शनिवार, 6 जून 2020

भूमिका

'सपने जिंदा हैं अभी' के द्वितीय संस्करण पर दो शब्द लिखते हुए इसके पहले संस्करण के प्रकाशन के संदर्भ याद आने स्वाभाविक ही हैं। इसके प्रथम संस्करण का प्रकाशन लोकमंगल साहित्य परिषद, फतेहपुर के द्वारा किया गया था, जिसके कर्ताधर्ता राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी के परम शिष्य श्री धनंजय अवस्थी थे।
श्री धनंजय अवस्थी जी ने मेरी डायरी से इन कविताओं का चयन करके, इसका नामकरण किया और इसकी भूमिका प्रसिद्ध आलोचक श्री ओमप्रकाश अवस्थी जी से लिखवाई।
अब याद करता हूँ तो विस्मय होता है कि कोई साहित्यकार एक अनजाने और नवोदित रचनाकार के लिए इतना सह्रदय भी हो सकता है।
श्री धनंजय अवस्थी जी से मिलने की भी एक कहानी है।

तब तक मैं किसी भी साहित्यकार से साक्षात नहीं मिला था। न ही किसी साहित्यकार को जानता था। एक दिन मैं एक स्थानीय हिंदी दैनिक अखबार की रविवासरीय परिशिष्ट में प्रकाशित करवाने के लिए कुछ कविताएं देने गया था। वहीं कार्यालय में बैठे एक सज्जन ने जब मेरी कविताएं देखीं तो उन्होंने सहज ही पूछ लिया । अच्छा तो तुम भी कविताएं लिखते हो?

बातों-बातों में उन्होंने जनपद के वरिष्ठ साहित्यकार धनंजय अवस्थी का नाम लिया। उन्होंने धनंजय अवस्थी जी के प्रसिद्ध खंडकाव्य 'शबरी' का ज़िक्र किया।  उन दिनो 'शबरी' खंडकाव्य कानपुर विश्वविद्यालय (वर्तमान में छत्रपति शाहू जी महाराज, कानपुर) में हिंदी के स्नातक द्वितीय वर्ष के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती थी। मैने उन सज्जन से धनंजय जी का पता लिया और अगली सुबह ही किसी साहित्यकार से प्रथम बार साक्षात मिलने के रोमांच से प्रफुल्लित, अगली सुबह ही उनके घर जा पहुंचा।

वह सर्दियों की कोई (फरवरी 1997 के किसी दिन की) कोई गुनगुनी सुबह थी जब मैं श्री धनंजय अवस्थी जी का पता पूछते-पूछते उनके घर जा पहुँचा था। घर के सामने एक सज्जन मीठी धूप सेंकते हुए अखबार में तल्लीन थे। मैं उनके पास गया और प्रणाम करते हुए पूछा -' क्या श्री धनंजय अवस्थी जी का घर यही है?
वे महाशय अखबार एक तरफ रखते हुए मुझे पास रखी दूसरी कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए बोले- कहिए, क्या काम है?
यह कहते हुए उनके चेहरे पर मधुर मुस्कान तैर रही थी।
 मैंने कुछ सकुचाते हुए कहा- 'उनसे मिलना है।'
'मैं ही धनंजय अवस्थी हूँ'- वे उसी मधुर मुस्कान के साथ बोले।
मैंने लपककर उनके पैर छुए और कुर्सी खींचकर उनके पास बैठ गया। मैं पहली बार किसी साहित्यकार की सामने देखकर इतना रोमांचित था कि यह समझ नहीं पा रहा था कि क्या बातें करूँ?

मेरी उलझन देखकर उन्होंने ही बातचीत शुरू की। सबसे पहले मेरा नाम पूछा। मैंने अपना नाम बताते हुए जब उनसे अपनी रचना कर्म के बारे में बताया तो बहुत खुश हुए और मुझे अपनी रचनाएं दिखाने को कहा। मैं अपने साथ अपनी कुछ कविताएं, गीत और लघुकथाएँ और अखबारों में प्रकाशित अपनी रचनाओं की कटिंग लेकर गया था।जिन्हें डरते -डरते हैं उनको दिखाया।

श्री अवस्थी जी ने चार -पांच कविताएं और गीत बड़े ध्यान से पढ़ने के पश्चात उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई और रचनाओं की सराहना की। कुछ संशोधन करने के सुझाव भी दिए। काफी देर तक वे मुझे रचनाधर्मिता के बारे में बताते रहे । इस दौरान मैं साँसें थामे उनकी बातें सुनता रहा। चलते समय उन्होंने अपना बहुचर्चित खंडकाव्य 'शबरी' की एक प्रति मुझे अपने हस्ताक्षर करके भेंट की, जो मेरे लिए सबसे अमूल्य भेंट बन गई।

उस पहली मुलाकात में ही श्री अवस्थी जी ने मुझ जैसे अनजान और नए रचनाकार से जितना आत्मीय व्यवहार किया, आगे मिलते रहने के लिए कहा। उनके द्वारा किया गया प्रोत्साहन और लिखते रहने की प्रेरणा देने वाले शब्द मेरे रचनाकार के लिए संजीवनी बन गए।

फिर उनसे मिलने-जुलने का सिलसिला बढ़ता गया। वे मुझे विभिन्न साहित्यिक समारोहों में अपने साथ ले जाते, वरिष्ठ साहित्यकारों से मिलवाते और कविता पाठ करने के अवसर देते। इसके बाद फिर लगभग मेरी हर रचना उनकी नजरों से गुजरती। वे मुझे अपनी कविताओं को विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भेजने के लिए कहते और अपने घर आने वाली पत्रिकाओं को पढ़ने के लिए देते।

अब मेरी कई कविताएं कादम्बिनी, नवनीत, आर्यावर्त जैसी पत्रिकाओं और स्थानीय अखबारों में प्रकाशित हो चुकी थी। अब श्री अवस्थी जी प्रायः कहते कि अब तुम्हारी कविताओं का संग्रह आना चाहिए।वे कहते- लोकमंगल साहित्य परिषद, तुम्हारी कविताओं के संग्रह को छापेगा । मैं संकोच में था और लगातार इसको टाल रहा था। एक दिन उन्होंने आदेशात्मक मुद्रा में कहा, तुम अपनी डायरी मुझे दे जाओ, कविताओं का चयन मैं खुद करूँगा। अब मैं क्या करता, अपनी डायरी उनके सुपुर्द कर दी। बीच-बीच मे कविताओं पर चर्चा-परिचर्चा होती रही। संग्रह का नाम तय हो गया-  'सपने जिंदा हैं अभी'।

लगभग दो महीने बाद उन्होंने मुझे इसकी टाइप की हुई एक प्रति दी और कहा कि इसको ठीक से पढ़ लो, गलतियों को लाल पेन से सही करके लिख दो । पन्द्रह दिन बाद इसे छपने के लिए प्रेस में देना है। 

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