ऐसा ही कुछ हो रहा है
जीवन में
समय की विकट चाल
चार कदम आगे
तो चार कदम पीछे
न जाने क्यों?
स्मृतियां गुनगुनाती हैं
अनाम से
दर्दीले लोकगीत
ओस भरी बोझिल और प्रतीक्षारत
रातों में
सब कुछ तिरोहित हो
बह रहा आँखों की गमगीन कोरों से
लिखता मिटाता हुआ
जीवन की बेढंगी
अधूरी कविता
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