गुरुवार, 4 नवंबर 2021

एक देश बारह दुनिया

बिना किसी राजनीतिक प्रोपोगंडा के जन सरोकारों की जमीनी पत्रकारिता कैसे की जाती है, इसका बेहतरीन उदाहरण है - एक देश बारह दुनिया

-- प्रेम नंदन

हम एक ऐसे देश में रहते हैं जो भिन्नताओं का सबसे बड़ा समुच्चय है। इस देश जैसी भौगोलिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विभिन्नता शायद ही दुनिया के किसी देश में हो! दरअसल यह देश अपने अंदर एक नहीं, हजारों दुनिया समेटे हुए है और उन्ही हजारों दुनियायों में से हासिए की ऐसी ही बारह आवाजों का स्याह, धूसर और दर्दनाक आख्यान है युवा पत्रकार शिरीष खरे की चर्चित किताब- 'एक देश बारह दुनिया'.


 

'वह कल मर गया' दरअसल इस देश की नागरिक व्यवस्था के मर जाने की अनुगूँज है और इसका जीता जागता उदाहरण है - महाराष्ट्र का मेलघाट। जहाँ आज भी कुपोषण से हजारों बच्चों की मौत हो जाती है और ये मौतें किसी भी सरकार के लिए आंकड़ों से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं। जिस देश में लाखों टन अनाज रखरखाव के अभाव में सड़ जाता हो उस देश में भुखमरी और कुपोषण से होने वाली मौतें राष्ट्रीय शर्म का विषय होनी चाहिए।


कमाठीपुरा, महाराष्ट्र की पिंजरेनुमा कोठरियों में कैद होकर सड़ रही बदनसीब जिंदगियों की स्याह इबारतें हर संवेदनशील इंसान को झकझोरने के लिए काफी हैं। अधिकतर मजबूरी में और अपनों की बेवफाई का शिकार युवतियां इस नर्क में अपनी जिंदगी होम कर रहीं हैं लेकिन वे अपने बच्चों को इस दुनिया से दूर रखने के उदास सपनों के सहारे अपनी जिंदगी को किसी तरह से ढो रहीं हैं।



जीवन की मूलभूत सुविधाओं के अभाव में आज भी देश के करोड़ों लोग अपने देश में ही परदेसियों जैसा जीवन जीने को अभिशप्त हैं और देश की तमाम जगहों में से एक ऐसी ही जगह है महाराष्ट्र का कनाडी बुडरुक गाँव; जहाँ के बाशिन्दों के पास आज भी अपनी नागरिकता को साबित करने वाले सबूतों के लिए एक ऐसे कागज के टुकड़ों के लिए मोहताज अपढ़ बंजारे रहते हैं, जो उन्हें देश का नागरिक घोषित कर सके।



भले ही आजादी के इतने सालों बाद भी विकास की चकाचौंध से देश की बेहिसाब आबादी वंचित हो लेकिन फ़िल्मी चकाचौंध से देश की मिचमिचाती आँखे चुँधियाई हुई हैं। कुछ ऐसी ही कहानी है महाराष्ट्र के आष्टी गाँव में रहने वाले नट समुदाय के लोगों की। इस गाँव के घरों में विभिन्न फ़िल्मी सितारों के पोस्टरों से सजी दीवारें इस बात की गवाही देती हैं कि अपनी जान जोखिम में डालकर फिल्मी सितारों के खतरनाक स्टंट करने वालों में इस गाँव के तमाम नट हैं जिनका उपयोग करके उन्हें उनके बदहाल पर छोड़ दिया गया है।


रोजी-रोटी के लिए पलायन इस देश में कोई समस्या ही नहीं है जैसे। आज भी देश के करोड़ों लोग रोजीरोटी की तलाश में दर-दर भटकते रहते हैं। देश के हजारों गाँवों की तरह ही महाराष्ट्र का मस्सा गाँव भी पलायन की मार से कराहते जीवन का नंगा यथार्थ है। गन्ना के खेतों पर कार्य करने वाले, दूसरों की थाली में मिठास घोलने वाले मजदूरों का जीवन किसी कड़वी चीनी से कम नहीं है।


'सूरज को तोड़ने जाना है' महाराष्ट्र के सुदूरवर्ती महादेव बस्ती की पारधी जनजाति की कहानी है जिसे अंग्रेजों ने अपराधी की श्रेणी में रख दिया था। पारधी जनजाति के शिक्षा की मुख्य धारा में जोड़ने वाले अध्यापकों और इस कार्य में सहयोग करने वाले ग्रामीणों की जिज्ञासा और जिजीविषा से ही इस समुदाय के लोग आज सूरज को तोड़ने के सपने देख रहे हैं यह देखना सुखद अनुभव है।


'मीराबेन को नींद नहीं आती' किसी सोपओपेरा का एपिसोड नहीं बल्कि जिंदगी भर खदेड़े/उजाड़े

जाने का एक भयानक और दर्दनाक धारावाहिक है। यह दर्द हर महानगरों की हौलनाक सच्चाई है। गुजरात के प्रमुख शहर सोविएत का 'संगम टेकरी' मोहल्ला इसका ताजा शिकार है। झोपड़पट्टी में रहने वाले हजारों लोगों को रात-रात भर नींद नहीं आती है कि पता नहीं अगली सुबह उनको उजाड़ने की सुबह न हो!


नदियों को मैदान बनाने का खेल पूंजीवादी व्यवस्था का सबसे नापाक खेल है। देश की अधिकांश नदियों को वे बाँधों में बांधकर दुधारू गाय जैसा दोहन कर रहे हैं और विकास के नाम पर विनाश की खतरनाक इबारत लिख रहे हैं। 

विकास के गिद्ध नदियों को नोच-नोच कर खाते जा रहे हैं और यह सिर्फ नर्मदा की ही बात नहीं है। देखना - एक दिन वे देश की सारी नदियों को मैदान बना डालेंगे और हम सिर्फ आठ-आठ आँसू रोने के अलावा कुछ भी नहीं कर पाएंगे।


इस देश में आज भी करोड़ों लोगों के लिए 'सुबह' नहीं हुई है! और सुबह होगी ही इसे विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता! जैसे राजस्थान के बायतु में रहने वाली मीरा और राजौ अन्याय, अत्याचार और दबंगई के गहन अंधकार में गर्दन तक धँसी हुई सुबह होने के इंतजार में आज भी खड़ी हैं।


दंडकारण्य का नाम सुनते ही कान चौकन्ने हो जाते हैं। छत्तीसगढ़ का एक ऐसा इलाका जहां आज भी पुलिस/सुरक्षाकर्मी और इस इलाके के रहने वाले आदिवासी एक दूसरे की जान के दुश्मन बने हुए हैं। इसके लिए लाल आतंक, लाल गलियारा, और न जाने क्या-क्या नाम प्रयोग किए जाते हैं। कोई भी सरकार आदिवासियों की समस्याओं की जड़ तक नहीं पहुँचना चाहती उन्हें बस पूंजीपतियों के लिए प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और आदिवासियों को उनकी जमीन, जंगल से खदेड़ने से मतलब है। 

दंडकारण्य यूँ ही लाल नहीं है, आखिरकार कुछ तो कारण होंगे। जब तक कारणों का निवारण निष्पक्षता से नहीं किया जायेगा,  दंडकारण्य यूँ ही लाल बना रहेगा!



मकदूद्वीप, छत्तीसगढ़ का अकूत सम्पत्तियों से भरपूर एक ऐसा टापू है जो कभी गुप्त कालीन पुरावैभव की कहानी बयां कर सकते थे। आज पूरी तरह से खंडहर हो चुके इस द्वीप में सातवीं से दसवीं शताब्दी पुरानी सभ्यता का संसार ठहरा हुआ है। यहाँ इतिहासकारों को प्राचीन सभ्यताओं के बारे में तमाम जानकारियां मिल सकती हैं क्योंकि ये खंडहर एक गाइड की तरह सदियों से इतिहासकारों के इंतजार में खड़े हैं!



छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा ऐसे ही नहीं कहा जाता। यहाँ पर धान की सैकड़ों प्रजातियों की खेती की जाती है लेकिन अब यह कटोरा खाली रह जाने को अभिशप्त होता जा रहा है। कभी बाढ़, कभी सूखा कभी अन्य प्राकृतिक आपदाएं इस कटोरे को धान की जगह राहत के धोखे से भरने की कोशिश में और खाली करती जा रही हैं। सरकार, अधिकारी और बाबूवर्ग मिलकर जनता को मिलने वाली राहत डकार जाते हैं और जनता के पेट का कटोरा खाली का खाली ही रह जाता है।


पत्रकार शिरीष खरे की चर्चित किताब 'एक देश और बारह दुनिया' से गुजरते हुए देश के विभिन्न इलाकों की जमीनी हकीकत को पूरी शिद्दत से महसूस किया जा सकता है। और यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि बिना किसी राजनीतिक प्रोपोगंडा के जन सरोकारों की जमीनी पत्रकारिता कैसे की जाती है, इसका बेहतरीन उदाहरण है - एक देश बारह दुनिया।

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किताब - एक देश बारह दुनिया

(रिपोर्ताज -समाज और संस्कृति)

लेखक - शिरीष खरे

प्रकाशक - राजपाल प्रकाशन, नई-दिल्ली

पेज-208

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प्रेम नंदन

09336453835

premnandanftp@gmail.com



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कविता

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