शनिवार, 27 मई 2023

मैं क्यों लिखता हूँ

मैं क्यों लिखता हूँ ---final
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‘To make people free is the aim of art, therefore art for me is the science of freedom.’
-Joseph Beuys (1921-1986)
(one of the most influential sculptors and performance artists of the 20th century) 

मैं क्यों लिखता हूँ? यह एक ऐसा सवाल है जिससे प्रत्येक रचनाकार को कभी न कभी दो-चार होना ही पड़ता है। कभी दूसरे यह सवाल पूछते हैं तो कभी रचनाकार स्वयं से यह सवाल पूछने पर मजबूर होता है। देखने में बहुत सरल लगने वाले इस सवाल का उत्तर देना हर रचनाकार के लिए हमेशा ही मुश्किल रहा है।

मैं अपने लेखन की बात करूं तो जब मैं लिखने के कारणों की ओर झाँकने का प्रयास करता हूँ तो कई प्रश्न एक साथ सामने आ खड़े होते हैं- आखिरकार मैंने लिखना कैसे और क्यों शुरू किया?
साहित्य का मेरे घर-परिवार से दूर-दूर तक कहीं कोई रिश्ता नहीं था तो फिर मुझमें लेखन के संस्कार कहाँ से आए? 

बचपन के गलियारों में लौटने पर कई चीजें स्पष्ट हो जाती हैं, बातें शुरूआत की ओर पहुँच जाती हैं।
लिखने के शुरुआती बीज मेरे मष्तिष्क में शायद अम्मा की लोरियों ने बोए होंगे, कविता के प्रति लगाव शायद अम्मा के गाने-गुनगुनाने की आदत से पैदा हुआ होगा। अम्मा के पास लोकगीतों और कहानियों का अकूत भंडार है। 

उन दिनों अम्मा गांव और रिश्तेदारी में एक अच्छी गउनहर के रूप में प्रसिद्ध थी और विभिन्न तीज-त्योहारों और शादी-ब्याह के अवसरों पर लोग उनको इसी गुण के कारण विशेष रूप से आमंत्रित करते थे।

अम्मा अब भी हमेशा कुछ ना कुछ गाती-गुनगुनाती रहती हैं। बचपन में मुझको नींद तभी आती थी जब अम्मा मीठे स्वर में लोरियां सुनाती थी और सुबह उनकी गुनगुनाने की आवाज सुनकर ही आंखें खुलती थीं। दरअसल अम्मा हमारे सोने के बाद ही सोती थी और हमारे जागने के पहले जाग जाती थी और वे घरेलू कार्य करते समय भी प्रायः गाते-गुनगुनाते हुए ही करती थीं, अब भी उनकी यही दिनचर्या है। यह उस समय की लगभग सभी घरेलू महिलाओं की नियमित दिनचर्या होती थी।

अम्मा की लोरियों के पंखों पर सवार होकर जब मैं स्कूल गया तो वहां भी मेरा परिचय सबसे पहले कविता यानी स्कूल में गाई जाने वाली प्रार्थना से  हुआ। हिंदी की किताब में पहला पाठ भी कविता ही था। अम्मा से मिले संस्कारों के कारण बचपन में कविताएँ मुझे शीघ्र ही याद हो जाया करती थीं शायद यही कारण रहा है कि मुझे अपनी किताब की सभी कविताएं याद रहती थीं और मैं उन्हें अक्सर गुनगुनाया करता था।

इस तरह गीतों और कविताओं के प्रति मैं बचपन से ही लगाव महसूस करता था लेकिन कविता या और कुछ लिखने के बारे में तो मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था।

स्कूली शिक्षा खत्म करने के बाद जब मैं आगे की पढ़ाई के लिए शहर आया तो जहाँ मैं किराए पर रहता था उससे कुछ दूरी पर एक राजकीय पुस्तकालय और राजकीय छात्रवास अगल-बगल स्थित थे। मेरे कई सीनियर और परिचित साथी राजकीय छात्रवास में रहते थे और अखबार, पत्रिकाएं पढ़ने के लिए रोजाना राजकीय पुस्तकालय जाते थे । मैं भी उन्ही के साथ पहले तो प्रायः रविवार और फिर नियमित रूप से लाइब्रेरी जाने लगा था लगा। वहाँ पर कई अखबार, प्रतियोगी पत्रिकायें, साहित्यिक पत्रिकाएं आती थीं। वहीं पहली बार अखबारों और पत्रिकाओं से दोस्ती हुई। उस समय 'संपादक ने नाम पत्र' जैसे कॉलम लगभग सभी अखबारों में होते थे। 

विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों कर रहे कई सीनियर साथी संपादक के नाम पत्र लिखते थे और जब वे अखबारों में प्रकाशित होते थे तो बड़े गर्व से हम सबको दिखाते थे कि देखो-मेरा लिखा हुआ अखबार में छपा हैं। उस समय यह देखना काफी रोमांचक अनुभव हुआ करता था। तो इसी की देखा-देखी मैंने भी एक दिन एक पोस्टकार्ड पर विभिन्न सब्जियों की खेतीबाड़ी में प्रयोग होने वाले कीटनाशक दवाओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों को लेकर एक पोस्टकार्ड में कुछ लिखा और उसे पोस्टबॉक्स में डाल आया और फिर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गया। लगभग एक हफ्ते बाद वह पत्र कानपुर महानगर से प्रकाशित होने वाले एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक अखबार के 'संपादक के नाम पत्र' वाले कॉलम में अपने लिखे शब्दों को छपा हुआ देखकर सचमुच आँखों में आँसू आ गए थे। उस घटना के बाद पत्र लिखने का एक सिलसिला ही चल पड़ा। साथियों के साथ खूब पत्र लिखे जाते, कुछ छपते, कुछ न छपते, लेकिन अब इस बात की परवाह न करते हुए जब भी समय मिलता, खूब पोस्टकार्ड लिखे जाते, पोस्ट किए जाते।

हम जिस राजकीय पुस्कालय में पढ़ने जाते थे, शहर में मेरे जैसे तमाम गँवई लड़कों के लिए एकमात्र अड्डा था। यह पुस्कालय जिला विद्यालय निरीक्षक के आधीन था । वहाँ पर सिर्फ एक लाइब्रेरियन और एक चपरासी नियुक्त था। दोनों बहुत मक्कार थे। समय से लाइब्रेरी न खोलना, जल्दी बन्द कर देना , मेम्बरशिप लेने के बावजूद किताबें इश्यू करने में आनाकानी करना, विभिन्न मासिक पत्रिकाओं को पहले अपने घर ले जाना फिर हफ़्ते दो हफ्ते बाद लाइब्रेरी लाना जैसी अनेक करतूतों से  से हम सभी पढ़ने वाले छात्र परेशान रहते थे। हम लोग आए दिन लाइब्रेरियन और चपरासी की शिकायत जिला विद्यालय निरीक्षक से करते, लेकिन उनकी आदतें सुधरने का नाम ही नहीं ले रहीं थी। इन सबसे परेशान होकर हम लोगों ने लाइब्रेरी की समस्याओं और लाइब्रेरियन और चपरासी की शिकायत के रूप में कई पोस्टकार्ड विभिन्न स्थानीय और राष्ट्रीय अखबारों को भेजे। इन शिकायती पत्रों को कई अखबारों ने प्रकाशित किया। जिनमें से कई साथियों के पत्रों के साथ मेरा लिखा शिकायती पत्र भी प्रकाशित हुआ। कुछ स्थानीय अखबारों ने इसे खबर के रूप में छापा। अखबारों में प्रकाशित होने के कारण यह एक बड़ा मुद्दा बन गया, जिसकी आँच जिला विद्यालय निरीक्षक तक पहुँची। उन्होंने इन खबरों को संज्ञान में लेते हुए एक दिन छात्रों के हमारे ग्रुप को अपने ऑफिस में बातचीत के लिए बुलाया। वहाँ पर उन्होंने बड़े ध्यानपूर्वक हमारी शिकायतें सुनी और लाइब्रेरियन व चपरासी को फटकार लगाते हुए आइंदा से नियमानुसार कार्य करने की चेतावनी दी।

जिला विद्यालय निरीक्षक महोदय ने हम लोगो से उन पत्रिकाओं और अखबारों की सूची मांगी, जो हम लोग पढ़ना चाहते थे, लेकिन लाइब्रेरी में नहीं आते थे। उन्होंने उन पत्रिकाओं, अखबारों की लाइब्रेरी भिजवाने की व्यवस्था की। जिसके बाद लाइब्रेरी की व्यवस्था में काफी सुधार हुआ।

इस घटना के बाद पहली बार मुझे शब्दों की ताकत का एहसास हुआ और उसी क्षण मैंने शब्दों से दोस्ती कर ली। अखबारों और प्रतियोगी पत्रिकाओं और साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़ाव और गहरा हुआ। 

इसी दौरान किसी पत्रिका या किताब में (ठीक से याद नहीं आ रहा) जब मैंने अज्ञेय की 'छंदमुक्त' कविता 'हिरोशिमा' पहली बार पढ़ी तो अचानक ही दिमाग में यह विचार बिजली की तरह कौंधा कि इस तरह की कविता तो मैं भी लिख सकता हूँ। एक यह महज एक विचार ही था। मैं उस क्षण एक पंक्ति भी नहीं लिख सका।

इसके दो-तीन महीने बाद ही, जहाँ मैं रहता था , वहीं पड़ोस में एक दुर्घटना घट गई, एक नवब्याहता को जिंदा जला दिया गया। इस दुर्घटना ने मुझे झकझोर कर रख दिया और मेरे दिमाग को बहुत उद्देलित और बेचैन किया। यह बेचैनी कई दिनों तक दिमाग को मथती रही। अन्ततः एक दिन इस बेचैनी से मुक्ति पाने के लिए इसे शब्दों में ढालने के प्रयास में डायरी और पेन लेकर लिखने बैठ गया। उस दिमाग मे पहले से पढ़ी हुई अज्ञेय की कविता 'हिरोशिमा' पूरी तरह हावी थी और उसी से प्रेरित होकर कागज पर एक कविता जैसा कुछ लिख डाला। यह मेरी पहली साहित्यिक रचना थी। कविता का शीर्षक रखा - 'अतृप्त इच्छाओं की वेदी'। 

संयोग से वह कविता एक स्थानीय साप्ताहिक पत्र में छप भी गई। इससे उत्साहित होकर  कुछ और कविताएँ, गीत और लघुकथाएँ लिखीं जो विभिन्न स्थानीय साप्ताहिक पत्रों और दैनिक अखबारों की रविवासरीय परिशिष्ट में छपीं। इस तरह लेखन का सिलसिला शुरू हुआ।

जब स्थानीय साप्ताहिक और दैनिक अखबारों में कुछ कविताएं, गीत लघुकथाएँ प्रकाशित हुईं तो पत्रकारिता करने का भूत सवार हुआ। इसी क्रम में अपने शहर के विभिन्न स्थानीय और राष्ट्रीय अखबारों के ऑफिसों के चक्कर शुरू हुए और इसी दौरान पढ़ाई के साथ-साथ एक स्थानीय हिंदी दैनिक अखबार में विधिवत पत्रकारिता की शुरुआत हुई और कविता, गीत, लघुकथा के साथ-साथ  विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर लेख लिखने लगा।

लेखन के इन विभिन्न चरणों से गुजरते हुए आज भी जब इस सवाल का सामना होता है तो कोई सटीक जवाब नहीं सूझता है। फिर भी कभी दूसरों को तो कभी खुद को जवाब देना ही पड़ता है।

मेरे पास लिखने का कोई एक निश्चित कारण नहीं है बल्कि बहुत सारे कारणों का एक समुच्चय है, जिनके लिए लिखना पड़ता है। कभी संपादकों और मित्रों के आग्रह पर भी लिखना पड़ता है तो कभी किसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए भी लिखना पड़ता है। अखबारी लेखन पैसों के लिए करना पड़ता है।

इस तरह लिखने का एक अन्य प्रमुख कारण अन्याय, झूठ, पाखण्ड, अंधविश्वास, हिंसा, नफरत, साम्प्रदायिकता, सामाजिक असमानता से उत्पन्न बेचैनी, घुटन और संत्रास को अभिव्यक्ति देने और इनसे मुक्ति पाने की छटपटाहट ही है। 

मेरे लिखने का एक और कारण मानवता के प्रति एक समर्पित पक्षधरता है। मैं 'जो जैसा है' से संतुष्ट नहीं होता बल्कि वर्तमान में 'कैसा होना चाहिए' इसके लिए शब्दों की कुदाल से समय की जड़ता को तोड़ने का प्रयास करता रहता हूँ। मैं इसलिए लिखता हूँ कि मेरे लिखे शब्द किसी की आवाज बन सकें। किसी को सांत्वना दे सकें। किसी को उसके डरावने वर्तमान और अंधेरे भविष्य से मुक्ति दिला सकें।

ग्रामीण परिवेश में जन्मा, पला-बढ़ा होने के कारण और  ग्रामीण अंचल में ही कार्यरत होने के कारण मैं लोगों के सुख-दुख, संघर्ष, जिजीविषा, घुटन.. मेरी रचनाओं में अनायास ही आते रहते हैं। 
मानव-जीवन की, उसके परिवेश की जड़ता को तोड़कर कष्टमय वर्तमान और अनिश्चित भविष्य की राह को आसान बनाने की इच्छा ही मेरे लेखन का मूल उद्देश्य है।

प्रसिद्ध साहित्यकार कमलेश्वर ने भी कहा था कि लेखन में ही मुक्ति है। कला का हर रूप यही चाहता है। लिखना भी एक कला है और लेखन का उद्देश्य भी मुक्ति की कामना ही है। इसलिए जब अन्याय, झूठ, पाखण्ड, अंधविश्वास, हिंसा, नफरत, साम्प्रदायिकता, सामाजिक असमानता से उत्पन्न स्थितियां मानव जीवन को 
दुखी करती हैं, झकझोरती हैं तो इन सबसे मुक्ति के लिए उन अनुभूतियों को शब्दों में ढालकर, उन संवेदनाओं को दूसरे लोगों तक, ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाने के लिए लिखता हूँ। क्योंकि बोलकर, भाषण देकर अपनी बातों को लोगों तक संप्रेषित करने के विकल्प सीमित हैं, और इसमें एक तरह का संकोच भी आड़े आ जाता है, इसलिए लिखकर अपनी बातें लोगों तक संप्रेषित करना ज्यादा बेहतरीन विकल्प है, और मैं इसीलिए लिखता हूँ।

* प्रेम नंदन
शकुन नगर, सिविल लाइंस
फतेहपुर (उ0प्र0)
मो0 : 09336453835
ईमेल : premnandanftp@gmail.com

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