गुरुवार, 4 जून 2020

चितकबरे फ्रेम के धूसर चित्र

चितकबरे फ्रेम के धूसर चित्र (कहानी)
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मैंने उन्हें जब भी देखा, वे हमेशा धूसर रंग के मटमैले और चितकबरे फ्रेम में किसी उदास और रंगहीन चित्र की तरह जड़वत नजर आए!

वे यानी मेरे पिताजी के बचपन के दोस्त। लंगोटिया यार और पड़ोसी । गाँव के प्राथमिक विद्यालय में पांचवीं कक्षा तक एक साथ पढ़ने वाले पिताजी के सहपाठी। मेरे सबसे अच्छे दोस्त गुड्डू के पिताजी। यानी सुमेर बाबू।

वे अपने गाँव महीने में एक-आध बार ही आते और जब भी आते तो दो-तीन दिन की छुट्टियां लेकर आते। सुमेर बाबू को देखते ही मेरे पिताजी की आँखें खुशी से चमकने लगती थीं और चेहरे पर उल्लास छलकने लगता था। वे जब तक गांव में रहते उनका अधिकांश समय मेरे पिताजी के साथ ही बीतता। सुमेर बाबू, पिताजी से उम्र में दो-तीन साल छोटे थे लेकिन दोनों में खूब छनती थी। वे दोनों घण्टों न जाने क्या बतियाया करते थे। उनका इस तरह घण्टों बतियाना हमारे लिए बड़े कौतूहल का विषय हुआ करता था। बात-बात में उठने वाले पिताजी के ठहाकों के बीच कभी-कभी सुमेर बाबू की हल्की सी मुस्कुरहट ही देखने को मिलती। मैंने कभी भी उनको खुलकर हँसते हुए नहीं देखा। मेरे पिताजी बीड़ी पीते थे और सुमेर बाबू खैनी खाते थे। जब दोनों साथ होते तो वे इनकी अदला-बदली करके अपने नशे के स्वाद बदल लिया करते थे।

उनकी दोस्ती की तरह हमारी यानी मेरी और गुड्डू की दोस्ती भी भी पूरे गांव में मशहूर थी। लोग अक्सर कहते कि ये दोनों बिलकुल अपने बापों पर गए हैं। बापों की पुस्तैनी दोस्ती बेटों के सर चढ़कर बोल रही है।

सुमेर बाबू गाँव से लगभग सत्तर किलोमीटर दूर अपने जिला मुख्यालय के एक सरकारी दफ्तर में चपरासी थे। वे वहाँ ऑफिस परिसर में बने सरकारी क्वार्टर में अकेले ही रहते थे। शहर जाने के लिए उन्हें पहले सात-आठ किलोमीटर दूर एक छोटे से कस्बे तक जाना पड़ता था। वहां जाने के लिए कोई साधन नही था। अक्सर पिताजी उनको अपनी साइकिल पर बैठाकर वहां तक छोड़ दिया करते थे।

फिर वहाँ से शहर के लिए बस पकड़नी पड़ती थी। बस उन्हें एक बड़े कस्बे तक पहुँचाती थी। फिर वे वहां के रेलवे स्टेशन पर रूकने वाली, शाम के चार बजे आने वाली एकमात्र पैसेंजर रेलगाड़ी से अपने जिला मुख्यालय पहुँचते थे। 

इस तरह उन्हें गाँव से अपने दफ्तर तक पहुंचने में पूरा एक दिन लग जाता था। यदि गांव से वे सुबह सात बजे निकल लेते तो अपने क्वार्टर पर शाम सात बजे के पहले न पहुँच पाते। कभी कभी तो इससे भी ज्यादा देर हो जाती।

सुमेर बाबू जब घर आते तो उनके घर में खुशियों के बजाय कलह का माहौल बन जाता। इन दिनों गुड्डू मेरे घर पर ही अधिकांशतः समय बिताने की कोशिश करता। मुझे ये बात बिलकुल समझ में नहीं आती थी कि आखिरकार ऐसा क्यों होता है? गुड्डू को तो खुशी होनी चाहिए कि उसके बाबू घर आए हैं लेकिन इन दिनों वह कुछ ज्यादा ही उदास हो जाता था। वैसे उदासी उसके चेहरे का स्थायी भाव थी। वह कभी कभार ही खुश दिखाई देता। मैं उसका सबसे अच्छा और इकलौता दोस्त था, इसके बावजूद भी वह अपने बारे में, अपनी माँ और घर के हालात के बारे में कभी कोई बात नहीं करता था। मेरे बहुत पूछने के बाद भी कभी कुछ नहीं बताता था। बहुत कुरेदने पर वह ऐसे जड़वत हो जाता था जैसे चितकबरे फ्रेम में जड़ा हुआ कोई धूसर चित्र हो। अब मैं भी उससे इस बारे में बातचीत नहीं करता था।

गुड्डू के घर में रोज-रोज होने वाली कलह का कारण मुझे बहुत बाद में पता चला। दरअसल बात यह थी कि गुड्डू के पिताजी ने दो शादियाँ कर रखी थीं। पारिवारिक कलह का कारण दोनों पत्नियों का आपसी मनमुटाव था, जिसके बीज तभी पड़ गए थे जब सुमेर बाबू ने अपनी विवाहिता पत्नी और एक बच्चा होने के बावजूद भी अपनी सगी भौजाई से शादी कर ली थी।

इस दूसरी शादी के पीछे भी एक कहानी है। सुमेर बाबू के बड़े भाई राम बाबू, जो उनसे दो-तीन साल ही बड़े थे, एक बार वे बीमार पड़े तो फिर बहुत इलाज के बाद भी ठीक नहीं हुए और एक दिन चल बसे। दो-तीन साल पहले ही उनकी शादी हुई थी। उनकी पत्नी रन्नो भरी जवानी में विधवा हो गई। अब एक विधवा, अकेली औरत कहाँ जाए? घर की इज्ज़त का वास्ता देकर गुड्डू के बाबा-दादी ने, सुमेर बाबू की पत्नी के घोर विरोध के बाद भी, भौजाई के साथ दूसरा विवाह करवा दिया। बाबा-दादी का तर्क था कि इससे घर की इज्ज़त भी बच जाएगी और सुमेर बाबू को कोई दिक्कत भी नहीं होगी। एक पत्नी उनके साथ शहर में रहेगी और दूसरी गाँव मे खेती-बाड़ी की देखभाल करेगी।

सुमेर बाबू की पहली पत्नी कमला ने इस विवाह का खूब विरोध किया, रोई -गिड़गिड़ाई, सुमेर बाबू के पैरों में अपने दुधमुँहे बच्चे को रखकर मिन्नतें कीं, लेकिन उनपर इस सबका कोई असर नहीं पड़ा। अपने पति, सास-ससुर और जेठानी की चौकड़ी के आगे कमला की  एक न चली। अंततः सुमेर बाबू ने अपनी भौजाई रन्नो को दूसरी पत्नी बना लिया।

इसके विरोध में कमला अपने सात महीने के दुधमुँहे बच्चे को आँचल में लपेटकर मायके चली गई । मायके में माँ-बाप तो थे नहीं जो उसका साथ देते। एक भाई था, वो भी किसी तरह मजदूरी करके अपने परिवार का पेट पालता था। कमला का मायके में भी ठिकाना न लगा। पहले तो कुछ दिन तक सब कुछ ठीक-ठाक रहा। फिर भाई-भौजाई में कमला को लेकर तकरार होने लगी। कुछ दिन तो कमला ने यह सब सहा लेकिन जब जब बर्दास्त न हुआ तो एक दिन वह भारी मन से अपनी ससुराल वापस चली आई।

 जब कमला ससुराल आई तो वहां का माहौल पूरी तरह से बदल चुका था। उस समय सुमेर बाबू अपने दफ़्तर गए हुए थे। उसके सास-ससुर  और रन्नो ने उसे घर मे नहीं घुसने दिया। उसके सास-ससुर उसके मायके चले जाने से बेहद नाराज थे। कमला रोती-गिड़गिड़ाती रही, किन्तु उसकी सुनने वाला कोई न था। कमला अपने बच्चे को गोद में लिए घर के बगल में, जानवरों को बांधने के लिए बनी कच्ची कोठरी के छप्पर के नीचे दो-तीन दिनों तक भूखी-प्यासी पड़ी रही।

दो-तीन दिन बाद किसी तरह ये खबर सुमेर बाबू तक पहुंची तो वे शहर से गांव आये तो इच्छा के बावजूद भी उनके माँ-बाप और रन्नो ने कमला को घर में रखने से पूरी तरह से मना कर दिया।

सुमेर बाबू बड़ी दुविधा में फँसे हुए थे। एक तरफ माँ-बाप और दूसरी पत्नी की जिद और दूसरी तरफ पहली पत्नी और उसके बच्चे का भविष्य।
 वे दो पाटों के बीच में बुरी तरह उलझ गए थे। 
कमला के बहुत रोने-गिड़गिड़ाने और बच्चे की दुहाई देने से वे कुछ विचलित दिख रहे थे।

मेरे पिताजी और अन्य पड़ोसियों के समझाने पर सुमेर बाबू के माँ-बाप तो कमला को घर में रखने को तैयार हो गए। लेकिन रन्नो जिद्द पर अड़ गई।
वह कमला को घर में रखने पर जान देने की धमकियां देने लगी।

अंततः बीच का रास्ता निकाला गया कि दोनों अलग-अलग घर में रहेंगी। तब जाकर मामला शांत हुआ। कमला को वही जानवरों को बांधने वाली वही कच्ची कोठरी रहने को दे दी गई, जिसके बाहर दो-तीन दिनों से कमला अपने बच्चे के साथ भूखी-प्यासी पड़ी रही थी। जीवन यापन के लिए बीघे-डेढ़ बीघे का एक खेत भी दे दिया।
कमला करती भी क्या, उसके पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था। उसने कलेजे पर पत्थर रखकर रोते-बिलखते हुए इसे नियति का खेल मान लिया और मेहनत-मजदूरी करके किसी तरह अपना और अपने बच्चे का पेट पालने लगी।

इसके बाद सुमेर बाबू जब भी शहर से गांव आते अपनी दूसरी पत्नी रन्नो के साथ ही अपने पुराने घर में रहते। इस बीच दूसरी पत्नी से दो बच्चे भी हो गए। वे कमला और गुड्डू की तरफ बिलकुल भी ध्यान न देते। कमला जब कभी उनसे बात करने की कोशिश करती वे उसे झिड़क देते। गुड्डू उनसे बहुत डरता था। जब कमला गुड्डू से कहती कि जा बाबू आए हैं, जाकर पैलगी कर ले तो गुड्डू उनके पास बिलकुल न जाता।

रन्नो को गुड्डू फूटी आंखों नहीं सुहाता था। एक दिन बच्चों की कहासुनी में कमला की गैरमौजूदगी में रन्नो ने गुड्डू पर हँसिए से हमला करके घायल कर दिया। पड़ोसियों ने उसे किसी तरह बचाया था। उस समय कमला खेतों पर काम कर रही थी, जब उसने यह सुना तो फावड़ा लेकर दौड़ी आई थी, उसको देखकर रन्नो अपने घर मे घुसकर दरवाजा बंद कर लिया था।

कमला गुड्डू को सीने से चिपकाए हाथ मे फावड़ा लिए सिंहनी-सी दहाड़ती रही थी। उस दिन रन्नो सामने आ जाती तो कमला उसका खून ही कर देती। चितकबरे फ्रेम में धूसर चित्र -सी जड़ी रहने वाली, हमेशा शांत और अपने काम से काम रखने वाली कमला का पड़ोसियों ने उस दिन एक नया ही रूप देखा था - रौद्र रूप।  अपने बच्चे के लिए किसी से भी टकराने की हिम्मत वाला नारी रूप।

इस घटना ने सुमेर बाबू को खिन्न कर दिया। इसके बाद सुमेर बाबू रन्नो से कुछ कटे-कटे से रहने लगे। अब वे कमला के प्रति थोड़ा प्रेमभाव रखने लगे थे। वे जब भी गाँव आते तो कभी कभार कमला के दरवाजे पर बैठने भी लगे थे, गुड्डू से भी बातचीत भी करते, उसकी पढ़ाई -लिखाई के लिए कुछ पैसे भी दे देते। कभी-कभी खाना भी कमला चाची और गुड्डू के साथ खाते और रात को भी वहीं रुक जाते।

इससे रन्नो और चिढ़ जाती और गाली गलौज करते हुए झगड़ा करने पर उतारू हो जाती। जब भी ऐसा होता, रन्नो आसमान को सर पर उठा लेती, जिस रात सुमेर बाबू कमला के घर रुक जाते, रन्नो सारी रात दोनों को कोसती गरियाती रहती।

ऐसे समय में डर-सहमा, गुड्डू प्रायः मेरे घर आ जाता और रात भर मेरे साथ ही रहता। हम दोनों हमउम्र थे और एक साथ एक ही कक्षा में पढ़ते थे। साथ-साथ स्कूल जाते थे, और साथ ही लौटते, खेलते थे।

गुड्डू पढ़ने में बहुत अच्छा था, मुझे गणित कम समझ आती थी, इसमें वह मेरी मदद करता था।
इस तरह हम दोनों की दोस्ती स्कूल और घर दोनों जगह मशहूर थी। गुड्डू बचपन से ही घर और खेती-बाड़ी के कामों में अपनी अम्मा का हाथ बंटाने लगा था। वह छोटी सी उम्र में ही समझदार हो गया था।

समय अपनी गति से चलता रहा। सुमेर बाबू के बूढ़े माता-पिता भी एक-एक करके चल बसे। सुमेर बाबू भी अब अधेड़ हो चले थे। मैं और गुड्डू स्कूल अब स्कूल जाने लगे थे। अब वे जब भी गाँव आते कमला चाची के घर पर ही ठहरते। 

और जब भी ऐसा होता कलह का बवंडर पूरे परिवार को तहस-नहस करने पर उतारू हो जाता।
रोज-रोज की पारिवारिक कलह से बचने के लिए सुमेर बाबू अब गाँव आने से कतराने लगे थे। वे तीन-तीन, चार-चार महीने तक गाँव न आते।

उन्होंने सारी खेती अपनी दोनों पत्नियों में बाँट दी थी। दो हिस्से रन्नो को और एक हिस्सा कमला को दे दिया था। वे जब आते तो अपनी तनख्वाह भी इसी हिसाब से बांट देते। कमला एक तिहाई हिस्सा पाकर भी कुछ न कहती। लेकिन रन्नो दो तिहाई हिस्सा पाने के बाद भी खुश न रहती। हमेशा ही गाली गलौज करती रहती- लड़ती-झगड़ती रहती।

इस बार सुमेर बाबू सात-आठ महीने बाद गाँव आए तो बिलकुल जीर्ण-शीर्ण हालत में आए। उस समय समय शाम के कोई छः बजे रहे होंगे। मैं और गुड्डू हमारे दरवाजे पर बैठे होमवर्क कर रहे थे।
वे बहुत बीमार दिख रहे थे। बावन-तिरपन की उम्र में ही वे सत्तर बरस के दिखने लगे थे। उनका चेहरा पीला पड़ चुका था, कमर झुकी हुई और आँखें निस्तेज हो गईं थीं। इससे पहले मैंने उन्हें कभी बीमार होते नहीं देखा था।

आते ही वे कमला चाची के दरवाजे पर पड़ी चारपाई पर कटे पेड़ की तरह गिर पड़े। मैं और गुड्डू दोनों दौड़कर उनके पास गए। गुड्डू ने उन्हें पानी दिया और पंखा झलने लगा। उस समय कमला चाची घर पर नहीं थीं, वे खेतों पर काम कर रहीं थी। उन्हें खबर की गई। वे भागते हुए आईं। तब तक मेरे पिताजी भी बाजार से आ गए थे। अपने घर के दरवाजे पर झोला रखकर वे तुरंत ही सुमेर बाबू के पास आ पहुंचे।

पिताजी को देखते ही सुमेर बाबू की आंखों में क्षण भर के लिए एक स्नेहिल चमक उभरी और अगले क्षण ही आँखों की कोरों से ढुलक आए आंसुओं में खो गई। पिताजी की आँखों में भी आँसू भर आए। वे भर्राई आवाज में बोले- 'ये क्या हो गया सुमेर? कुछ नहीं होगा तुम्हें। अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है, जो ऐसी बातें करते हो?  मैं अभी पड़ोस के गाँव वाले डॉक्टर साहब को बुला के लाता हूँ।'
सुमेर बाबू ने पिताजी का हाथ अपने थरथराते हाथों में लेकर भीगी आवाज में कहा- 'मोहन भइया, कुछ नहीं हुआ मुझे, अब समय आ गया है। एक दिन तो सबके साथ यही होना है।'
इतना सुनते ही पिताजी सुमेर बाबू से लिपट गए।

कमला चाची धार-धार रो रहीं थीं और पिताजी से डॉक्टर साहब को बुलाकर लाने को कह रहीं थीं। उधर सुमेर बाबू पिता जी को छोड़ ही नहीं रहे थे।

सुमेर बाबू ने कमला चाची और गुड्डू सिर पर हाथ रखते हुए कहा- 'कमला, कहा-सुना माफ करना।' फिर गुड्डू को गले से लगाते हुए सिर पर हाथ फेरकर ऐसी पश्चात्ताप भरी, भीगी नज़रों से उसे देखा, जैसे माफी मांग रहे हों!

वे जब से आए थे, उन्हें रुक-रुककर खाँसी के दौरे पड़ रहे थे। इस बार उन्हें खाँसी का ऐसा विचित्र दौरा पड़ा जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। दो-तीन मिनट बाद खाँसी बन्द हुई तो वे निढाल हो गए। उनकी आँखें बंद हो गईं। फिर उन्हें एक हिचकी आई और उनका सिर एक तरफ लुढ़ककर ऐसे स्थिर हो गया जैसे वे चितकबरे फ्रेम में जड़े हुए कोई धूसर चित्र हों। 

कमला चाची और गुड्डू, दोनों एक साथ दहाड़ मारकर रो पड़े।
उस समय वहां पर उपस्थित सभी लोगों की आँखें नम हो गईं।
तब तक रन्नो चाची और उनके दोनों बच्चे भी आ चुके थे।
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* प्रेम नंदन
शकुन नगर, सिविल लाइंस,
फतेहपुर, (उ0प्र0)
मो0 : 09336453835
ईमेल : premnandanftp@gmail.com

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