जिंदगी की परतों को देखने समझने के लिए ,एक दूसरे के आमने सामने बैठकर की गई जीवंत बतकही है। 

वरिष्ठ कवि और समीक्षक नीलोत्पल रमेश का प्रलेक प्रकाशन, मुंबई से हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह- 'मेरे गाँव का पोखरा' गाँव-जावर की ऐसी ही संवेदनशील और जीवंत कविताओं का बेहतरीन संग्रह है। इस संग्रह में आम जन जीवन के सभी रंग देखने को मिल जाएंगे- हरे-भरे, धूल धूसरित, चटकीले और स्याह, सभी तरह के रंग। इन कविताओं में पाठक को अपने आसपास की संवेदनशील जिंदगी सांस लेती नजर आती है और पाठक से संवेदनात्मक साम्य स्थापित कर लेती है.

नीलोत्पल रमेश जी को ऐसे बेहतरीन कविता संग्रह के लिए ढेरों बधाइयाँ।

शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

समय की विडम्बनाओं पर कटाक्ष करती गजलें

समय की विडम्बनाओं पर कटाक्ष करती गजलें
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वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद डॉ बालकृष्ण पांडेय  का सद्य प्रकाशित गजल संग्रह "साधो उनकी जात निराली"  उनकी उत्कृष्ट गजलों का बेहतरीन संग्रह है। इस संग्रह में उनके शुरुआती लेखन से लेकर के अब तक के लेखन की गजलें शामिल हैं। पांडेय जी को आम जनजीवन के रोजमर्रा की घटनाओं को शब्दों में ढालने में महारत हासिल है। आम आदमी के जीवन में घटने वाली तमाम विसंगतियों, विडंबनाओं को बखूबी बयान करने का जरिया बनती हैं उनकी ग़ज़लें। वे अपनी छोटी-छोटी गजलों में अपने आसपास के जीवन को चित्रित करने वाले रचनाकार हैं।  ये गजलें हमारे समाज में होने वाले छोटे-छोटे बदलावों पर तीखी तीखी नजर रखती हैं और उन पर अपनी टिप्पणियां करती हैं-

"फरार बाज मगर बुलबुलों पर पहरे हैं
किसी कोयल को कोई काम चल रहा होगा।"

"औरतों, बीमार, बच्चों का हुआ है सर कलम 
कौन देखे न्याय की भी आंख में छाले पड़े हैं।"

इन गजलों की मुख्य विशेषता शब्दों में छिपा हुआ व्यंग्य है जो कहीं भी भाषा की गरिमा का अतिक्रमण नहीं करता, बल्कि धीरे से अपनी गहरी टीस देकर हमें सोचने पर मजबूर करता है-

"जन-जन को बग्घी पर नाधे
राजा की औकात निराली।"

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मंगलवार, 11 अगस्त 2020

जीवन का नया सौंदर्यशास्त्र रचते कुँवर रवींद्र के चित्र

जीवन का नया सौंदर्यशास्त्र रचते के कुंवर रवींद्र के चित्र
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अपने समय और समाज की विद्रूपताओं और त्रासद यथार्य को अपनी तूलिका से चित्रित करने वाले कुंवर रवीन्द्र वर्तमान समय के विलक्षण कलाकार हैं।  वे रंग और रेखाओं के संयोजन से जीवन को चित्रित कर, उसकी संभावनाओं को जिंदा रखने और उन्हें संबल प्रदान करने वाले चित्रकार हैं। इधर उनके चित्रों में जीवन का एक नया सौंदर्यशास्त्र देखने को मिलता है जो आज के समय की सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक संवेदनाओं तथा भावनाओं को पूरी सजगता, ईमानदारी और पक्षधरता से प्रकट करता है।

सोमवार, 10 अगस्त 2020

बालकृष्ण पांडेय पर लेख

थोड़ा ही सही खूब है बाहों का भरोसा
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     वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद बालकृष्ण पांडेय  का सद्य प्रकाशित गजल संग्रह "साधो उनकी जात निराली" उनका  प्रकाशित गजल संग्रह है इस संग्रह में उनके शुरुआती लेखन से लेकर के अब तक के लेखन की गजलें शामिल हैं। आम जनजीवन के रोजमर्रा की घटनाओं को शब्दों में ढालने में उन्हें महारत हासिल है। आम आदमी के जीवन में घटने वाली विसंगतियों, विडंबनाओं को बखूबी बयान करने का जरिया बनती हैं उनकी ग़ज़लें। वे अपनी छोटी-छोटी गजलों में अपने आसपास के जीवन को चित्रित करने वाले रचनाकार हैं।  ये गजलें हमारे समाज में होने वाले छोटे-छोटे बदलावों पर तीखी तीखी नजर रखती हैं और उन पर अपनी टिप्पणियां करती हैं-

"फरार बाज मगर बुलबुलों पर पहरे हैं
किसी कोयल को कोई काम चल रहा होगा।"

"औरतों, बीमार, बच्चों का हुआ है सर कलम 
कौन देखे न्याय की भी आंख में छाले पड़े हैं।"

इनकी गजलों की मुख्य विशेषता शब्दों में छिपा हुआ व्यंग्य है जो कहीं भी भाषा की गरिमा का अतिक्रमण नहीं करता, बल्कि धीरे से अपनी गहरी टीस देकर हमें सोचने पर मजबूर करता है-

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कविता

दुनिया की प्रत्येक चीज   संदेह से दूर नहीं मैं और तुम  दोनों भी खड़े हैं संदेह के आखिरी बिंदु पर तुम मुझ देखो संदेहास्पद नजरों से मैं तुम्हें...