शनिवार, 3 फ़रवरी 2024

कविता

दुनिया की प्रत्येक चीज 
 संदेह से दूर नहीं

मैं और तुम 
दोनों भी खड़े हैं
संदेह के आखिरी बिंदु पर

तुम मुझ देखो
संदेहास्पद नजरों से
मैं तुम्हें

कविता 
संदेह के इन्हीं रास्तों पर
शब्दों की अविकल आवाजाही है

जीवन और मौत के बीच
संदेह का विस्तृत 
व्यापार है कविता

शुक्रवार, 3 नवंबर 2023

kunwar ravindra

रंगों और शब्दों का अद्भुत कोलाज हैं कुंवर रवीन्द्र के चित्र 



समय की विद्रूपताओं और त्रासद यथार्थ को   अपनी तुलिका से चित्रित करने वाले, कुंवर रवीन्द्र अपने समय के विलक्षण कलाकार हैं | वे रंग और रेखाओं के सयोंजन से जीवन की संभावनाओं को जिंदा रखने और उन्हें संबल प्रदान करने वाले चित्रकार हैं  | उनके चित्रों में सर्वत्र दिखाई देने वाली एक  चिड़िया  उनकी इन्ही  प्रतिबद्धताओं का प्रतीक है | उन्होंने अब तक १७००० से ज्यादा चित्र बनाये हैं और वर्तमान की लगभग सभी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के आवरण में उनके बनाये चित्र दिखाई देते हैं | लगभग सभी प्रकाशन समूहों से हर साल प्रकशित सैकड़ों किताबों के कवर उनकी तूलिका से बने होते  हैं | शायद ही कोई ऐसा रचनाकार होगा जिसकी कविताओं पर उन्होंने चित्र न बनायें हों | उनके द्वारा बनाये गए विभिन्न कविता पोस्टरों में जब रंगों के साथ शब्दों की जुगलबंदी होती है तो कविता और चित्र दोनों का प्रभाव बहुगुणित हो जाता है | शब्दों में निहित ताप जब कैनवास पर रंगों को तपाता है तो मानो कविता में बिम्ब खिल-खिल उठते हैं और उनकी तपिश को बाखूबी महसूस किया जा सकता है |

 रवींन्द्र जी इतने सहज और सरल हैं कि बड़े और अपने समकालीन रचनाकारों के साथ-साथ वे नवोदित रचनाकारों की कविताओं पर भी चित्र बनाते हैं | हाँ , एक बात जरूर है कि ऐसा वे अपनी शर्तों पर ही करते हैं |  उनकी अब तक दर्जनों एकल एवं सामूहिक चित्र प्रदर्शनी देश के विभिन्न शहरों में लग  चुकी हैं वे कैनवास पर रंगों के माध्यम से कविता जैसे सहज और ग्राह्य चित्र बनाने वाले चित्रकार हैं | वैसे तो उनकी पहचान एक चित्रकार के रूप में ज्यादा है लेकिन वे जितने अच्छे चित्रकार हैं उतने ही बड़े कवि भी हैं | ये अलग बात है कि उनकी प्रसिद्धि एक चित्रकार के रूप में ज्यादा है | 



एक चित्रकार और कवि के रूप में मैं उनके नाम से तो काफी पहले से परिचित था लेकिन उनसे साक्षात मिलने का अवसर मिला लोक विमर्श -२०१५ के पिथौरागढ़ के लोक विमर्श शिविर में | लोक विमर्श -२०१५ के सात दिवसीय लोक विमर्श शिविर की शुरुआत ही कुंवर रवीन्द्र की एकल चित्र प्रदर्शनी से हुई | ०८ जून २०१५ को पिथौरागढ़ में पहाड़ी स्थापत्य कला में निर्मित एक होटल “बाखली “ के एक विस्तृत हाल में रवीन्द्र जी की तूलिका से  सजे चित्र एवं कविता पोस्टर प्रदर्शनी को देखना –समझना मेरे लिए एक रोमांचकारी अनुभव था| इस प्रदर्शनी में उनके ६० कविता पोस्टर लगाए गए थे जिनमे धूमिल , मुक्तिबोध , नागार्जुन , रघुवीर सहाय , शील , मानबहादुर सिंह , केशव तिवारी ,नवनीत पाण्डेय , महेश पुनेठा , सहित हिंदी के तमाम कवियों की कविताएँ रवींद्र जी के कविता पोस्टरों में जीवन के विविध रंग बिखेर रहीं थीं उनके चित्रों में चित्रित विभिन्न कवियों की कवितायें जीवन के कुछ अलग ही तेवर दिखा रहीं थीं |


इस प्रदर्शनी के बाद अगले पूरे सप्ताह भर हम लोगों को उनके साथ रहने – बतियाने का मौका मिला | जैसे ही समय मिलता हम लोग उनको घेर लेते और उनके चित्रों के बारे में उनसे बात करते | वे मुस्कुराते हुए बड़े धैर्य से हम लोगों की बातें सुनते और हमारी शंका का समाधान करते | इस दौरान हमें कभी ऐसा नहीं लगा कि की हम इतने बड़े चित्रकार से बातें कर रहे हैं |  हम बच्चों के साथ उनका मित्रवत व्यवहार उनके बड़प्पन को और गरिमा प्रदान करता रहा और हम लोगों की नजरों में वे और सम्मानीय हो गए |  रवींद्र जी  रिस्तो में नजदीकी के साथ-साथ एक सम्मानित दूरी बनाए रखने वाले एक बेहद ही सहज और सरल इंसान हैं |  इस मामले में उनकी कविताओं, चित्रों और व्यक्तित्व में रत्ती भर का भी अंतर नहीं हैं | जैसा सहज , सरल उनका व्यक्तित्व है वैसी ही उनकी कविताएँ और उनके चित्र | वे अपने चित्रों में रंगों से कवितायें लिखते हैं और अपनी कविताओं में शब्दों से चित्र उकेरते हैं | वैसे तो उनकी पहचान एक चित्रकार के रूप में ज्यादा है लेकिन रवीन्द्र जी एक बेहतरीन कवि भी हैं | वे प्रायः अपनी कविताओं पर कम बात करते हैं लेकिन जब उनकी कवितायें उनके बनाए पोस्टरों में चित्रित होती हैं तो यह सामंजस्य का एक ऐसा अद्भुत कोलाज बनता हैं कि कविता चित्र बन जाती हैं और चित्र कविता | आइए उनके इस अद्भुत कोलाज को हम भी महसूस करें .... . 

सोमवार, 17 जुलाई 2023

मेरे महबूब शहर

जब से होश संभाला
गाँव में रहते हुए 
दो शहरों के बीच
झूलता रहा हमेशा
एक अपना शहर फतेहपुर
दूसरा बाबू जी का शहर इलाहाबाद
(भरवारी, जो अब कौशांबी जनपद में है)
जहाँ भारतीय रेलवे में मुलाजिम थे

और मेरे लिए
पन्द्रह-बीस दिन में
दो-तीन दिन के लिए
गांव आने वाले
रिस्तेदार जैसे

मैं अक्सर सपने में
फटफटिया लेकर 
गाँव से फतेहपुर
और फतेहपुर से भरवारी(इलाहाबाद) के
कई-कई चक्कर लगाया करता था
एक ही बार में

मेरे लिए तब तक 
भरवारी का मतलब इलाहाबाद ही था
जब तक मैं भरवारी नहीं गया

एक बार जब
काफी दिनों तक
पिता जी नहीं आए गांव
तो जिद्द करके
अचानक पहुंच गया भरवारी
पैसेंजर गाड़ी में बैठकर
जब खोजते-खोजते
पिता जी के सरकारी क्वार्टर पहुंचा
वे रात का भोजन बनाने की तैयारी कर रहे थे

मुझे देखते ही चौंके
और भींचकर गले लगा लिया
पिता की आँखों का नम होना
महसूस किया पहली बार 

दो-तीन दिन बाद
जब पिता के साथ लौटा गाँव
मेरे लिए पिता के मायने बदल चुके थे

बुधवार, 21 जून 2023

रंगों और शब्दों का अद्भुत कोलाज हैं कुंवर रवीन्द्र के चित्र 



समय की विद्रूपताओं और त्रासद यथार्थ को   अपनी तुलिका से चित्रित करने वाले, कुंवर रवीन्द्र अपने समय के विलक्षण कलाकार हैं | वे रंग और रेखाओं के सयोंजन से जीवन की संभावनाओं को जिंदा रखने और उन्हें संबल प्रदान करने वाले चित्रकार हैं  | उनके चित्रों में सर्वत्र दिखाई देने वाली एक  चिड़िया  उनकी इन्ही  प्रतिबद्धताओं का प्रतीक है | उन्होंने अब तक १७००० से ज्यादा चित्र बनाये हैं और वर्तमान की लगभग सभी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के आवरण में उनके बनाये चित्र दिखाई देते हैं | लगभग सभी प्रकाशन समूहों से हर साल प्रकशित सैकड़ों किताबों के कवर उनकी तूलिका से बने होते  हैं | शायद ही कोई ऐसा रचनाकार होगा जिसकी कविताओं पर उन्होंने चित्र न बनायें हों | उनके द्वारा बनाये गए विभिन्न कविता पोस्टरों में जब रंगों के साथ शब्दों की जुगलबंदी होती है तो कविता और चित्र दोनों का प्रभाव बहुगुणित हो जाता है | शब्दों में निहित ताप जब कैनवास पर रंगों को तपाता है तो मानो कविता में बिम्ब खिल-खिल उठते हैं और उनकी तपिश को बाखूबी महसूस किया जा सकता है |

 रवींन्द्र जी इतने सहज और सरल हैं कि बड़े और अपने समकालीन रचनाकारों के साथ-साथ वे नवोदित रचनाकारों की कविताओं पर भी चित्र बनाते हैं | हाँ , एक बात जरूर है कि ऐसा वे अपनी शर्तों पर ही करते हैं |  उनकी अब तक दर्जनों एकल एवं सामूहिक चित्र प्रदर्शनी देश के विभिन्न शहरों में लग  चुकी हैं वे कैनवास पर रंगों के माध्यम से कविता जैसे सहज और ग्राह्य चित्र बनाने वाले चित्रकार हैं | वैसे तो उनकी पहचान एक चित्रकार के रूप में ज्यादा है लेकिन वे जितने अच्छे चित्रकार हैं उतने ही बड़े कवि भी हैं | ये अलग बात है कि उनकी प्रसिद्धि एक चित्रकार के रूप में ज्यादा है | 



एक चित्रकार और कवि के रूप में मैं उनके नाम से तो काफी पहले से परिचित था लेकिन उनसे साक्षात मिलने का अवसर मिला लोक विमर्श -२०१५ के पिथौरागढ़ के लोक विमर्श शिविर में | लोक विमर्श -२०१५ के सात दिवसीय लोक विमर्श शिविर की शुरुआत ही कुंवर रवीन्द्र की एकल चित्र प्रदर्शनी से हुई | ०८ जून २०१५ को पिथौरागढ़ में पहाड़ी स्थापत्य कला में निर्मित एक होटल “बाखली “ के एक विस्तृत हाल में रवीन्द्र जी की तूलिका से  सजे चित्र एवं कविता पोस्टर प्रदर्शनी को देखना –समझना मेरे लिए एक रोमांचकारी अनुभव था| इस प्रदर्शनी में उनके ६० कविता पोस्टर लगाए गए थे जिनमे धूमिल , मुक्तिबोध , नागार्जुन , रघुवीर सहाय , शील , मानबहादुर सिंह , केशव तिवारी ,नवनीत पाण्डेय , महेश पुनेठा , सहित हिंदी के तमाम कवियों की कविताएँ रवींद्र जी के कविता पोस्टरों में जीवन के विविध रंग बिखेर रहीं थीं उनके चित्रों में चित्रित विभिन्न कवियों की कवितायें जीवन के कुछ अलग ही तेवर दिखा रहीं थीं |


इस प्रदर्शनी के बाद अगले पूरे सप्ताह भर हम लोगों को उनके साथ रहने – बतियाने का मौका मिला | जैसे ही समय मिलता हम लोग उनको घेर लेते और उनके चित्रों के बारे में उनसे बात करते | वे मुस्कुराते हुए बड़े धैर्य से हम लोगों की बातें सुनते और हमारी शंका का समाधान करते | इस दौरान हमें कभी ऐसा नहीं लगा कि की हम इतने बड़े चित्रकार से बातें कर रहे हैं |  हम बच्चों के साथ उनका मित्रवत व्यवहार उनके बड़प्पन को और गरिमा प्रदान करता रहा और हम लोगों की नजरों में वे और सम्मानीय हो गए |  रवींद्र जी  रिस्तो में नजदीकी के साथ-साथ एक सम्मानित दूरी बनाए रखने वाले एक बेहद ही सहज और सरल इंसान हैं |  इस मामले में उनकी कविताओं, चित्रों और व्यक्तित्व में रत्ती भर का भी अंतर नहीं हैं | जैसा सहज , सरल उनका व्यक्तित्व है वैसी ही उनकी कविताएँ और उनके चित्र | वे अपने चित्रों में रंगों से कवितायें लिखते हैं और अपनी कविताओं में शब्दों से चित्र उकेरते हैं | वैसे तो उनकी पहचान एक चित्रकार के रूप में ज्यादा है लेकिन रवीन्द्र जी एक बेहतरीन कवि भी हैं | वे प्रायः अपनी कविताओं पर कम बात करते हैं लेकिन जब उनकी कवितायें उनके बनाए पोस्टरों में चित्रित होती हैं तो यह सामंजस्य का एक ऐसा अद्भुत कोलाज बनता हैं कि कविता चित्र बन जाती हैं और चित्र कविता | आइए उनके इस अद्भुत कोलाज को हम भी महसूस करें .... . 

शनिवार, 27 मई 2023

मैं क्यों लिखता हूँ

मैं क्यों लिखता हूँ ---final
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‘To make people free is the aim of art, therefore art for me is the science of freedom.’
-Joseph Beuys (1921-1986)
(one of the most influential sculptors and performance artists of the 20th century) 

मैं क्यों लिखता हूँ? यह एक ऐसा सवाल है जिससे प्रत्येक रचनाकार को कभी न कभी दो-चार होना ही पड़ता है। कभी दूसरे यह सवाल पूछते हैं तो कभी रचनाकार स्वयं से यह सवाल पूछने पर मजबूर होता है। देखने में बहुत सरल लगने वाले इस सवाल का उत्तर देना हर रचनाकार के लिए हमेशा ही मुश्किल रहा है।

मैं अपने लेखन की बात करूं तो जब मैं लिखने के कारणों की ओर झाँकने का प्रयास करता हूँ तो कई प्रश्न एक साथ सामने आ खड़े होते हैं- आखिरकार मैंने लिखना कैसे और क्यों शुरू किया?
साहित्य का मेरे घर-परिवार से दूर-दूर तक कहीं कोई रिश्ता नहीं था तो फिर मुझमें लेखन के संस्कार कहाँ से आए? 

बचपन के गलियारों में लौटने पर कई चीजें स्पष्ट हो जाती हैं, बातें शुरूआत की ओर पहुँच जाती हैं।
लिखने के शुरुआती बीज मेरे मष्तिष्क में शायद अम्मा की लोरियों ने बोए होंगे, कविता के प्रति लगाव शायद अम्मा के गाने-गुनगुनाने की आदत से पैदा हुआ होगा। अम्मा के पास लोकगीतों और कहानियों का अकूत भंडार है। 

उन दिनों अम्मा गांव और रिश्तेदारी में एक अच्छी गउनहर के रूप में प्रसिद्ध थी और विभिन्न तीज-त्योहारों और शादी-ब्याह के अवसरों पर लोग उनको इसी गुण के कारण विशेष रूप से आमंत्रित करते थे।

अम्मा अब भी हमेशा कुछ ना कुछ गाती-गुनगुनाती रहती हैं। बचपन में मुझको नींद तभी आती थी जब अम्मा मीठे स्वर में लोरियां सुनाती थी और सुबह उनकी गुनगुनाने की आवाज सुनकर ही आंखें खुलती थीं। दरअसल अम्मा हमारे सोने के बाद ही सोती थी और हमारे जागने के पहले जाग जाती थी और वे घरेलू कार्य करते समय भी प्रायः गाते-गुनगुनाते हुए ही करती थीं, अब भी उनकी यही दिनचर्या है। यह उस समय की लगभग सभी घरेलू महिलाओं की नियमित दिनचर्या होती थी।

अम्मा की लोरियों के पंखों पर सवार होकर जब मैं स्कूल गया तो वहां भी मेरा परिचय सबसे पहले कविता यानी स्कूल में गाई जाने वाली प्रार्थना से  हुआ। हिंदी की किताब में पहला पाठ भी कविता ही था। अम्मा से मिले संस्कारों के कारण बचपन में कविताएँ मुझे शीघ्र ही याद हो जाया करती थीं शायद यही कारण रहा है कि मुझे अपनी किताब की सभी कविताएं याद रहती थीं और मैं उन्हें अक्सर गुनगुनाया करता था।

इस तरह गीतों और कविताओं के प्रति मैं बचपन से ही लगाव महसूस करता था लेकिन कविता या और कुछ लिखने के बारे में तो मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था।

स्कूली शिक्षा खत्म करने के बाद जब मैं आगे की पढ़ाई के लिए शहर आया तो जहाँ मैं किराए पर रहता था उससे कुछ दूरी पर एक राजकीय पुस्तकालय और राजकीय छात्रवास अगल-बगल स्थित थे। मेरे कई सीनियर और परिचित साथी राजकीय छात्रवास में रहते थे और अखबार, पत्रिकाएं पढ़ने के लिए रोजाना राजकीय पुस्तकालय जाते थे । मैं भी उन्ही के साथ पहले तो प्रायः रविवार और फिर नियमित रूप से लाइब्रेरी जाने लगा था लगा। वहाँ पर कई अखबार, प्रतियोगी पत्रिकायें, साहित्यिक पत्रिकाएं आती थीं। वहीं पहली बार अखबारों और पत्रिकाओं से दोस्ती हुई। उस समय 'संपादक ने नाम पत्र' जैसे कॉलम लगभग सभी अखबारों में होते थे। 

विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों कर रहे कई सीनियर साथी संपादक के नाम पत्र लिखते थे और जब वे अखबारों में प्रकाशित होते थे तो बड़े गर्व से हम सबको दिखाते थे कि देखो-मेरा लिखा हुआ अखबार में छपा हैं। उस समय यह देखना काफी रोमांचक अनुभव हुआ करता था। तो इसी की देखा-देखी मैंने भी एक दिन एक पोस्टकार्ड पर विभिन्न सब्जियों की खेतीबाड़ी में प्रयोग होने वाले कीटनाशक दवाओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों को लेकर एक पोस्टकार्ड में कुछ लिखा और उसे पोस्टबॉक्स में डाल आया और फिर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गया। लगभग एक हफ्ते बाद वह पत्र कानपुर महानगर से प्रकाशित होने वाले एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक अखबार के 'संपादक के नाम पत्र' वाले कॉलम में अपने लिखे शब्दों को छपा हुआ देखकर सचमुच आँखों में आँसू आ गए थे। उस घटना के बाद पत्र लिखने का एक सिलसिला ही चल पड़ा। साथियों के साथ खूब पत्र लिखे जाते, कुछ छपते, कुछ न छपते, लेकिन अब इस बात की परवाह न करते हुए जब भी समय मिलता, खूब पोस्टकार्ड लिखे जाते, पोस्ट किए जाते।

हम जिस राजकीय पुस्कालय में पढ़ने जाते थे, शहर में मेरे जैसे तमाम गँवई लड़कों के लिए एकमात्र अड्डा था। यह पुस्कालय जिला विद्यालय निरीक्षक के आधीन था । वहाँ पर सिर्फ एक लाइब्रेरियन और एक चपरासी नियुक्त था। दोनों बहुत मक्कार थे। समय से लाइब्रेरी न खोलना, जल्दी बन्द कर देना , मेम्बरशिप लेने के बावजूद किताबें इश्यू करने में आनाकानी करना, विभिन्न मासिक पत्रिकाओं को पहले अपने घर ले जाना फिर हफ़्ते दो हफ्ते बाद लाइब्रेरी लाना जैसी अनेक करतूतों से  से हम सभी पढ़ने वाले छात्र परेशान रहते थे। हम लोग आए दिन लाइब्रेरियन और चपरासी की शिकायत जिला विद्यालय निरीक्षक से करते, लेकिन उनकी आदतें सुधरने का नाम ही नहीं ले रहीं थी। इन सबसे परेशान होकर हम लोगों ने लाइब्रेरी की समस्याओं और लाइब्रेरियन और चपरासी की शिकायत के रूप में कई पोस्टकार्ड विभिन्न स्थानीय और राष्ट्रीय अखबारों को भेजे। इन शिकायती पत्रों को कई अखबारों ने प्रकाशित किया। जिनमें से कई साथियों के पत्रों के साथ मेरा लिखा शिकायती पत्र भी प्रकाशित हुआ। कुछ स्थानीय अखबारों ने इसे खबर के रूप में छापा। अखबारों में प्रकाशित होने के कारण यह एक बड़ा मुद्दा बन गया, जिसकी आँच जिला विद्यालय निरीक्षक तक पहुँची। उन्होंने इन खबरों को संज्ञान में लेते हुए एक दिन छात्रों के हमारे ग्रुप को अपने ऑफिस में बातचीत के लिए बुलाया। वहाँ पर उन्होंने बड़े ध्यानपूर्वक हमारी शिकायतें सुनी और लाइब्रेरियन व चपरासी को फटकार लगाते हुए आइंदा से नियमानुसार कार्य करने की चेतावनी दी।

जिला विद्यालय निरीक्षक महोदय ने हम लोगो से उन पत्रिकाओं और अखबारों की सूची मांगी, जो हम लोग पढ़ना चाहते थे, लेकिन लाइब्रेरी में नहीं आते थे। उन्होंने उन पत्रिकाओं, अखबारों की लाइब्रेरी भिजवाने की व्यवस्था की। जिसके बाद लाइब्रेरी की व्यवस्था में काफी सुधार हुआ।

इस घटना के बाद पहली बार मुझे शब्दों की ताकत का एहसास हुआ और उसी क्षण मैंने शब्दों से दोस्ती कर ली। अखबारों और प्रतियोगी पत्रिकाओं और साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़ाव और गहरा हुआ। 

इसी दौरान किसी पत्रिका या किताब में (ठीक से याद नहीं आ रहा) जब मैंने अज्ञेय की 'छंदमुक्त' कविता 'हिरोशिमा' पहली बार पढ़ी तो अचानक ही दिमाग में यह विचार बिजली की तरह कौंधा कि इस तरह की कविता तो मैं भी लिख सकता हूँ। एक यह महज एक विचार ही था। मैं उस क्षण एक पंक्ति भी नहीं लिख सका।

इसके दो-तीन महीने बाद ही, जहाँ मैं रहता था , वहीं पड़ोस में एक दुर्घटना घट गई, एक नवब्याहता को जिंदा जला दिया गया। इस दुर्घटना ने मुझे झकझोर कर रख दिया और मेरे दिमाग को बहुत उद्देलित और बेचैन किया। यह बेचैनी कई दिनों तक दिमाग को मथती रही। अन्ततः एक दिन इस बेचैनी से मुक्ति पाने के लिए इसे शब्दों में ढालने के प्रयास में डायरी और पेन लेकर लिखने बैठ गया। उस दिमाग मे पहले से पढ़ी हुई अज्ञेय की कविता 'हिरोशिमा' पूरी तरह हावी थी और उसी से प्रेरित होकर कागज पर एक कविता जैसा कुछ लिख डाला। यह मेरी पहली साहित्यिक रचना थी। कविता का शीर्षक रखा - 'अतृप्त इच्छाओं की वेदी'। 

संयोग से वह कविता एक स्थानीय साप्ताहिक पत्र में छप भी गई। इससे उत्साहित होकर  कुछ और कविताएँ, गीत और लघुकथाएँ लिखीं जो विभिन्न स्थानीय साप्ताहिक पत्रों और दैनिक अखबारों की रविवासरीय परिशिष्ट में छपीं। इस तरह लेखन का सिलसिला शुरू हुआ।

जब स्थानीय साप्ताहिक और दैनिक अखबारों में कुछ कविताएं, गीत लघुकथाएँ प्रकाशित हुईं तो पत्रकारिता करने का भूत सवार हुआ। इसी क्रम में अपने शहर के विभिन्न स्थानीय और राष्ट्रीय अखबारों के ऑफिसों के चक्कर शुरू हुए और इसी दौरान पढ़ाई के साथ-साथ एक स्थानीय हिंदी दैनिक अखबार में विधिवत पत्रकारिता की शुरुआत हुई और कविता, गीत, लघुकथा के साथ-साथ  विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर लेख लिखने लगा।

लेखन के इन विभिन्न चरणों से गुजरते हुए आज भी जब इस सवाल का सामना होता है तो कोई सटीक जवाब नहीं सूझता है। फिर भी कभी दूसरों को तो कभी खुद को जवाब देना ही पड़ता है।

मेरे पास लिखने का कोई एक निश्चित कारण नहीं है बल्कि बहुत सारे कारणों का एक समुच्चय है, जिनके लिए लिखना पड़ता है। कभी संपादकों और मित्रों के आग्रह पर भी लिखना पड़ता है तो कभी किसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए भी लिखना पड़ता है। अखबारी लेखन पैसों के लिए करना पड़ता है।

इस तरह लिखने का एक अन्य प्रमुख कारण अन्याय, झूठ, पाखण्ड, अंधविश्वास, हिंसा, नफरत, साम्प्रदायिकता, सामाजिक असमानता से उत्पन्न बेचैनी, घुटन और संत्रास को अभिव्यक्ति देने और इनसे मुक्ति पाने की छटपटाहट ही है। 

मेरे लिखने का एक और कारण मानवता के प्रति एक समर्पित पक्षधरता है। मैं 'जो जैसा है' से संतुष्ट नहीं होता बल्कि वर्तमान में 'कैसा होना चाहिए' इसके लिए शब्दों की कुदाल से समय की जड़ता को तोड़ने का प्रयास करता रहता हूँ। मैं इसलिए लिखता हूँ कि मेरे लिखे शब्द किसी की आवाज बन सकें। किसी को सांत्वना दे सकें। किसी को उसके डरावने वर्तमान और अंधेरे भविष्य से मुक्ति दिला सकें।

ग्रामीण परिवेश में जन्मा, पला-बढ़ा होने के कारण और  ग्रामीण अंचल में ही कार्यरत होने के कारण मैं लोगों के सुख-दुख, संघर्ष, जिजीविषा, घुटन.. मेरी रचनाओं में अनायास ही आते रहते हैं। 
मानव-जीवन की, उसके परिवेश की जड़ता को तोड़कर कष्टमय वर्तमान और अनिश्चित भविष्य की राह को आसान बनाने की इच्छा ही मेरे लेखन का मूल उद्देश्य है।

प्रसिद्ध साहित्यकार कमलेश्वर ने भी कहा था कि लेखन में ही मुक्ति है। कला का हर रूप यही चाहता है। लिखना भी एक कला है और लेखन का उद्देश्य भी मुक्ति की कामना ही है। इसलिए जब अन्याय, झूठ, पाखण्ड, अंधविश्वास, हिंसा, नफरत, साम्प्रदायिकता, सामाजिक असमानता से उत्पन्न स्थितियां मानव जीवन को 
दुखी करती हैं, झकझोरती हैं तो इन सबसे मुक्ति के लिए उन अनुभूतियों को शब्दों में ढालकर, उन संवेदनाओं को दूसरे लोगों तक, ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाने के लिए लिखता हूँ। क्योंकि बोलकर, भाषण देकर अपनी बातों को लोगों तक संप्रेषित करने के विकल्प सीमित हैं, और इसमें एक तरह का संकोच भी आड़े आ जाता है, इसलिए लिखकर अपनी बातें लोगों तक संप्रेषित करना ज्यादा बेहतरीन विकल्प है, और मैं इसीलिए लिखता हूँ।

* प्रेम नंदन
शकुन नगर, सिविल लाइंस
फतेहपुर (उ0प्र0)
मो0 : 09336453835
ईमेल : premnandanftp@gmail.com

रविवार, 14 मई 2023

अनंतिम इच्छाएं

जैसा कि हर आदमी की
कुछ अनंतिम इच्छाएं होती हैं
मेरी भी हैं।

किसी किताब को पढ़ते हुए
शब्दों के जंगल में
भटकते हुए
साँसे थम जाएं
यही सबसे बेहतर है

फरवरी की गुनगुनी धूप में
खेत की मेड़ पर लेटकर
पेड़-पौधों, फसलों, फूलों, चिड़ियों
और तितलियों से बतियाते हुए
हृदय धड़कना बंद कर दे
सब कुछ शांत हो जाए


इसी तरह की कुछ
अटपटी सी 
अपनी कुछ
अनंतिम इच्छाएं हैं!

सोमवार, 8 मई 2023

बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष: भाग-1

बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष: भाग-1
‘ध्यान पर ध्यान दें तो समस्याएं अंतर्धान’
 
जाने-माने बौद्ध भिक्षु योंगे मिंग्योर रिन्पोछे से विशेष बातचीत
A long interview with Buddhist Monk Yonge Mingure Rinpoche
 
नशे-से चढ़ गए वो, नशे-से चढ़ गए...। एक उम्दा इंसान से मुलाकात के ब्योरे की सस्ती शुरुआत करने के लिए माफी चाहूंगा, लेकिन यह भी सच है कि कई सारे आध्यात्मिक और धार्मिक गुरुओं का इंटरव्यू करने के बाद भी अब तक मुझे कभी ऐसा नहीं लगा था। वैसा, जैसा बौद्ध भिक्षु योंगे मिंग्योर रिन्पोछे के संपर्क में करीब 12 घंटे गुजारने के बाद कुछ लगा। 6 महीनों में कुल 4 मुलाकातें हुईं। अक्टूबर में काठमांडो में आधा घंटा, फिर दिसंबर में  दिल्ली में 2 दिन 6-6 घंटे की रिट्रीट (साधना शिविर) में, उसके बाद गुड़गांव में 2 घंटे आमने-सामने की अकेले में बातचीत। आखिर वाली मुलाकात के बाद 15-20 दिनों तक मेरे जेहन में वह छाए रहे। कारण यह कि आध्यात्मिक साधना के गूढ़ रहस्य उन्होंने खोलकर रख दिए थे। उनकी बताई साधना में कुछ भी तामझाम नहीं, खालिस प्रैक्टिस ही है। इसलिए कई दिनों बाद तक रह-रहकर उनका हंसता-मुस्कुराता चेहरा सामने आ  जाता, उनकी कुछ खास बातें मन दोहराता। सबसे अहम बात, रिट्रीट में की गई प्रैक्टिस: दिन भर कुछ भी काम करते वक्त बीच-बीच में आती-जाती सांस का ध्यान आ जाना। बाद में धीरे-धीरे मंद पड़ते हुए सब खत्म हो गया। इसके लिए जिम्मेदार मेरी अपनी कमी है, साधना पद्धति या गुरु नहीं। अब फिर से शुरुआत की है।
 
खैर, मुझे छोड़ें, रिन्पोछे से मिलें। रिन्पोछे दरअसल तिब्बती बौद्ध धर्म की एक उपाधि है जो किसी भिक्षु को साधना का एक खास स्तर पार करने पर उसका गुरु उसे देता है। यह वाले रिन्पोछे यानी योंगे मिंग्योर रिन्पोछे मौजूदा वक्त में बौद्ध धर्म के स्टार प्रचारकों में से एक हैं। कारण, मिंग्योर अपेक्षाकृत युवा ( 47 साल) हैं,  तकनीक दक्ष हैं,  बुद्ध की गहन शिक्षाओं को आसान भाषा में समझाने में उन्हें महारत हासिल है, ऊपर से हंसी-मजाक का तड़का लगाकर रसभरा बना देते हैं। किताबी बातें नहीं करते। अपने निजी अनुभवों में पिगोकर समझाते हैं। बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा से हैं। सन 1975 में बौद्ध भिक्षु के परिवार में पैदा हुए। बचपन में ही बौद्ध धर्म की शिक्षाओं, दर्शन का गहन अध्धयन कर लिया। 17 साल की उम्र में मठ में शिक्षक नियुक्त हो गए थे। 27 साल के थे जब  सन 2002 में उन्हें अमेरिका बुलाया गया। दरअसल वहां की वैसमैन लैब ब्रेन पर मेडिटेशन के असर पर रिसर्च करना चाहती थी। उसने दुनिया भर में ऐसे लोगों की तलाश की जिन्होंने कम से कम 10 हज़ार घंटे ध्यान किया हो। विज्ञान और मनोविज्ञान में गहरी दिलचस्पी होने के कारण वह खुशी-खुशी इसके लिए राजी हो गए। इस रिसर्च के नतीजों पर दुनिया भर में चर्चा हुई। रिसर्च के मुताबिक, नियमित रूप से ध्यान करनेवाला इंसान अपने मन में मनमाफिक बदलाव ला सकता है। इस रिसर्च के आधार पर अमेरिकी न्यूरो-वैज्ञानिकों ने मैथ्यू रेकर्ड समेत जिन दो-तीन बौद्ध भिक्षुओं को 'दुनिया के सबसे खुश इंसान' का दर्जा दिया था, उनमें यह रिन्पोछे भी हैं। सन 2011 में 36 साल की उम्र में वह अपने मठ से अचानक गायब हो गए। एक खत लिखकर गए, जिसमें अपने एकांतवास में जाने की सूचना दी थी । अपने साथ न कोई पैसा, न कोई डेबिट-क्रेडिट कार्ड और न कोई स्मार्टफोन, न कपड़े आदि लेकर गए। फिर 4 साल इन्होंने भारत और नेपाल में एक आम घुमंतू भिक्षु के तौर पर फुटपाथों पर सोकर, भीख मांगकर गुजारे। इस चुनौती-भरे एकांतवास ने उन्हें नई धार दी। आजकल वह काठमांडो, नेपाल में रहते हैं। वहां वह उधर आनेवालों को या वहीं से ऑनलाइन होकर दुनिया भर के जिज्ञासुओं को ध्यान आदि सिखाते हैं या खुद दुनिया भर में जगह-जगह घूमकर गौतम बुद्ध की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करते हैं। मुझे नेपाली आती नहीं और उन्हें हिंदी। तो सारी बातचीत इंग्लिश में हुई। उनके विट, ह्यूमर और सादगी ने प्रभावित किया। बौद्ध धर्म के भिक्षु के तौर पर दुनिया भर में उनका जो रुतबा और सम्मान है, उस हिसाब से वह बहुत सिंपल हैं। दिल्ली में उनकी यात्रा के दौरान उनके साथ कोई सहायक नहीं था। हां, फाइव स्टार होटल में उनके ठहरने आदि पर मन में कुछ सवाल जरूर मन में उठे थे, जिनका उन्होंने इंटरव्यू के दौरान संतोषजनक जवाब दे दिया। पेश हैं राजेश मित्तल की उनसे हुई लंबी बातचीत के खास हिस्सेः

इंटरव्यू चूंकि काफी लंबा है, वक्त नहीं है तो सार ही जान लेंः

1. It’s ok not to be ok  ज़िंदगी में अगर कुछ ठीक नहीं है तो उस बुरे को भी स्वीकार कर लें, इसके साथ संघर्ष या लड़ाई न करें। किसी से भी न राग रखें, न द्वेष। No Aversion, No Attachment, Being with it. We are ok with everything.

2. Always remember 3 points: Awareness, Compassion and Wisdom. बस ये 3 बातें हर वक्त ध्यान में रखें और इन पर अमल करेंः जागरुकता, करुणा और समझदारी।

3. ऊपर की ये बातें अमल में तभी आ पाती हैं अगर हम रोज 5 मिनट ही सही, ध्यान में ज़रूर बैठें।
 

वैधानिक चेतावनीः पर्याप्त समय और दिलचस्पी होने पर ही पढ़ना शुरू करें।

 
Q. बुद्धत्व यानी आत्मज्ञान पाने के ढेर सारे आध्यात्मिक और धार्मिक रास्ते हैं। मेरे जैसा आम आदमी ऐसे में कन्फ्यूज़ हो जाता है। सही रास्ते की पहचान कैसे करें?
A. सभी धर्मों में तरह-तरह के कर्मकांड हैं, विधियां हैं, ध्यान के भी कई-कई तरीके हैं।  अकेले बौद्ध धर्म में भी एक नहीं, कई रास्ते हैं। इनमें से किसी एक रास्ते पर चलकर हो सकता है कि आप बहुत-सी चीजें सीख रहे हों। हो सकता है कि उनमें से किसी से आपके अंदर जागरुकता जगे, किसी से प्रेम पैदा हो, किसी से विवेक। किसी से ज्ञान मिले और किसी से समझदारी। इस सब रास्तों में एक चीज़ है तो दूसरी मिस। कंप्लीट पैकेज वही कहा जा सकता है जिसमें ये तीनों बातें होंः

1. जागरुकता के साथ जीनाः जागरुकता मतलब, यह जानना कि क्या हो रहा है। अपने विचारों और भावनाओं के प्रति जागरूक रहना, कोशिश करें कि हमें हर वक्त पता रहे कि हमारे भीतर क्या चल रहा है।

2. विवेक के साथ जीनाः व्यक्तियों, परिस्थितियों और वस्तुओं को उसी रूप  में  देखना जैसी कि वे हैं। जानना और याद रखना कि यह सब अस्थायी है। आदत से ऐक्ट-रिऐक्ट करने की जगह विवेक से काम लें।

3. प्रेम और करुणा के साथ जीनाः सभी के साथ अपनेपन से पेश आना, सबकी मदद करना, जिस शख्स ने हमारा बुरा किया है, जो हमें दुख दे रहा है, उसके साथ भी हमदर्दी बरतना।
 
 
Q. निचोड़ देने के लिए आपका शुक्रिया। लेकिन इसे असल जिंदगी में अमल में कैसे लाया जाए? आज की दुनिया में हमारे पास गूगल है, वॉट्सऐप है। हर आदमी के पास ज्ञान है। सबको पता है कि हमें प्यार करना चाहिए, गुस्सा नहीं करना चाहिए आदि-आदि। लेकिन इन्हें ज़िंदगी में उतारना बड़ा चैलेंज है। तो इसे कैसे मुमकिन कर सकते हैं? 
A. बौद्ध धर्म में अनेकों तरह की साधनाएं हैं। भांति-भांति के यान हैं। बुद्ध ने 84,000 शिक्षाएं दी हैं। आप इन सबकी प्रैक्टिस कैसे कर सकते हैं? लेकिन बुद्ध ने आखिर में कहा है कि पहले यह देखें कि इनमें कौन-सी शिक्षा आपसे आसानी से कनेक्ट हो सकती है, कौन-सी आपके लिए सबसे ज्यादा मुफीद है, आपको उसी से शुरुआत करनी चाहिए। आध्यात्मिक साधना में सबसे अहम ध्यान का अभ्यास है। शुरुआत में रोज सिर्फ 5 मिनट ही ध्यान में बैठना शुरू करें। 
 
 
Q. लेकिन 5 मिनट भी ध्यान के लिए निकालना हम लोगों के लिए भारी है। हम हर काम के लिए समय निकाल लेते हैं, लेकिन ध्यान के लिए हम बहाने बनाते रहते हैं। इस समस्या का क्या समाधान है?
A. आप अपने स्मार्टफोन पर रोज कितना वक्त गुजारते हैं? हम बस 5 मिनट सोचकर शुरू करते हैं और 5 घंटे गुजर जाते हैं, हमें पता ही नहीं चलता। ध्यान के लिए 5 मिनट भी नहीं निकल पाते तो ऐसा मोटिवेशन की कमी से होता है। हल यह कि पहले हमें ध्यान की अहमियत समझनी चाहिए। अगर मैं ध्यान करूंगा तो इससे मुझे, मेरे परिवार को, देश-समाज को फायदा होगा। मैं ज्यादा शांत तरीके से ऐक्ट-रिऐक्ट कर पाऊंगा। मैं अपनी समस्याएं गहराई से समझने लगूंगा। इस तरह पहले यह अभ्यास करने का मकसद तलाशें। समय-समय पर इसे लिखते भी रहें। इससे आपको उसका मकसद याद रहेगा। दूसरी अहम बात यह कि इसकी आदत डालें। शुरुआत में यह न सोचें कि मैं रोज़ ही 5 मिनट ध्यान करूंगा। शुरुआत में सिर्फ 30 दिन का लक्ष्य रखें कि मैं अगले 30 दिन तक रोज़ 5 मिनट ध्यान करूंगा। अगर आप 30 दिन तक ऐसा कर लेंगे तो आपके अंदर उसकी आदत अपने आप बन जाएगी। उसके बाद वह मुश्किल नहीं लगेगा। शुरुआत छोटे से करें। आपको एक उदाहरण देता हूं। जब मैं मॉनेस्ट्री कॉलेज में पढ़ता था, वहां कोर्स में ढेर सारी मोटी-मोटी किताबें थीं। मुझे उन सभी को पढ़ना था। लेकिन मैं सबको एकसाथ कैसे पढ़ सकता था। अगर आप यह सोचते हैं कि कुछ ही दिन में सबको पढ़ डालेंगे तो यह कैसे संभव है और अगर आप उन्हें पढ़ने का काम टालते रहेंगे, तब भी कुछ हासिल नहीं होगा। इसलिए मैं हर रोज कुछ-कुछ पन्ने पढ़ता था। हर रोज थोड़ा-थोड़ा। इसमें ज्यादा वक्त भी नहीं लगता था। नतीजा यह हुआ कि मैंने उन सभी पुस्तकों को पढ़ लिया। यह तो हुई एक बात। दूसरी बात यह कि इस ज्ञान को, समझदारी को आपको रोजमर्रा की जिंदगी में उतारना है। आप चलते समय, काम करते समय, सीखते समय, एक्सरसाइज करते समय, लंच करते समय, डिनर करते समय, दूसरों के साथ मिलकर काम करते समय इन्हें थोड़ा-थोड़ा करके अपनी ज़िंदगी में उतार सकते हैं। जब भी, जैसे भी मौका मिले, अपने अंदर उतारते रहिए। जैसे एक खाली बर्तन में अगर बूंद-बूंद करके पानी गिराया जाए तो एक दिन वह पूरा भर जाता है, ठीक उसी तरह। कुछ लोग कहते हैं कि मैं नई भाषा सीखना चाहता हूं। लेकिन किसी नई भाषा को एकदम सीखना बहुत मुश्किल होता है। फिर लोग शिकायत करने लगते हैं कि हम सीख नहीं पा रहे। लेकिन अगर आप रोज एक शब्द भी सीखें तो साल भर के अंदर आप उस भाषा में दूसरे लोगों से बात करने लायक वाक्य सीख ही जाएंगे। 
 
 
Q. इस 5 मिनट के ध्यान को किस तरीके से करना चाहिए?
A. ध्यान कई तरीकों से किया जा सकता हैः सांस पर, आवाज़ पर, मंत्र पर, शरीर की संवेदनाओं पर, अपने विचारों पर, अपनी भावनाओं पर, किसी विकार पर, किसी समस्या पर। किसी शख्स के लिए एक तरह का ध्यान मुनासिब है तो किसी दूसरे के लिए कोई और ध्यान। तरह-तरह के ध्यान आजमाकर देख सकते हैं कि मेरे लिए कौन-सा ध्यान ठीक है। कुछ न समझ आए तो आती-जाती सांस पर ही ध्यान करें। शुरू में आसपास की आवाज़ें परेशान करेंगी। उनसे परेशान होने के बजाय इन आवाज़ों से दोस्ती कर लें। इन्हीं पर कुछ सेकंड ध्यान लगा लें। फिर वापस सांस पर ध्यान लगाएं। अब शरीर डिस्टर्ब करेगा। अगर कसरत आदि से शरीर को थकाने के बाद ध्यान करते हैं तो शरीर कम परेशान करता है। शरीर परेशान करे तो स्वीकार कर लें कि मैं परेशान हो रहा हूं। कोई बात नहीं, यह भी ठीक है। फिर ध्यान सांसों पर ले आएं। इसके बाद परेशानी मन की तरफ से आती है। ध्यान में बैठने पर तरह-तरह के विचारों का रेला शुरू हो जाएगा। बुरे विचारों को रोकने की कोशिश न करें। अच्छे विचारों को भी कोशिश करके न लाएं। जो भी, जैसे भी विचार आएं, आने दें। न तो किसी विचार से बचने की कोशिश करें और न ही किसी को पकड़ने की। जो भी विचार आए, जैसा भी विचार आए, उसे स्वीकार कर लेने के बाद ध्यान को फिर आती-जाती सांस पर फोकस कर लें।
 
 
Q. ऐसा ध्यान रोज-रोज करने से होगा क्या? कहीं मेडिटेशन ओवररेटेड तो नहीं?
A. अगर आप अपना गहन रूपांतरण करना चाहते हैं तो आपको मेडिटेशन की जरूरत होगी। जब हम सांस पर ध्यान लगाते हैं, तो क्या करते हैं? यही कि सांस जैसी भी हो, उसे बस देखना है। इस चक्कर में नहीं पड़ना कि वह गहरी है या उथली। गर्म है या ठंडी। जैसी भी है, बस उसको स्वीकारना है। बाहर शोर हो रहा है, शरीर परेशान कर रहा है, मन में तरह-तरह के विचार उठ रहे हैं। ध्यान में इन सबको सहज रूप से स्वीकार करना सीखते हैं, माफ करना सीखते हैं। जब हम इस चीज़ की प्रैक्टिस रोज ध्यान में करते हैं तो यही प्रैक्टिस हमारे रोज़मर्रा के कामों में भी दिखने लगती है। कैसी भी परिस्थिति हो, उसको हम स्वीकार करने लगते हैं। अपनी और दूसरों की कमियों को भी हम सहजता से लेने लगते हैं। अपने और दूसरों के साथ करुणा से पेश आते हैं। ध्यान से हम जागरुकता सीखते हैं। रोजमर्रा के कामों के दौरान भी हम अपने मन की हलचलों से वाकिफ रहते हैं। हमारा मन हमेशा या तो अतीत में रहता है या फिर भविष्य के बारे में सोचने में। ध्यान करने से वर्तमान में रहने की आदत बनती है।
 
 
Q. जब हम ध्यान में बैठते हैं और सांस पर ध्यान लगाते हैं तो 10 मिनट के बाद कई-कभार शांति-सुकून की लहरों को महसूस करने लगते हैं, ऐसे में मन कहने लगता है कि सांस पर ध्यान रोक दो, कुछ मत करो, बस शांति का आनंद लो। क्या यह ठीक है?  
A. आमतौर पर जब हम ध्यान लगाते हैं तो हम मन में जो चल रहा होता है, उस पर फोकस करते हैं। उसमें कोई दखलंदाजी नहीं करते। बस देखते हैं। सांस पर ध्यान करते हैं तो जैसी वह चल रही है, वैसे चलने देते हैं। कोई छेड़छाड़ नहीं करते। इस बीच मन में विचार उमड़ने लगते हैं। हम कोशिश करने लगते हैं कि वे विचार मन से रफा-दफा हो जाएं, मन एकदम खाली रहे। कोशिश नाकाम रहती है। मन में विचारों का रेला और तेजी से चलने लगता है। यह गलत धारणा है कि ध्यान का मतलब विचारशून्य हो जाना है। दाल-चावल का उदाहरण लीजिए। जब आप सोचते हैं कि मैं दाल-चावल के बारे में न सोचूं, तो आप उसके बारे में और भी ज्यादा सोचने लगते हैं। तो अहम यह है कि मन में जो विचार आ रहे हैं, उन्हें आने दीजिए। विचारों का बहाव रोकने की कोशिश न करें। ध्यान का आसान तरीका यह है कि सांसों की रफ्तार पर ध्यान लगाएं, उसे देखें। तब आपको शांति, सुकून, खुशी, आनंद, परमानंद की चिंता करने की ज़रूरत नहीं होगी। विचार जब आएं, तब उन्हें आने दें। जब वे जाएं, तब उन्हें जाने दें। आप शांति, आनंद, परमानंद की खोज में न खोएं। विचारों और भावनाओं में न खोएं। आप सिर्फ सांसों को देखें। 
 
 
Q. मतलब हमें सिर्फ सांस पर ध्यान लगाना है, शांति का आनंद नहीं लेना है?  
A. आपको शांति के पीछे भागना नहीं है। ऐसा भी नहीं सोचना कि मुझे शांति चाहिए ही। अगर शांति मिलती है तो अच्छी बात है, सुकून आकर चला जाता है तो भी कोई बात नहीं। ध्यान सांसों पर रहे। ध्यान का मूल मकसद जागरुकता पैदा करना है,  शांति, सुकून, आनंद नहीं। ये सब तो उसके साथ अपने आप ही मिल जाते हैं।

 
Q. ध्यान में बैठने पर कई बार बीच में ही कई जरूरी काम याद आ जाते हैं या फिर कोई नायाब आइडिया टपक पड़ता है। ऐसे में मन बैचैन हो जाता है। लगता है कि जब तक मेडिटेशन खत्म होगा तो हो सकता है कि मुझे ये अद्भुत आइडिया याद न रहे। मैं भूल जाऊं कि मुझे क्या जरूरी काम करना था। तो क्या मुझे मेडिटेशन बीच में रोककर उस आइडिया को लिख लेना चाहिए और फिर दोबारा से मेडिटेशन शुरू करना चाहिए, या फिर मेडिटेशन करते रहना चाहिए?  
A. इसका कोई एक सीधा जवाब नहीं हो सकता। आपको संतुलन खोजना होगा। अगर आपको लगता है कि आप उस महत्वपूर्ण विचार को भूल जाएंगे तो आप मेडिटेशन को रोककर उसे लिख सकते हैं और फिर वापस ध्यान लगा सकते हैं। लेकिन अगर ऐसा बार-बार हो रहा है या कुछ बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है तो मेडिटेशन बीच में न रोकें और आइडिया को बाद में लिख लें। 
 
 
Q. आप बुद्धत्व प्राप्त कर चुके हैं लेकिन हमें साधना की छोटी-मोटी प्रैक्टिस ही सिखा रहे हैं। हमें तो बुद्धत्व यानी आत्मज्ञान हासिल करना है। हम कैसे उस अवस्था तक पहुंच सकते हैं? क्या हम रोजमर्रा के अपने काम करते हुए इसे पा सकते हैं? इसमें कितना वक्त लगता है? क्या इसके लिए मेरे जैसे व्यक्तियों का आपकी तरह (संन्यासी बनकर) रहना जरूरी है? 
A. मैंने बुद्धत्व प्राप्त नहीं किया है। भिक्षु जरूर हूं। आपके अंदर बुद्ध हैं और मेरे अंदर भी। लेकिन सबसे अहम है,आत्मज्ञान पाने की इस यात्रा का आनंद लेना। मुझे आत्मज्ञान कल मिलेगा या उसके अगले दिन, इसकी परवाह नहीं। असल चीज है इस तक पहुंचने का सफर और इस दौरान सामने आनेवाली सबक। जैसा कि वैज्ञानिक भी कहते हैं कि अगर आप सकारात्मक सोच के साथ मेडिटेशन से जुड़ते हैं और दिन में  5 मिनट का समय भी इसे देते हैं तो इससे आपका स्ट्रेस, टेंशन, डिप्रेशन 20 फीसदी तक कम हो सकता है। आपको सिर्फ इतना ही करना है।
 
 
Q. आपने बताया कि आपने बुद्धत्व को प्राप्त नहीं किया है, तो आप अभी किस स्तर पर हैं?
A. सामान्य तौर पर हम इसके बारे में चर्चा नहीं करते। अगर कोई गुरु यह कहता है कि मैं बुद्ध हूं, मैंने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया है तो इसका मतलब है कि कुछ गड़बड़ है। हम मानते हैं कि इस आत्मज्ञान पाने की बात को अपने तक ही सीमित रखना चाहिए। इससे अपनी दुकानदारी नहीं चलानी चाहिए। यह नहीं सोचना चाहिए कि मैं बहुत महत्वपूर्ण हूं। 
 
 
Q. तो क्या अभी कोई ऐसा जीवित इंसान है जो इस अवस्था तक पहुंचा हो?
A. मेरा मानना है कि इस दुनिया में ऐसे कई लोग हैं। मेरे कुछ गुरु हैं, कुछ महान गुरु हैं जो वाकई ऐसा अनुभव प्राप्त कर चुके हैं। बेशक उनमें कोई भी कभी यह नहीं कहेगा कि उसे बुद्धत्व की प्राप्ति हो चुकी है। 
 
 
Q. क्या आप किसी का नाम बता सकते हैं?
A. मैं नाम नहीं बता सकता। वे नहीं चाहेंगे कि मैं उनके बारे में बताऊं।
 
 
Q. कोरोना काल में दुनिया भर में क्या हुआ था, यह आप भी जानते हैं। पूजास्थलों के पट तक बंद हो गए थे। तब विज्ञान ने ही हमें बचाया था। तो क्या हम यह कह सकते हैं कि धर्म नाकाम हो गए थे? 
A. मैं अपनी बात करूं तो कोरोना के दौरान मैंने और भी ज्यादा पढ़ाया। तब मैं ज़ूम पर ऑनलाइन क्लास के जरिये लोगों को सिखाता था। मेरी क्लास में ज्यादा लोग आते थे। वे बहुत बेचैन थे, तनाव में थे। उनके पास वक्त भी ज्यादा था और वे खुद भी सीखना चाहते थे। वे इसे रिट्रीट (साधना शिविर) की तरह देखते थे।
 
 
Q. लेकिन कोरोना के दौरान काफी लोगों की जानें भी गईं। उस समय मठ-मंदिर, सभी बंद थे। कई लोग कहते थे कि देखा, ये सब (पूजा-पाठ, ईश्वर आदि) भ्रम है। इसका कुछ भी फायदा नहीं हो रहा। विज्ञान ही है, जो सबकुछ करता है, सबकी जान बचाता है। ये धार्मिक लोग दावा करते हैं कि हम ये कर देंगे, वो कर देंगे और सबकुछ दान-दक्षिणा के रूप में ले लेते हैं। लेकिन इस महामारी से हमें विज्ञान ने ही बचाया। वही लोग सबसे आगे रहे। 
A. अगर धर्मों का अनुसरण केवल धार्मिक विश्वास की वजह से ही किया जाए तो हो सकता है कि कभी-कभी वह फलीभूत न हो। मैं सोचूं कि बुद्ध मेरे पास आकर कुछ करेंगे, मेरे कोरोना वायरस को मार देंगे तो ऐसा नहीं होगा। अगर आप सिर्फ प्रार्थना, प्रार्थना, प्रार्थना करते रहेंगे तो भी इससे कभी-कभी काम नहीं बनता। आपको सही दिशा में सक्रिय होने की जरूरत है, निष्क्रिय होने की नहीं।
 
 
Q. ऐसा कहा जाता है कि विज्ञान ही लोगों के जीवन को बेहतर बना रहा है जैसे कि मोबाइल, एसी, बिजली आदि...। धर्म ऐसा कुछ नहीं करता।  
A. हां, कुछ मामलों में साइंस ने अच्छा काम किया है, लेकिन कई मामलों में बिगाड़ भी दिया है। परेशानियां भी बहुत-सी दी हैं - प्रदूषण, ग्लोबल वॉर्मिंग आदि। साइंस के साथ समस्या यह है कि वे यह तो जानते हैं कि सोच-विचार कैसे किया जाए, लेकिन वे यह नहीं जानते कि इंसानियत के लिए कैसे काम किया जाए। प्रेम और करुणा उनका मोटिवेशन नहीं है, मोटिवेशन पैसा है। वे नई-नई खोज करने में और मशहूर होने में लगे रहते हैं। फिर वे नई खोजों का पेटेंट कराते हैं और फिर कमर्शल इस्तेमाल करते रहते हैं।  

 
Q. लेकिन मैं ऐसे कुछ वैज्ञानिकों से मिला हूं जो बहुत अच्छे इंसान हैं। दिल से अच्छे हैं। वह कारोबारी फायदे के लिए काम नहीं करते। 
A. मैं यह नहीं कह रहा कि सारे वैज्ञानिक एक जैसे होते हैं। कुछ अच्छे भी होते हैं। 
 
 
Q.  क्या अध्यात्म को अपनाए बिना, मेडिटेशन किए बिना कोई व्यक्ति परम ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता? और अच्छा जीवन नहीं बिता सकता? 
A. बेशक जी सकता है। मेडिटेशन के बिना भी आप अच्छा जीवन जी सकते हैं। कोई समस्या नहीं है। जिसे आप अच्छा जीवन कहते हैं, उसमें आपके पास अच्छी नौकरी या बढ़िया कारोबार होता है, आप स्वस्थ रहते हैं, आप खुश रहते हैं। जाहिर है, यह सब बिना ध्यान लगाए भी मिल जाता है। लेकिन अगर आपको वाकई परम ज्ञान प्राप्त करना है, तो मेरे ख्याल से वह मेडिटेशन के बिना असंभव है। ऐसा इसलिए क्योंकि विचारकों, बुद्धिजीवियों की अपनी एक सीमा होती है। भले ही आप दुनिया के सबसे बुद्धिमान व्यक्ति क्यों न हों, आप एक सीमा से आगे नहीं जा सकते। इसलिए आपको किसी ऐसी चीज की जरूरत होती है, जो बौद्धिक स्तर से परे हो।
 
 
Q. मतलब यह कि मेडिटेशन करना वाला व्यक्ति श्रेष्ठ होता है। लेकिन मैंने ऐसे श्रेष्ठ व्यक्ति को कोई महान आविष्कार करते या कोई महान कार्य करते नहीं देखा है। 
A. स्टीव जॉब्स ऐपल के संस्थापक थे। उन्होंने खुद कहा था कि मैं यह प्रोडक्ट इसलिए तैयार कर पाया क्योंकि मैं मेडिटेशन करता हूं। उन्होंने ज़ेन मेडिटेशन का भी अध्ययन किया था। उनके सभी प्रोडक्ट बहुत आसान लेकिन अव्वल हैं। उनकी तरह के बहुत-से लोग आजकल मौजूद हैं। वैज्ञानिक, थेरपिस्ट आदि। 

Q. सैम हैरिस नाम के एक अमेरिकी न्यूरो-साइंटिस्ट हैं। उन्होंने LCD जैसी ड्रग्स लेकर करीब वैसे आध्यात्मिक अनुभव किए जैसे कि गहरे ध्यान की अवस्था में होते हैं। तो फिर ध्यान जैसी मुश्किल साधनाओं की जरूरत ही क्या है?
A.  ड्रग्स का असर स्थायी नहीं है।  
 
Q. क्या आपने इसे ट्राई किया है?  
A. गांजा? नहीं, मैंने कभी नहीं लिया। एक बार जब मुझे खांसी हो गई थी, तब कफ सिरप लिया था। लोग कहते हैं कि उसमें भी नशा होता है। बस और कुछ नहीं लिया। उसे लेकर मेरा शरीर कुछ अलग-सा हो गया था। लग रहा था, जैसे मेरे चार-चार हाथ हो गए हों।  
 
Q. आपने खांसी के लिए लिया था या इसका अनुभव करने के लिए?  
 A. खांसी के लिए लिया था। अनुभव करने के लिए नहीं। वह गलती से ले लिया था। मेरा मतलब है, डॉक्टर ने मुझे वह लेने के लिए कहा था और उसे लेकर मैं उस अवस्था में पहुंच गया था। फिर पता नहीं, मुझे क्या हुआ। डॉक्टर का कहना था कि यह सब मेरे अंदर मौजूद ड्रग की वजह से हुआ था।  
 
 
Q. तो बस नशा करो और आनंद की अवस्था में पहुंच जाओ। इतना सब कुछ करने की क्या जरूरत है? यह शॉर्टकट क्यों न अपनाया जाए?
A. यह अस्थायी होता है। इसके साइड इफेक्ट भी बहुत ज्यादा होते हैं।  

 
Q. किस तरह के साइड इफेक्ट्स?  
 A. अगर आप बहुत ज्यादा ड्रग्स लेते हैं तो इसके दुष्प्रभाव भी होते हैं। आप उस पर निर्भर हो जाते हैं। उसके आदी बन जाते हैं। यह आपकी सेहत के लिए अच्छा नहीं होता और यह आपमें अंदर से बदलाव नहीं लाता। यह बस अस्थायी होता है। इसलिए ड्रग्स आपकी बेसलाइन में बदलाव नहीं कर सकतीं। बस थोड़ी देर के लिए आपको यह आभास दे सकती हैं कि आपको शांति मिल गई है, सुकून मिल गया है। लेकिन मेडिटेशन में भी यह शांति, सुकून, आनंद, खुशी ज्यादा मायने नहीं रखती। जैसा कि हम कहते हैं, बस अनुभव करो। जो आ रहा है, आने दो। जो जा रहा है, जाने दो। 
 
 
Q. मुझे कैसे पता चलेगा कि मैं सही आध्यात्मिक रास्ते पर हूं?
A. अगर आप ज्यादा शांति महसूस करते हैं, सुकून के साथ रहते हैं, आपके अंदर प्रेम और करुणा बढ़ जाती है तो यह सबसे अच्छा संकेत होता है। बहुत-से लोग  सिद्धियों, चमत्कारों में यकीन करते हैं। उन्हें लगता है जैसे बड़ी ताकत आ गई हो, उड़ रहे हों, आगे की चीजें देख रहे हों। लेकिन ये सब बिलकुल भी महत्वपूर्ण नहीं है। आप इन चीजों को विकसित कर सकते हैं, लेकिन ये आपको ज्यादा अहंकारी, ज्यादा गुस्सैल बना देती हैं। आपकी शांति छिन जाती है। तब समझ लेना चाहिए कि कुछ तो गड़बड़ है।  

 
 Q. लेकिन उड़ना और ऐसी दूसरी सिद्धियां हासिल करना क्या वाकई संभव है?  
A. ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो संभव हैं। कुछ भी असंभव नहीं।  
 
 
Q. क्या आपने खुद कुछ ऐसा देखा है?  
A. हां, शुरुआती दिनों में। मैंने बहुत से अलग-अलग अनुभव किए हैं, लेकिन वह महत्वपूर्ण नहीं है। हम जिसे खास मान रहे हों, जिसके पीछे भाग रहे हों, हो सकता है, वह बुराई का रास्ता हो। वैसे आजकल तो हर कोई उड़ सकता है। है कि नहीं?  

Q. कभी-कभी तार्किक मन कहता है कि बुद्धत्व या निर्वाण कुछ नहीं होता। इस तरह की कोई चीज नहीं होती? यह मन का वहम है।
A. हमें लगता है कि बेहद कठिन है। है ही नहीं। ऐसा कुछ संभव नहीं है। लेकिन असल में ऐसा होता है।
 
Q.  क्या यह निर्वाण, परम ज्ञान, बुद्धत्व - सब एक ही चीज है या अलग-अलग हैं?
A. निर्वाण एक अवस्था है। निर्वाण हासिल करने का मतलब परम ज्ञान की प्राप्ति है और बुद्धत्व भी यही है।

 
Q. हिन्दू धर्म में काफी कर्मकांड हैं। बौद्ध धर्म के बारे में थोड़ा-बहुत जाना तो लगा कि बुद्ध के इस धर्म में कर्मकांड की कोई जगह नहीं होगी लेकिन यहां आया तो पाया कि यहां भी मंत्र, पूजा-पाठ, मूर्तिपूजा आदि है। क्या कोई ऐसी साधना पद्धति नहीं है जिसमें सिर्फ साधना हो, कर्मकांड न हो?
A. धर्म में अगर कर्मकांड रखे गए हैं तो उनका कोई मतलब है। कर्मकांड बाधक नहीं, मदद ही करते हैं।अगर आप कर्मकांड नहीं चाहते तो ऐसे लोगों के लिए हम सेकुलर तरीके से भी साधना कराते हैं। इसका नाम 'जॉय ऑफ लिविंग' है । यह मुख्य रूप से पश्चिमी लोगों के लिए है, कर कोई भी सकता है। इसके लेवल 1  में अवेयरनेस पर काम होता है, लेवल 2 में लव ऐंड कम्पैशन पर और लेवल 3 में विज़डम पर। ये बातें तो पूरी दुनिया के लोगों पर लागू होती हैं चाहे वे धार्मिक हों या नास्तिक। इस कोर्स को ऑनलाइन भी किया जा सकता है, दुनिया में कहीं भी रहकर। आप कोई भी झंझट नहीं चाहते तो शुरुआत करने के लिए आपको एक मंत्र देता हूं - I'm ok, everything is fine यानी मैं ठीक हूं, सब कुछ ठीक है। अब इस मंत्र को दिन भर मन ही मन बीच-बीच में दोहराना है, इस बारे में जागरुकता रखनी है।
 
 
Q. जब आध्यात्मिक साधना करते हैं या धार्मिक सत्संग सुनते हैं तो कुछ लोगों के गुस्से और नुकीलेपन में कुछ कमी आ जाती है, वे नरमदिल, मुलायम बन जाते हैं लेकिन तब वे इस जमाने में जीने लायक नहीं रहते। लोग उनका नाजायज फायदा उठाते हैं, उनके भलेपन का इस्तेमाल करते हैं। 
A. दूसरों की मदद करना, उनके सुख-दुख में शामिल होना अच्छी बात है लेकिन इसके साथ ही हमें यह भी जानना चाहिए कि हमारी अपनी इच्छा क्या है, हम दूसरों की कितनी मदद कर सकते हैं, कितना दे सकते हैं। आपको संतुलन बनाना होगा। सबसे अहम बात यह कि हमें ना कहना सीखना होगा। आप किस तरह ना कह सकते हैं, यह सीख लेना बुद्धिमानी होगी। आप किसी की मदद कर सकते हैं, कभी-कभी नहीं भी कर सकते, यह सच आपको स्वीकार कर लेना चाहिए। यह खुद से साक्षात्कार जैसा है। इसे सीख लेंगे तो आप आगे चलकर ज्यादा मदद कर पाएंगे। फ्लाइट के दौरान यह सही ही याद दिलाया जाता है कि दूसरों का ऑक्सीजन मास्क बाद में लगाएं, पहले अपना लगाएं। तभी दूसरों की मदद कर पाएंगे। यही ज़िंदगी पर भी लागू होता है। पहले खुद को इस लायक बनाएं, फिर दूसरों की मदद करें।

Q.  गलत आदमी को बर्दाश्त करने की सीमा क्या होनी चाहिए? 
A. आमतौर पर पहले हमें सज्जनता से पेश आना चाहिए, उसे माफ कर देना चाहिए। उसे नजरंदाज करना चाहिए क्योंकि सामान्यतः सारी समस्याएं छोटी-छोटी घटनाओं से ही शुरू होती हैं। अगर  उससे साबका रोज पड़ता है और एक बार, दो बार, तीन बार इग्नोर करने पर भी बात न बने, तब आप कुछ अलग सोच सकते हैं। यह सच है कि मुस्कुराहट से हमेशा काम नहीं बनता। सामनेवाले को उसका विवेक जगाने में मदद करें। उसे बताएं ताकि वह समझ सके, खुद में बदलाव ला सके। आप माहौल बदलने कोशिश कर सकते हैं। आप उन्हें रोल मॉडल बनकर सही तरीके से रिऐक्ट करने को प्रेरित कर सकते हैं। कुछ ऐसा करें कि उसका भरोसा जीत लें। यह सब नाकाम हो जाए तो उस वक्त आपको एक सीमारेखा तय करनी होगी। तभी तो करुणा के साथ विवेक को भी रखा गया है। हालात देखकर फैसला करना है। अपना बचाव करना जरूरी है। विक्टिम नहीं बनना है। अपनी सुरक्षा के लिए आखिरी उपाय के रूप में हिंसा भी करनी पड़े तो हर्ज नहीं है। हम गलती यह करते हैं कि जो उपाय सबसे बाद में आजमाना चाहिए, उसे सबसे पहले बरत लेते हैं। आत्मरक्षा के लिए अगर आखिरी उपाय के रूप में हमला करना पड़े तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। इसी सोच के कारण पुराने जमाने से बहुत-से बौद्ध भिक्षु कुंग-फू जैसी मार्शल आर्ट्स सीखते रहे हैं। 
 
 Q. क्या आपको भी कुंग-फू या दूसरी मार्शल आर्ट्स आती हैं?
 A. नहीं-नहीं। बिलकुल नहीं। 

इंटरव्यू भाग-2 में जारी...

दूसरे भाग का लिंक
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कविता

दुनिया की प्रत्येक चीज   संदेह से दूर नहीं मैं और तुम  दोनों भी खड़े हैं संदेह के आखिरी बिंदु पर तुम मुझ देखो संदेहास्पद नजरों से मैं तुम्हें...