मंगलवार, 3 अगस्त 2021

वर्जनाओं के विरुद्ध तनी हुई मुट्ठियाँ हैं प्रधुम्न कुमार सिंह की कविताएं


वर्जनाओं के विरुद्ध तनी हुई मुट्ठियाँ
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- : प्रेम नंदन

प्रद्युम्न कुमार सिंह अन्याय, अत्याचार, असमानता, शोषण और भ्रष्टाचार जैसी सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों को प्रतिरोध की भाषा में ढालकर आम जनमानस की दबी हुई चुप्पियों को स्वर देने वाले जमीनी, प्रतिबद्ध और लोकधर्मी चेतना से लैस कवि हैं। वे अपनी कविताओं के विषय अपने आसपास रोजमर्रा के जीवन में घटने वाली घटनाओं से चुनते हैं। "कुछ भी नहीं होता अनन्त" उनका पहला कविता संग्रह है जिसमें उनकी 60 कविताएं संकलित हैं। इस कविता संग्रह में शामिल उनकी अधिकांशतः कविताओं का मूल स्वर प्रतिरोध है, जो सीधे पाठकों के मर्म को बेधती हुई उन्हें संवेदनशील बनाती हैं। उनकी कविताओं में प्रतिरोध का ये तेवर महसूस करें -

"काँप रहे थे निकलते अल्फाज 
दबती जा रही थी 
सिसकती आवाजें 
जाने क्यों नहीं 
आ रहा था समझ 
माजरा कुछ 
फिर भी खड़ा था 
ताने सीना 
प्रतिरोध के साथ"

(प्रतिरोध के साथ)

पूंजीवाद, बाजारवाद और भूमंडलीकरण से हमारे आम जनमानस पर पड़ने वाले प्रभाव कवि की संवेदनशीलता को उद्वेलित करते हैं। भूमंडलीकरण ने आम जनजीवन को बहुत गहरे ढंग से प्रभावित किया है और हम उसकी मौजूदगी को नकार नहीं सकते हैं।इसी चिंता को आवाज देते हुए वे कहते हैं-

"आज जब भूमंडलीकरण 
एक हकीकत बनकर 
हमारे समक्ष सीना ताने खड़ा है 
हम नहीं कर सकते इंकार 
उसकी उपस्थिति से 
और न ही रह सकते हैं 
उससे अछूते 
बावजूद इसके हम 
व्यक्त कर सकते हैं 
अपनी अभिव्यक्ति 
और उठा सकते हैं 
उसके विरुद्ध 
अपनी बुलंद आवाज।" 

(कुछ भी नहीं होता अनन्त)

हमारे समाज में  स्त्रियों की स्थिति हमेशा से ही दोयम दर्जे की रही है, और इस स्थिति के लिए काफी हद तक स्त्रियां भी जिम्मेदार हैं। उनको अपने प्रति हो रहे हर तरह कर भेदभाव के  खिलाफ आवाज उठानी होगी तभी उनके जीवन में कुछ सकारात्मक बदलाव आ सकते हैं। उन्हें अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी और तोड़नी होंगी अपने पैरों की बेड़ियाँ- 

"तुम करती रही अपने साथ
हमेशा छल
इसीलिए कभी भी नहीं 
जुटा सकी 
प्रतिबद्धताओं से मुकरने का साहस और न ही समझा पाई 
अपनी असहमतियों के 
पीड़ायुक्त भाव"

(यशोधरा)

अपनी एक कविता में कवि औरतों को अपनी चाल-ढाल बदलने और तनकर खड़े होकर अपनी आवाज उठाने के लिए प्रेरित करता है -

"औरतों थोड़ा ऐंठकर 
चलना सीखो 
सीधा चलना तुम्हारे लिए 
घातक है 
निगाहों को झुकाने की अपेक्षा 
तानना सीखो 
तभी तुम्हारी ओर 
नापाक इरादों के बढ़ते हुए 
कदम रुकेंगे"

(औरतों)

आजादी के दिनों से ही कश्मीर का मुद्दा हमारे देश और पड़ोसी मुल्क के बीच तनाव का मुख्य मुद्दा बना हुआ है और सियासतदानों को अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का एक जरिया भी। कवि दोनों देशों के राजनीतिक लोगों से सवाल करता है -

" कश्मीर मुद्दा है जिनका 
क्या वे जानते हैं 
अच्छी तरह से 
कश्मीर को? 
या फिर जानते हैं 
कश्मीरियत को?
 या मात्र फ़नों में 
बिष भरकर ही 
घूम रहे हैं।"

(कश्मीर मुद्दा है जिनका)

देश में किसानों की क्या दुर्गति है, यह किसी से छिपा नहीं है। सेठ साहूकारों और बैंको से कर्ज ले लेकर खेतीबाड़ी करने वाले किसान, जब फसल अच्छी न होने, या प्राकृतिक आपदा जैसी अन्य वजहों से नष्ट हो जाने के कारण जब लिए गये इन कर्जों को उतार नहीं पाते तो मजबूरन आत्महत्या करने को विवश हो जाते हैं, वस्तुतः ये आत्महत्या नहीं, बल्कि व्यवस्था द्वारा की गई जघन्यतम हत्याएं होती हैं। ऐसी स्थिति में व्यवस्था और उसके कलपुर्जो के द्वारा किसान को शराबी और उसके परिवार की औरतों को  बदचलन घोषित करने में ज़रा भी शर्म नहीं आती-

"वो जानते हैं सरकारी बैंक की नोटिस,
साहूकार के रुतबे के बीच बैठा हत्यारा
हत्या को आत्महत्या साबित कर रहा है। 
मगर वो चाहते हैं कि बिना किसी प्रतिरोध के 
इस भूखे कर्जखोर किसान की, पोस्टमार्टम रिपोर्ट उसे मानसिक रूप से
विक्षिप्त शराबी घोषित कर दे 
अदालत के सामने गीता की शपथ लेकर, 
पेशेवर हैवान उसकी जवान बेटी को बदचलन घोषित कर दे, वो जानते हैं...

(एक ताजा आत्महत्या)

कवि की कर्मस्थली बुंदेलखंड का वह पिछड़ा इलाका है, जहाँ आज भी सरकारी व्यवस्था पूरी तरह से पंगु बनी हुई है। लोगों के पास रोजी-रोटी नहीं है, कामकाज नहीं है, लोग। अपना घर-बार छोड़कर, शहरों में सड़ने के लिए पलायन करने को मजबूर हैं। ऐसी स्थितियों में कवि के शब्दों का आक्रोश ही है जो आम आदमी को अपनी जड़ों में खड़े रहने की ताकत देता है-

"हर शब्द 
एक सुलगता 
आक्रोश है 
जो खड़ा मिलेगा 
हर वक्त 
शोषण के विरुद्ध 
संघर्षरत"

(संघर्षरत)

प्रद्युम्न कुमार सिंह सर्वहारा, मजदूर, किसान और उनके श्रम, श्रम के साझीदार हल, जुआँ , फावड़ा ,कुदाल आदि औजारों, धरती, प्रेम,नमी और बीजों की भाषा को पढ़ने वाले कवि हैं। वे इनके अंतरसंबंधों से भी बखूबी परिचित हैं। वे इनके अन्योन्याश्रित संबधों को जानते और पहचानते हैं कि यह जो जीवन है, इन्हीं सब चीजों पर निर्भर है। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती। एक के बिना दूसरा अधूरा है। एक के बिना दूसरे का जीना असंभव है-

"हल जानता है 
मिट्टी से खेलने की कला 
उसे पता होती है 
धरती की गहन पीड़ा 
और उसके एहसास 
वह निभाता है 
धरती से अपना रिश्ता 
जिससे दुनिया में 
बची रहे कशिश 
बची रहे 
प्रेम की भाषा 
और बची रहे बीजों के 
अंकुरण की संभावना।"

(बची रहे)

कवि मानवीय जिजीविषा के नवोन्मेष में विश्वास रखता है इसीलिए उसकी धारणा है कि यदि हमें मनुष्य और मनुष्यता को बचाए रखना है तो हमें पत्थर नहीं, दूब बनकर रहना होगा। यह दूब बनकर जीने की कला ही हमें इस विकराल समय में जिंदा रहने की ऊष्मा और उर्जा देगी-

"तुम्हें पत्थर नहीं 
दूब बनना है
जिसकी जड़ों में 
सात गांठे होती हैं 
अगर एक भी 
शेष रह जाती है 
तो असाढ़ का 
पानी पड़ते ही 
हरिया जाती है"

(तुम्हें पत्थर नहीं)

आज हम ऐसे विकराल समय में जी रहे हैं जब सच, झूठ, इमानदारी, बेईमानी, सब आपस में गड्डमड्ड हो गए हैं। अब बुराई का मुकाबला अच्छाई से नहीं बल्कि बुराई से ही है।मक्कार का मुकाबला मक्कार से ही है किसी अच्छे आदमी से नहीं। झूठ का मुकाबला सच्चाई से नहीं बल्कि अपने से बड़े झूठ से है। अब ऐसे हालात में देश क्या हाल होना है, किसी से छिपा नहीं है-

"आज मुकाबला 
सच, झूठ, ईमानदारी 
और बेईमानी के बीच नहीं है 
वरन 
बेईमान और बेईमानी के 
बीच है 
मक्कार और मक्कारी के बीच
लड़ी जा रही हैं जंगें
मामला देश का नहीं है
वरन मामला
झूठी शान की तरफदारी का है।"

(मुकाबला)

आज का मनहूस फासीवादी समय पूरी तरह निरंकुश होने पर उतारू है, इसलिए अभिव्यक्ति की आजादी भी खतरे में पड़ती नजर आ रही है।
विपक्ष में उठने वाली हर आवाज और प्रत्येक हाथ के खिलाफ कायर लोग डर का माहौल बनाए रखने के लिए तरह-तरह के कुचक्रों के जाल फैलाये जा रहे हैं-

"वे तुमसे छीन लेना चाहते हैं 
तुम्हारी आजादी 
काट देना चाहते हैं 
तुम्हारे उठे हुए हाथ 
खड़ा कर देना चाहते हैं 
खौफ का जिन्न 
इसलिए करना चाहते हैं 
शक्ति की नुमाइश 
उत्पन्न कर सकें 
जिससे एक अनाम डर 
आड़ में जिनकी तोपी जा सकें
अनगिनत कायराना हकीकतें"

(वे तुमसे छीन लेना चाहते हैं)

हम आज एक कायर और नपुंसक समय में जीने को अभिशप्त हैं जिन लोगों को सच के पक्ष में खड़े होना चाहिए, गलत का विरोध करना चाहिए और सही बात कहनी चाहिए वे साहित्यकार, पत्रकार, बुद्धिजीवी अपनी भूमिकाओं से च्युत हो गए हैं-

"देखना चाहिए था 
जिन्हें 
उनके आंख नहीं 
समझना चाहिए था 
जिन्हें 
उनके दिमाग नहीं 
जानना चाहिए था 
जिन्हें 
उनको समझ नहीं 
विरोध करना चाहिए था 
जिन्हें 
वे हार स्वीकार कर 
बैठ चुके हैं गोद में"

(देखना चाहिए था)

कवि अपने समय की राजनीतिक और सामाजिक विद्रूपताओं, विसंगतियों और वर्जनाओं को ललकारते हुए आम आदमी के पौरुष और जिजीविषा को कमजोर न समझने की बात कहकर उनके पक्ष में अपना प्रतिरोध दर्ज करते हैं -

"वर्जनाओं के विरुद्ध 
तनी हुई मुट्ठियों में 
अभी भी बची हुई है 
इतनी सामर्थ्य 
कि वे भर सकें
तुम्हारे विरुद्ध
हुंकार 
और दर्ज करा सकें 
अपना प्रतिरोध"

(वर्जनाओं के विरुद्ध)

इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रद्युम्न कुमार सिंह अपनी कविताओं में आक्रोष को स्वर देने वाले एक लोकोन्मुखी जनवादी कवि हैं। उनका यह कविता संग्रह "कुछ भी नहीं होता अनंत" उन्हें संवेदनशील और प्रतिरोधी कवि के रूप में स्थापित करता है। उम्मीद है कि आगे वे और बेहतर कविताएं लिखेंगे तथा जनवादी और लोकधर्मी कविता में एक नया मुकाम हासिल करेंगे।
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                       # शकुन नगर,
                            सिविल लाइंस,
                            फतेहपुर (उ.प्र.)

कविता

दुनिया की प्रत्येक चीज   संदेह से दूर नहीं मैं और तुम  दोनों भी खड़े हैं संदेह के आखिरी बिंदु पर तुम मुझ देखो संदेहास्पद नजरों से मैं तुम्हें...