गुरुवार, 11 अगस्त 2022

राजेन्द्र राव

कथा का विलक्षण शिल्पी : राजेन्द्र राव ----------------------------------------------
@ प्रेम नंदन 

राजेन्द्र राव वरिष्ठ कथाकार हैं अपनी कहानियों और उपन्यासों के आधुनिक समस्यामूलक कथाबिम्बों के कारण वो हिन्दी बहुपठित कथाकार हैं । समकालीन कहानी ने परम्परागत फार्मेट में पर्याप्त तोडफोड कर ली है अब वह भाषा से लेकर विषय तक किसी भी पक्ष में परम्परा के पेशेवर अन्दाज का परित्याग कर चुकी है । राजेन्द्र राव की कहानियों को इसी परित्याग के सन्दर्भ में परखना होगा । राजेन्द्र जी अपने समूचे रचनात्मक जीवन में प्रयोगधर्मी रहे ।हर एक कहानी अगली कहानी से पृथक रचनात्मक भाषा और विषय लेकर चलती रही । शिल्प में भी वो वैविध्यपूर्ण हस्तक्षेप करते है।शायद इसी  विविधता के कारण उनकी समीक्षा के प्रतिमान अभी तक नही बन पाए किसी भी लेखक के समीक्षा प्रतिमान तभी निर्मित होते हैं जब वो शिल्प के स्तर पर व भाषा के स्तर पर एकरसता व एकरूपता का संवहन करता है । नवीन जीवनबोध , नयी समस्याओं के लिए निरन्तर शैल्पिक प्रयोग परम्परागत आलोचना प्रतिमानों में नही अंटते अतः या तो आलोचक समीक्षण का साहस नही करता या फिर वो लेखक के कृतित्व को जानबूझकर पढना नही चाहता है यही कारण है राजेन्द्र राव के कथासाहित्य का अब तक समुचित  मूल्यांकन नही हो सका है बिल्कुल वैसे ही जैसे माधवराव सप्रे , चतुरसेन शास्त्री , भगवती चरण वर्मा और दूधनाथ सिंह के कथा साहित्य का अब तक मूल्यांकन नही हो सका है ।माधवराव सप्रे छत्तीसगढ के थे उनकी कहानी टोकरी भर मिट्टी को हिन्दी की पहली कहानी कहा जाता है अपने समय की सबसे यथार्थ कहानी थी मगर भाषा और शिल्प के स्तर पर वह अपने समकालीन से बहुत आगे थी यही कारण है इस कथा को अनदेखा किया गया और माधवराव सप्रे को वह महत्व नही मिल सका जो मिलना चाहिए । चतुरसेन शास्त्री इतिहास और संस्कृति को लेकर नवीन जीवनबोध की कहानी लिखते थे जिनसे मिथक तो इतिहास और पुराण से लेते थे पर सन्देश आधुनिक होता था । उनका युग प्रेमचन्द का युग था प्रेमचन्द के विशाल व्यक्तित्व के समक्ष इस यथार्थवादी कथाकार की भी उपेक्षा की गयी । राजेन्द्र राव का युग आजादी के बाद का हिन्दुस्तानी युग है । आजादी के बाद नवजात मध्यमवर्ग व उसकी सामाजिक पारिवारिक संघर्षों व विडम्बनाओं को उनके कथा साहित्य में तरजीह दी गयी है इसका आशय यह नही की उनकी कहानियों में सर्वहारा चरित्र नही है 
राजेन्द्र राव की कथाओं का फलक अति विस्तृत है इस व्यापक फलक पर यह आरोप कतई नहीं लग सकता कि उनकी दृष्टि में वर्गीय विभेद नही है  । यह सच है वो जीवन की यथार्थ अर्थछबियों सें यकीन रखते हैं यह आधुनिक कथाकारों का लक्षण है कि वो किस्सा या गल्प की बजाय यथार्थ व अनुभूत सच को अधिक तरजीह देते हैं जीवन का अनुभूत तथ्य कथा को गतिशील तभी बनाता है जब वह डबी घटनात्मक परिणिति मे अपने आप को तब्दील कर ले । यही अधिकांश लेखक कर रहे है कुछ के लिए घटना का बडा होना ही कथा की बुनावट है अस्तु वो तमाम छोटी छोटी घटनाओं का संजाल तैयार करके कथानक को बडी घटना के रूप मे तैयार कर लेते हैं उनके लिए छोटी घटनाएं महज तैयारी का काम करती है ऐसी कहानियाँ अधिकांशतः विवरण बनकर रह जाती हैं ज्ञानरंजन मे इस टेक्निक को देखा जा सकता है उनकी पिता कहानी भी मध्यमवर्गीय है पर अयथार्थ घटनाओं का ऐसा संजाल बुना गया है कि कहानी यथार्थ को अधिक प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त नही कर पाती है राजेन्द्र राव इस कथा टेक्निक का उपयोग एकदम नही करते हैं उनकी शैली सबसे अलहदा है वो तमाम टेक्निकों को धता बताकर परिवेश सृजन पर अधिक बल देते है "लौकी का तेल" कहानी को ही देखिए इस कहानी मे लेखक अपने मन्तव्यों की प्रतिपुष्टि मे वस्तु चित्रण व वातावरण को इतना व्यापक व सूक्ष्मता से युक्त कर देता है कि तमाम संवाद और घटनाएं वातावरण की स्मृति बिम्ब से उपजे लगने लगते है समूची कहानी मे कोई भी घटना अस्वाभाविक व थोपी गयी नही प्रतीत होती वातावरण प्रधानता के कारण कथा भी कभी कभी गौंण हो जाती है मगर प्रवाह बाधित नही है ।यह नवीन टेक्निक है जिसे काशीनाथ सिंह और दूधनाथ सिंह भी सफलता पूर्वक प्रयोग करते हैं ।  
जाहिर है जब लेखक का उद्देय वातावरण और उससे जन्य चरित्र ही कथानक के आधार होगें तो लेखक कहानी की माँग के अनुसार ही वर्गीय चरित्र लाएगा यदि वातावरण में चरित्र की जरूरत नही हो तो लेखक इस अकथ जोखिम को क्यों उठाए हलाँकि राजेन्द्रराव जोखिम के कथाकार है पर वातावरण मे जोखिम की सम्भावना कम रहती है फिर भी वर्गीय नजरिए से वो पृथक नही है ड्राईवर , दुकानदार , फुटपाथ , सब्जीवाले , बेरा , पालिसवाला , जैसे चरित्र स्वाभाविक रूप से उनकी कहानियों मे जगह पाते हैं पर इनकी वर्गीय अवस्तिथि को परखने के लिए आलोचक को भी वातावरण को परखने का जोखिम उठाना पडेगा ।ये सारे चरित्र सर्वहारा के हैं बहुत से लोगों की धारणा है कि वो लोक और सर्वहारा का विभाजन करते समय गाँव और शहर की अवैचारिक सीमाओं में कैद हो जाते हैं जबकि लोक और अभिजात्य का विभाजन शहर और गा्ँव का विभाजन नही है वह वर्गीय विभाजन है विचारधारा का सवाल है । यदि गाँव में किसान मजदूर सर्वहारा है तो शहर मे रिक्सेवाले खोमचेवाले , जैसे समुदाय सर्वहारा है क्योंकी दोनो की वर्गीय स्थिति और शोषक शक्तियाँ एक जैसी है दोनो के तरीके अलग मगर मन्शा एक ही है समस्याएं एक ही है यदि इस नजरिए से राजेन्द्र राव की कहानियों को देखा जाए तो राव भी सर्वहारा के कथाकार ठहरते हैं और उनकी दृस्टि भी वर्गीय दिखाई देती है | साथ ही नवीनता बोध भी राजेन्द्र राव की कहानियाँ हमारे समय की विडंबनाओं को नए ढंग से रेखांकित करती हैं, वे अपनी कहानियों मे समाज मे होने वाली सामान्य सी घटनाओं को लेते  हैं और फिर कथ्य और शिल्प से ऐसा ताना-बना बुनते हैं कि हम उनसे जुडते चले जाते हैं | सामाजिक रिस्तों की  आपाधापी के बीच वे रिस्तों को बचाने की  कोशिश करती  कहानियाँ लिखने वाले काहनीकर हैं|

अपनी चर्चित कहानी  दोपहर का भोजन मे वे प्रेम के सामाजिक अंतर्द्वंद  को हरे हमारे सामने रखते हैं , हमारा समाज  शुरू से ही प्रेम के प्रति बहुत ही असहिष्णु रहा है , ये कहानी भी उसी ओर इशारा करती है| इस कहानी में नायिका की बड़ी बहन एक सिक्ख लड़के से शादी कर लेती है जिसके कारण उसके माँ-बाप उससे  रिस्ता तोड़ लेते हैं ,अब नायिका को डर हैं की कहीं उसके साथ भी ऐसा ही न हो , जिसकी पूरी सांभावन है ,तो वह  दूसरे विकल्पों की तलाश मे जुट जाती है  जिससे उसका प्यार भी बचा रहे और माँ- बाप का आशीर्वाद भी | इस कहानी मे एक प्रेमी जोड़ा हैं जो अपने प्रेम को बचाए रखने के साथ-साथ अपने माँ-बाप का भी आशीर्वाद  चाहता है लेकिन ये संभव होता नहीं दिखता तो वे कोई दूसरा रास्ता तलाशने कि कोशिश करते दिखाई देते हैं जिससे उनका प्रेम और माँ- बाप का प्यार भी मिलता रहे| राजेंद्र राव ने और भी कई प्रेम कहानियाँ लिखी हैं उनकी इन कहानैयों मे एक तरफ उद्दाम प्रेम मे डूबते –उतराते प्रेमी युगल दिखते हऐन तो  दूसरी तरफ परिवार और सामाज की बेड़ियों मे जकड़े अपने प्रेम को कुर्बान करर्ते प्रेमी – प्रेमिका भी दिखाई देते हैं | लेकिन दोपहर  का भोजन कहानी  मे ये प्रेमी जोड़ा कोई नए रास्ते की तलाश करते दिखाई  देते हैं |  
साहित्य मे राजनीतिक और पूँजीपतियों ने कैसी सेंध लगाई हैं इसको देखना के लिए राजेंद्र  राव की कहानी – मैं राम की बाहुरिया पढ़ना चाहिये इस कहानी मे उन्होने दिखाया हैं कि कैसे  एक पूंजी पति आपने राजनीतिक  संपर्कों के जरिये पहले अकूत संपत्ति अर्जित करता है और जब वह संपप्ति उसके गले की हड्डी बनने लगती है तो फिर उसी काली कमाई के जरिये साहित्य मे घुसपैठ करके, एक चर्चित साहित्यकार बनकर , साहित्य का नियंता बन बैठता है ,इस कहानी के जरिये राजेंद्र राव ने पहले ही जयपुर साहित्य महोत्सव जैसे आयोजनाओ और फर्जी लेखकों की ओर इशारा कर दिया था | उन्होने अपनी एक अन्य कहानी लौकी का तेल मे राजनीति और पूँजीपतियों के गठजोड़ को दर्शाने की प्रयास किया है इस कहानी मे उन्होने दिखाया हैं की पूंजीपति लोग कैसे अपने फायदे के लिए राजनीती इस्तेमाल करते हैं और राजनीतिक लोग भी अपनी राजनीति चमकाने मे जनता के हितों की कोई परवाह नहीं करते हैं |राजेन्द्र राव की कहानियों मे अपने समय के तनावों को मजबूती से उठाया गया है पूंजीवादी व्यवस्था कैसे अपने जाल फैलाती है और आम जन मानस को अपनी आगोस मे लेकर उनका खून चूसती है , इन सब बातों को वे बड़ी बारीकी से पकड़ते हैं और इस जाल मे उलझे आम आदमी की छटपटाहट को रेखांकित करते हैं|  राजेन्द्र राव जी अपनी कहानियों मे शिल्प के स्तर पर बहुत ज्यादा प्रयोग न करके अपनी बात सीधे सरल शब्दों मे घटनाओं को पिरोते हैं और बिना किसी नाटकीयता के कहानी को आगे बढ़ाते हैं | छोटी छोटी बिम्बावलियों और दृष्यों से कथानक सृजित कर देना कला है राजेन्द्र राव इस कला में सिद्धहस्त है । इस टेक्निक मे लेखक हर स्थान में स्वयम् उपस्थित रहता है ।अक्सर कहानियों मे लेखक कथा कहते कहते नेपथ्य मे चला जाता है वह पाठक की भावानुभूतियों और प्रतिक्रियाओं के बूते कथानक को व गतिशीलता को आगे बढाता रहता है इससे कथानक पूर्ण रूप से तारतम्यता पर निर्भर होता है पाठक का व्यवधान भी लेखक का व्यवधान बन जाता है राव इस स्थिति से परिचित हैं । अतः उन्होने अपनी अधिकांश कहानियों में खुद को भी उपस्थिति करके करके रखा है लेखक गायब नही होता है वह गाईड की तरह कथानक को सपाट और सुग्राह बनाता हुआ चलता है । हलांकि मैं शैली मे उनकी अधिक कहानिया नही है न ही वो उत्तम पुरुष के रूप मे कही उपस्थित है पर अन्य सत्ता के रूप भे विवरण देते समय लेखक की उपस्थिति का जोरदार आभाष होता रहता है यह भी प्रयोगधर्मी जोखिम की तरह है  इस जोखिम मे लेखक सफल हो जाता है एक तरफ वो पाठक को बाँधकर रखने मे सफल होता तो दूसरी तरफ वो चरित्र का आवश्यक विस्तार भी कर देता है । यदि लेखक प्रकारान्तर से अपनी कहानी मे उपस्थित है तो वह अपने मन्तव्यों को जीवन से जुडे सवालों के साथ अधिक सफलता से प्रेषित कर सकता है मुन्सी प्रेमचन्द की बहुत सी कहानियों मे इस विशिष्टता को देखा जा सकता है । लेखक की उपस्थिति से पाठक और लेखक का चिन्तन व आवेग समानान्तर हो जाते है पाठक लेखक की दृष्टि से सीधे जुड जाता है अतः ऐसी कहानियाँ प्रभावोत्पादकता की दृष्टि से अधिक सफल होती हैं । ऐसी कहानियाँ संवादी भंगिमा से युक्त होकर बेधडक आगे बढती जाती है । इस विशिष्टता के कारण राजेन्द्र राव की कहानिया पाठक के भीतर अरुचि मा ऊब नही उत्पन्न करती है वह और भी अधिक संघातों का गरिमामय प्रतिबिम्ब बनाती हैं
राजेन्द्र राव की कृतियाँ उनके व्यक्तित्व का परिचय कराती है एक ऐसा व्यक्तित्व जिसमे चिन्तन के सूक्ष्म तन्तु व वैचारिक बनावटों की तहें भी उपस्थित हैं । चूँकि लेखक की वैचारिक अवस्थितियाँ साहित्यिक , सांस्कृतिक व सामाजिक परिवेश की पैदाईस होती है लेखक का चतुर्दिक देशकाल ही उसकी विचार प्रक्रिया व चिन्तन को सामाजिक आधार देता है यदि राजेन्द राव जी की कहानियों मे मध्यमवर्गीय परिवारों व उनकी समस्याओं का प्रतिबिम्ब है तो इसके लिए उनका सामाजिक यथार्थ उत्तरदायी है । लेखक अपने आस पास के अपने लोगों को ही कहानी या कविता का विषय बनाता है वह अपने परिवेश से बाहर निकलना नही चाहता यदि वह निकलेगा तो कहानी मे कहीं न कहीं नकलीपन जरूर आ जाएगा और कहानी के निकष जीवन अनुभव के निकष बनकर नही उपस्थित हो सकेगे राव की साहित्यिक प्रेरणा भारत के वृहत्तर सामाजिक जीवन की फरिलब्धि है उनकी कहानियों की इमारत शून्य मे नही बनी कल्पना की अनुकृति नही है वह यथार्थ की इबारत है ।वैचारिक व्यक्तिगत अनुभवों की संवेगशील अभिव्यक्ति है । शिल्प और भाषा के सम्बन्ध मे वो अपने समकालीनों से अलग रहे उन्होने दृष्यात्मक व परिदृष्यात्मक शैली का कुशलतम प्रयोग किया है ये दोनो शैली रेणु की उपन्यासों मे भी उपस्थित है ।जब परिवेश को चरितनायक का दर्जा दिया जाना होता है तभी इस शैली का उपयोग होता है इस शैली से कोई भी घटना अस्वाभाविक नही लगती समूचा परिदृष्य अपने आप उपस्थित होता व स्पष्टीकरण देता चला जाता है । समाज के सांस्कृतिक व पारिवारिक सवालों को लेकर राजेन्द्र राव की कहानियाँ व्यापक माहौल विनिर्मित करती हैं इस सन्दर्भ में वो लेखक और समाजशास्त्री दोनो हैं वे अपनी कहानियों में भारतीय अस्मिता वैयक्तिक अस्मिता जातीय अस्मिताओं के सवालों के साथ बहुलतावादी वर्गीय संस्कृति के सवालों से खुलकर मुठभेड करते हैं ।साथ ही समाज को संचालित करने वाली तमाम शक्तियों का पोस्टमार्डम करते हुए जनता के पक्ष मे विरोध व सपनों का खूबसूरत आधार प्रस्तुत करते हैं राव की कहानियाँ चिर परिचित आस्वाद में खलल डाले बगैर नये कथात्मक आस्वाद से परिचित कराती हैं और बहुत कुछ मनुष्य के उपभोक्तावादी जडताओं और मूढताओं का खंडन करती है । लेखक जितना बेरहम जडताओं के खंडन के पक्ष मे है उतना ही दरियादिल व सजग नव निर्माण के प्रति है इसे उनकी निजी रंगत कहिए या अखिल भारतीय वैश्विक परिवर्तनों की समझ वह लोकलटी के साथ वैश्विकता की ओर कदम बढाते हैं स्थानीयता के साथ भूमंडलीकरण को परखते हैं परिवार के आधार पर मनुष्यता को देखते हैं तो विहंगम मानवता के साथ अस्मिता की बात करते है निः सन्देह राजेन्द्र राव हमारे समय के बडे कथाकार है । जिन्हे हम जानबूझकर उपेक्षित नही कर सकते हैं |
                                                                             @ प्रेम नंदन

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